नयी दिल्ली, नौ नवंबर उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि बलात्कार और हत्या के मामलों में पीड़ितों की कम उम्र को मृत्युदंड देने के लिए "इस अदालत द्वारा एकमात्र या पर्याप्त आधार" नहीं माना गया है। इसके साथ ही न्यायालय ने अपने फैसले का जिक्र किया जिसमें पिछले 40 वर्षों में उसके द्वारा निपटाए गए 67 इसी तरह के मामलों का विश्लेषण किया गया था।
न्यायालय की यह महत्वपूर्ण टिप्पणी इरप्पा सिद्दप्पा की अपील पर आई है, जिसे निचली अदालत ने दोषी ठहराया था और मौत की सजा सुनायी थी। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने छह मार्च, 2017 को निचली अदालत के फैसले को बरकार रखा था।
इरप्पा को 2010 में कर्नाटक के एक गांव में पांच साल की बच्ची के अपहरण, बलात्कार और हत्या के आरोप में दोषी ठहराया गया था।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बीआर गवई की पीठ ने बलात्कार, हत्या और सबूतों को नष्ट करने के अपराधों के लिए सिद्दप्पा की दोषसिद्धि की पुष्टि की लेकिन मृत्युदंड की सजा को रद्द कर दिया और इसे 30 साल की अवधि के लिए आजीवन कारावास में बदल दिया।
पीठ की ओर से न्यायाधीश खन्ना द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया है, ‘‘ हम सत्र अदालत द्वारा सुनायी गयी और उच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखी गयी मौत की सजा को कम कर आजीवन कारावास करने के लिए पर्याप्त कारक पाते हैं, इस निर्देश के साथ कि अपीलकर्ता धारा 302 (हत्या) के तहत अपराध के लिए समय से पहले रिहाई या छूट का हकदार नहीं होगा जब तक कि वह कम से कम तीस साल तक कारावास में नहीं रहे।’’ पीठ ने यह भी कहा कि सजाएं साथ-साथ चलेंगी।
पीठ ने बलात्कार और हत्या के मामलों में पीड़ितों के नाबालिग होने के आधार पर व्यापक सुनवाई की तथा शत्रुघ्न बबन मेश्राम मामले में सर्वोच्च अदालत के फैसले का जिक्र किया, जिसमें पिछले 40 वर्षों में उच्चतम न्यायालय के 67 फैसलों का विश्लेषण किया गया था।
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