शोधकर्ता कहते हैं कि उन्होंने विशाल डायनोसोरों के छोटी-छोटी छिपकलियों में तब्दील होने की गुत्थी सुलझा ली है. लेकिन, जलवायु परिवर्तन की वजह से जानवर और ज्यादा सिकुड़ते जा रहे हैं.अगर इंसान 10 करोड़ साल पहले जिंदा होते, तो निश्चित रूप से विशालकाय जानवरों से लगातार छिपते फिर रहे होते.
11 मीटर (36 फुट) लंबे विशाल डैनों वाले टेरोसोर जैसे डायनोसोर आसमान से हम पर झपट्टा मारते, जबकि 15 मीटर लंबे स्पाइनोसॉरस मैदानों में हमें दौड़ाते रहते.
सबसे बड़े आकार के जीवित सरीसृप (रेपटाइल) खारे पानी के मगरमच्छ से इसकी तुलना कीजिए, जो बस छह मीटर लंबा होता है.
नये शोध के मुताबिक जानवरों के आकार में बदलाव दो मुख्य पारिस्थितिकीय कारकों पर निर्भर करता है. प्रजातियों के बीच संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा और पर्यावरण की वजह से विलुप्त होने का जोखिम.
यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग में ईकोसिस्टम मॉडलर शोवनलाल रॉय इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता हैं. वह कहते हैं, "जहां हम रहते हैं, उस आधार पर हम गरम या ठंडे मौसम के हिसाब से जिस तरह ढलने की कोशिश करते हैं, उसी तरह हमारा शोध दिखाता है कि बसेरे या पर्यावरण के आधार पर लंबी अवधियों में पशुओं का आकार बड़ा या छोटा हो सकता है."
यह अध्ययन कम्युनिकेशन्स बायॉलजी पत्रिका में 18 जनवरी को प्रकाशित हुआ था.
जानवर समय के साथ सिकुड़ते हैं या बढ़ते हैं
रॉय और दूसरे शोधकर्ताओं की टीम कोप्स नियम कहलाने वाले मौजूदा सिद्धांत को चुनौती देना चाहती थी कि आखिर क्यों अपने विकासक्रम में जानवर आकार बदलते हैं.
कोप्स नियम कहता है कि कई पशु समूहों में हजारों-लाखों वर्षों के दौरान देह का ज्यादा बड़े आकार में विकसित होने की प्रवृत्ति होती है.
19वीं सदी के जीवाश्मविज्ञानी (पैलिऑन्टॉलजिस्ट) एडवर्ज कोप ने पहली बार यह गौर किया था कि जिस घोड़े के प्रारंभिक पूर्वज कुत्ते के आकार वाले छोटे पशु थे, वह आखिर समय के साथ आकार में क्यों बढ़ता गया.
लेकिन, शोधकर्ताओं का कहना है कि कोप के नियम में कुछ स्पष्ट अपवाद थे. उदाहरण के लिए विशालकाय सरीसृप डायनोसोरों का आकार सिकुड़ा और वे हथेली जितने बड़े छिपकली या गौरेया बन गए.
हालिया इतिहास में भी अलास्कन घोड़े विलुप्त होने से पहले 24,000 साल और 14,500 साल के बीच करीब 12 फीसदी सिकुड़ गए थे.
रॉय कहते हैं, "पारिस्थितिकीय कारकों में बदलाव ये समझाने में मदद करते हैं कि जीवाश्म के रिकॉर्ड आकार में क्रमिक विकास के ऐसे भ्रमित करने वाले पैटर्न क्यों दिखाते हैं, जिनके तहत कुछ प्रजातियां समय के साथ सिकुड़ती जाती हैं और कुछ बढ़ती जाती हैं".
प्रतिस्पर्धा और जलवायु से प्रभावित होता पशुओं का आकार
रॉय और उनके सहकर्मियों ने अलग-अलग पारिस्थितिकीय और शारीरिक स्थितियों में क्रमिक विकास की नकल तैयार करने के लिए कंप्यूटर मॉडलों का इस्तेमाल किया. उन्होंने तीन अलग-अलग परिदृश्य पाए, जिनमें क्रमिक विकास देह के आकार को प्रभावित करता है.
पहला, पशु आकार में समय के साथ वृद्धि. शोधकर्ताओं ने पाया कि पशु प्रजातियों के बीच कम प्रतिस्पर्धा होने की स्थिति में यानी भोजन की बहुतायत रहने की स्थिति में वे आकार में बड़े होते जाते हैं. जुरासिक काल में यही हुआ, जब डायनोसोरों का आकार बहुत विशाल हो गया था.
रॉय कहते हैं, "जहां सीधी प्रतिस्पर्धा कम है, वहां आकार ज्यादा बड़ा हो जाता है. भले ही ज्यादा बड़े और संख्या में कम होते जाने से पशुओं का अंत भी जल्दी आ सकता है. जैसा कि डायनोसोरों के साथ हुआ था."
दूसरा, मॉडल ने पाया कि कुछ जानवर बड़े होते जाते हैं और फिर विलुप्त हो जाते हैं. जैसे डायनोसोर और ऊनदार (वूली) मैमथ प्रतिस्पर्धी मांगों को पूरा करने के लिए आकार में बढ़ते गए. फिर पर्यावरणीय आपदाओं की वजह से या दूसरी प्रजातियों से हारकर विलुप्त हो गए.
तीसरा, मॉडल ने कोप के नियम का विलोम भी पाया कि प्रजातियां समय के साथ सिकुड़ती हैं. ये तब होता है, जब प्रतिस्पर्धा ज्यादा होती है और बसेरों और संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर एक तरह के ओवरलैप की स्थिति बन जाती है.
रॉय कहते हैं, "भोजन और शेल्टर के लिए जिन जगहों पर अलग-अलग प्रजातियों के बीच बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धा होती है, वहां पशु आकार अक्सर छोटा होता जाता है, क्योंकि प्रजातियां फैलती जाती हैं और संसाधनों के बंटवारे और प्रतिस्पर्धियों की वजह से वे खुद को उनके अनुकूल ढाल लेती हैं. उदाहरण के लिए हिमयुग के दौरान अलास्का में रहने वाले छोटे घोड़े जलवायु और वनस्पति में परिवर्तन की वजह से सिकुड़ गए थे."
अब जलवायु परिवर्तन भी बना कारण
अध्ययन यह भी बताता है कि जानवरों का सिकुड़ना आखिर क्यों जारी है.
पिछले 30 साल के दौरान ध्रुवीय भालू अपने पूर्व आकार के मुकाबले दो-तिहाई सिकुड़ चुके हैं. और बात सिर्फ उनकी ही नहीं, पक्षी, उभयचर (एम्फिबियन्स) और स्तनपायी (मैमल) पिछली सदी के दौरान आकार में और छोटे हुए हैं.
वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि जानवर जलवायु परिवर्तन के लिहाज से खुद को तेजी से ढाल रहे हैं.
1847 में जंतुविज्ञानी क्रिस्टियान बर्गमान ने बताया था कि ठंडी जलवायु में रहने वाले स्तनपायी और पक्षी गर्म जलवायु में रहने वाले स्तनपायियों और पक्षियों की तुलना में बड़े होते हैं. बर्गमान मानते थे कि ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि ज्यादा बड़े पशुओं में सतह-क्षेत्र और आयतन का अनुपात छोटा होता है. यानी वे ऊष्मा बनाए रखने में बेहतर होते हैं.
इसीलिए मुमकिन है कि वूली मैमथ आकार में इतने विशाल होते चले गए. प्राकृतिक चयन ने ज्यादा बड़े, शीत-निरोधी पशुओं की मदद की.
लेकिन एकबारगी पृथ्वी पर हिमयुग समाप्त हुआ, तो मैमथ नई परिस्थितियों में ढलने के लिए जूझते रहे और अंतत: विलुप्त हो गए. इंसानी शिकारियों ने भी इस प्रक्रिया को तेज किया.
वैज्ञानिक मानते हैं कि अब जैसे-जैसे पृथ्वी गरम हो रही है, तो प्राकृतिक चयन पशुओं को और छोटा बनाने की ओर उन्मुख है. तापमान में ज्यादा नाटकीय वृद्धि वाले इलाकों के पशुओं के लिए यह बात खासतौर से सच है. जैसे कि आर्कटिक के ध्रुवीय भालू.
रॉय ने DW को बताया, "जलवायु या पर्यावरणीय बदलाव की वजह से बसेरों का विनाश अंततः विलुप्ति की ओर ले जा सकता है. ध्रुवीय भालू स्पष्ट रूप से समुद्री बर्फ और अपने बसेरे के नुकसान का सामना कर रहे हैं. अपने मॉडलिंग अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर हम स्थिति विशेष का मूल्यांकन करें, तो हैरानी की बात नहीं होगी कि वक्त के साथ वे आकार में तेजी से सिकुड़ते जाएं."