अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में शिक्षण संस्थानों में अफरमेटिव एक्शन को गैरकानूनी करार दिया है, जो एक तरह की आरक्षण नीति है.अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने देश के शिक्षण संस्थानों में अफरमेटिव एक्शन पर प्रतिबंध लगा दिया है. गुरुवार को दिये एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दाखिला देते वक्त नस्ल और जातीयता को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करना असंवैधानिक है.
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दशकों से चली आ रही अफरमेटिव एक्शन की नीति के लिए एक बड़ा धक्का है. इस नीति के तहत अश्वेत और अन्य अल्पसंख्यक अमेरीकियों को अतिरिक्त समर्थन देने के मकसद से उन्हें विशेष लाभ दिये जाते हैं. इस नीति का मकसद अमेरिकी शिक्षण संस्थानों में विविधता बढ़ाना रहा है ताकि हर तबके के लोगों को बराबर दाखिला मिल सके.
क्या है अफरमेटिव एक्शन?
अफरमेटिव एक्शन अमेरिका में एक तरह की आरक्षण नीति है जिसका मकसद कुछ विशेष तबकों के खिलाफ ऐतिहासिक भेदभाव और पूर्वाग्रहों को दूर करना है.
अगर शिक्षा के क्षेत्र में देखा जाए तो अफरमेटिव एक्शन कॉलेज और विश्वविद्यालयों में दाखिला देने की नीति बनाने में दिशा-निर्देश के तौर पर इस्तेमाल होता है, ताकि अश्वेत और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के दाखिले बढ़ाए जा सकें.
शिक्षण संस्थानों का कहना है कि वे जब छात्रों के दाखिले पर फैसला करते हैं तो अंकों और सामाजिक सक्रियता समेत उनकी अर्जियों के हर पहलू पर विचार किया जाता है लेकिन उनकी नस्ल और रंग को भी ध्यान में रखा जाता है.
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नस्ल या रंग को ध्यान में रखकर दाखिले देने की नीति का मकसद यह है कि विभिन्न समुदाय के लोग पढ़ने के लिए आएं और छात्रों को पढ़ाई के दौरान समग्र अनुभव मिले. इसके तहत शिक्षण संस्थान अल्पसंख्य छात्रों की भर्ती के लिए विशेष योजनाएं और स्कॉलरशिप भी उपलब्ध कराते हैं ताकि उनके यहां विविधता बढ़े.
2019 में अमेरिका की नेशनल एसोसिएशन फॉर कॉलेज एडमिशन काउंसलिंग द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण में एक चौथाई शिक्षण संस्थानों ने कहा था कि अफरमेटिव एक्शन नीति का उनकी दाखिला प्रक्रिया पर किसी ना किसी तरह का प्रभाव रहता है. लेकिन आधे से ज्यादा शिक्षण संस्थानों ने कहा था कि वे छात्रों को दाखिला देते वक्त नस्ल या रंग को ध्यान में नहीं रखते.
देश के नौ राज्य – एरिजोना, कैलिफॉर्निया, फ्लोरिडा, आइडहो, मिशिगन, नेब्रास्का, न्यू हैंपशर, ओक्लाहोमा और वॉशिंगटन - पहले ही सरकारी शिक्षण संस्थानों में दाखिला नीति में नस्ल को ध्यान में रखने पर रोक लगा चुके हैं.
क्या था मौजूदा मामला?
सुप्रीम कोर्ट का गुरुवार का फैसला दो मुकदमों के संदर्भ में आया है. ये मुकदमे स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशंस नाम के एक संगठन ने दायर किये थे. यह संगठन एडवर्ड ब्लूम नामक सामाजिक कार्यकर्ता ने बनाया है जो दशकों से अफरमेटिव एक्शन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं.
एक मुकदमे में कहा गया कि हार्वर्ड की दाखिला नीति एशियाई मूल के अमेरिकी लोगों के साथ गैरकानूनी रूप से भेदभाव करती है. दूसरे मुकदे में नॉर्थ कैरोलाइना यूनिवर्सिटी में श्वेत और एशियाई मूल के अमेरिकी छात्रों के साथ भेदभाव का आरोप था.
दोनों ही विश्वविद्यालय इन आरोपों को बेबुनियाद बताते हैं. उनका कहना है कि बहुत कम संख्या में छात्रों को दाखिला देते वक्त नस्ल या मूल पर ध्यान दिया जाता है. संस्थानों का तर्क है कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो विश्वविद्यालयों में अल्पसंख्य समुदाय के छात्रों की संख्या बहुत घट जाएगी.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नौ में छह जजों का समर्थन मिला है. मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स ने फैसले में लिखा कि अफरमेटिव एक्शन "अच्छी भावना से लागू किया गया” एक कदम है लेकिन ऐसा हमेशा नहीं चल सकता और इसके कारण अन्य समुदायों के साथ भेदभाव होता है.
जस्टिस रॉबर्ट्स ने लिखा, "छात्रों को उनके व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर परखा जाना चाहिए ना कि उनकी नस्ल के आधार पर.”
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कोर्ट ने कहा कि विश्वविद्लायों को इस बात की पूरी आजादी है कि वे छात्रों को दाखिला देते वक्त उनकी पृष्ठभूमि पर ध्यान दें, जैसे कि बड़े होते वक्त किसी छात्र को नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा है या नहीं.
लेकिन जस्टिस रॉबर्ट्स ने कहा कि दाखिला देते वक्त यह बात प्राथमिक आधार नहीं हो सकती कि कोई छात्र श्वेत या अश्वेत है क्योंकि यह अपने आप में भेदभाव है. उन्होंने कहा, "हमारा संवैधानिक इतिहास इस विकल्प को सहन नहीं करता.”
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से असहमति जतायी है. उन्होंने कहा कि यह फैसला दशकों पुरानी नीति के खिलाफ जाता है और कॉलेजों को इस फैसले को अंतिम सत्य नहीं मानना चाहिए. व्हाइट हाउस में बोलते हुए बाइडेन ने शिक्षण संस्थानों से आग्रह किया कि वे विविधता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को ना छोड़ें.
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बाइडेन ने कहा, "अमेरिका में आज भी भेदभाव मौजूद है. आज का फैसला इस तथ्य को नहीं बदल सकता. मेरा मानना है कि विविधता कॉलेजों को और ज्यादा मजबूत करती है, हमारे देश को मजबूत करती है क्योंकि तब हम देश की संपूर्ण प्रतिभा का इस्तेमाल कर पाते हैं.”
विवेक कुमार (रॉयटर्स)