नयी दिल्ली, 11 दिसंबर उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को यह कहते हुए सड़क दुर्घटना के कारण 75 प्रतिशत बौद्धिक दिव्यांगता वाली महिला को मिलने वाली मुआवजा राशि बढ़ा दी कि विवाह या साथी का होना व्यक्ति के स्वाभाविक जीवन का अभिन्न अंग है।
न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि जून, 2009 में दुर्घटना के समय लड़की सात वर्ष की थी और चिकित्सा प्रमाण पत्र के अनुसार वह बौद्धिक दिव्यांगता से ग्रस्त है।
उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘‘अपीलकर्ता (महिला) ने न केवल अपना बचपन खो दिया है, बल्कि अपना वयस्क जीवन भी खो दिया है। विवाह या जीवनसाथी का होना मनुष्य के स्वाभाविक जीवन का अभिन्न अंग है।’’
पीठ ने कहा कि हालांकि महिला बच्चे को जन्म देने में सक्षम है, लेकिन उनके लिए बच्चों का पालन-पोषण करना और वैवाहिक जीवन का आनंद लेना लगभग असंभव है।
पीठ ने इसलिए मुआवजे की राशि बढ़ाकर 50.87 लाख रुपये कर दी।
उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के नवंबर, 2017 के उस आदेश को चुनौती देने वाली उनकी अपील पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें उन्हें 11.51 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया गया था।
पीठ ने कहा कि महिला जीवनभर किसी अन्य व्यक्ति पर निर्भर रहेगी और उम्र बढ़ने के बावजूद वह मानसिक रूप से अभी भी कक्षा दो में पढ़ने वाली बच्ची की तरह ही रहेगी।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जून, 2009 में अपीलकर्ता अपने परिवार के सदस्यों के साथ पैदल घर जा रही थी और वे सड़क पार कर रहे थे, तभी एक तेज रफ्तार कार ने उन्हें टक्कर मार दी।
न्यायालय ने कहा कि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के प्रावधान के तहत मुआवजे के लिए एक दावा याचिका मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण के समक्ष दायर की गई थी, जिसने 5.90 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया।
इसके बाद अपीलकर्ता ने दुर्घटना में लगी चोटों के लिए दिए जाने वाले मुआवजे में वृद्धि का अनुरोध करते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
उच्च न्यायालय ने मुआवजा राशि बढ़ाकर 11.51 लाख रुपये कर दी, लेकिन मामूली वृद्धि के मद्देनजर अपीलकर्ता ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
महिला के वकील ने पीठ को बताया कि चिकित्सक के साक्ष्य के अनुसार, महिला को 75 प्रतिशत बौद्धिक दिव्यांगता है।
वकील ने दलील दी कि मध्यम बौद्धिक विकलांगता वाले बच्चे आमतौर पर कक्षा दो के बच्चे के स्तर तक कौशल सीखने में सक्षम होते हैं और केवल करीबी देखरेख के तहत काम कर सकते हैं।
पीठ ने उच्च न्यायालय के इस दृष्टिकोण को भी ‘‘गलत’’ करार दिया कि महिला को केवल अंशकालिक परिचारिका की आवश्यकता होगी।
उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘‘इसके विपरीत, हमारा मानना है कि अपीलकर्ता को जीवनभर पूर्णकालिक आधार पर एक परिचारिका पर निर्भर रहना पड़ेगा।’’
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