नयी दिल्ली, 12 अक्टूबर उच्चतम न्यायालय ने 27 साल पुराने एक वैवाहिक विवाद का निपटारा करते हुए एक दंपती के तलाक को मंजूरी नहीं दी और कहा कि विवाह नामक संस्था समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अदालतों में तलाक की अर्जी दायर करने की बढ़ती प्रवृत्ति के बावजूद भारतीय समाज में आज भी विवाह को एक महत्वपूर्ण और पवित्र बंधन माना जाता है।
न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी की पीठ ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ 89 वर्षीय एक व्यक्ति द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया, जिसमें चंडीगढ़ की जिला अदालत के तलाक मंजूर करने संबंधी आदेश को पलट दिया गया था। उनकी पत्नी की आयु 82 वर्ष हैं।
पीठ ने कहा, ‘‘हमारी राय में, किसी को भी इस तथ्य से अनजान नहीं होना चाहिए कि विवाह नामक संस्था समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज में वैवाहिक रिश्तों के जरिये कई अन्य रिश्ते बनते हैं।’’
पीठ ने 10 अक्टूबर के अपने आदेश में कहा, ‘‘प्रतिवादी (पत्नी) अभी भी अपने पति की देखभाल करने के लिए तैयार है और जीवन के इस पड़ाव पर उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहती है। उन्होंने अपनी भावनाएं भी जाहिर की हैं कि वह ‘तलाकशुदा’ महिला होने का कलंक लेकर मरना नहीं चाहतीं। समकालीन समाज में, यह एक कलंक नहीं हो सकता है लेकिन यहां हम प्रतिवादी की भावना से चिंतित हैं।’’
पीठ की ओर से फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने कहा कि पति, जो एक योग्य चिकित्सक है और भारतीय वायु सेना से सेवानिवृत्त है, ने सेवानिवृत शिक्षिका अपनी पत्नी की ‘क्रूरता’ के आधार पर मार्च 1996 में हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक की कार्यवाही शुरू की थी।
इस व्यक्ति ने आरोप लगाया कि उसकी अलग रह रही पत्नी ने उसके साथ उस समय क्रूर व्यवहार किया और जब उसका स्थानांतरण मद्रास हो गया था और वह उनके साथ नहीं आई।
उन्होंने दावा किया था कि पत्नी ने उनकी छवि खराब करने के लिए वायु सेना अधिकारियों से उनके खिलाफ शिकायतें की थीं और ये एक तरह से ‘क्रूरता’ थी।
दूसरी ओर, पत्नी ने उच्चतम न्यायालय में कहा कि वह एक वृद्ध महिला है और ‘‘तलाकशुदा’’ महिला होने के कलंक के साथ मरना नहीं चाहती है और उसने इस पवित्र रिश्ते का सम्मान करने के लिए हर संभव प्रयास किया है और वह ऐसा कर रही है। वह अभी भी अपने बेटे की सहायता से अपने पति की देखभाल करने के लिए तैयार है।
पत्नी ने शीर्ष अदालत से आग्रह किया कि वह उच्च न्यायालय के आदेश में हस्तक्षेप न करे, जिसने तलाक न देने की उसकी याचिका स्वीकार कर ली है।
इस दंपती ने 10 मार्च, 1963 को अमृतसर में सिख रीति-रिवाजों के अनुसार शादी की थी और उनके तीन बच्चे दो बेटियां और एक बेटा हैं।
पीठ ने कहा कि उनके बीच संबंध सामान्य थे लेकिन रिश्तों में खटास तब आई जब जनवरी 1984 में पति की तैनाती मद्रास में हुई और पत्नी उनके साथ नहीं आई और अपने ससुराल वालों और बेटे के साथ रहना पसंद किया।
शीर्ष अदालत ने कहा कि कई प्रयासों के बावजूद, मतभेदों और विवादों का समाधान नहीं किया जा सका, जिसके कारण अंततः पति को 12 मार्च, 1996 को जिला अदालत के समक्ष तलाक की अर्जी दायर करनी पड़ी।
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