Supreme court: उच्चतम न्यायालय आजीवन कारावास से जुड़ी याचिका पर सुनवाई के लिए सहमत
Supreme Court | PTI

नयी दिल्ली, 9 फरवरी : उच्चतम न्यायालय शुक्रवार को उस याचिका पर सुनवाई करने के लिए सहमत हो गया जिसमें यह बताने का अनुरोध किया गया है कि क्या ‘आजीवन कारावास’ का मतलब पूरे जीवन के लिए होगा या इसे क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 432 के तहत प्राप्त शक्तियों द्वारा कम या माफ किया जा सकता है? सीआरपीसी की धारा 432 सजा को निलंबित करने या कम करने की शक्ति से संबंधित है.

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर चंद्रकांत झा द्वारा दायर याचिका पर जवाब मांगा. झा हत्या के तीन मामलों में दोषी ठहराए जाने के बाद आजीवन कारावास की सजा काट रहा है. वकील ऋषि मल्होत्रा के माध्यम से दायर अपनी याचिका में, झा ने कहा कि उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और 201 (अपराध के सबूतों को गायब करना) के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है.

उसने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहले एक निचली अदालत द्वारा उसे दी गई मौत की सजा को कम कर दिया था और इसे आजीवन कारावास में बदल दिया था. याचिका में कहा गया है, ‘‘यहां यह उल्लेख करना उचित है कि आईपीसी की धारा 302 में स्पष्ट रूप से दो दंडों का उल्लेख किया गया है, एक है मौत की सजा और दूसरा है आजीवन कारावास. इसमें इन दोनों के अलावा किसी अन्य सजा का जिक्र नहीं है.’’

याचिका में कहा गया है कि यदि आजीवन कारावास का मतलब अपनी अंतिम सांस तक कैद में रहना होता है तो यह दोषी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. इसमें कहा गया है कि हत्या के अपराध के लिए अंतिम सांस तक कारावास की सजा देना असंवैधानिक है क्योंकि यह किसी व्यक्ति के सुधार का मौका पूरी तरह से छीन लेता है और इससे राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित छूट नीति और नियमों का उल्लंघन होता है.

याचिका में कहा गया है, ‘‘यहां यह उल्लेख करना भी उचित है कि सीआरपीसी की धारा 432 के तहत किसी व्यक्ति को सजा से छूट देना एक वैधानिक अधिकार है.’’ इसमें कहा गया कि उच्च न्यायालय द्वारा याचिकाकर्ता को दी गई सजा पूरी तरह से उचित नहीं है.

याचिका में कहा गया है, ‘‘इस अदालत के समक्ष उठाया गया मुख्य मुद्दा यह है कि क्या 'आजीवन कारावास' का मतलब पूरे जीवन तक होगा या इसे सीआरपीसी की धारा 432 के तहत छूट की शक्तियों के माध्यम से कम या माफ किया जा सकता है.’’

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