देश की खबरें | धर्मनिरपेक्षता को हमेशा संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न हिस्सा माना गया है: उच्चतम न्यायालय

नयी दिल्ली, 21 अक्टूबर उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि धर्मनिरपेक्षता को हमेशा से भारतीय संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग माना गया है।

न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और अन्य की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की, जिन्होंने संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल किये जाने को चुनौती दी है।

पीठ ने कहा, ‘‘इस न्यायालय ने कई निर्णयों में माना है कि धर्मनिरपेक्षता हमेशा से संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा रही है। अगर समानता के अधिकार और संविधान में प्रयुक्त 'बंधुत्व' शब्द को सही से देखा जाए, तो इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मुख्य विशेषता माना गया है।’’

इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 1976 में लाये गये 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्द शामिल किये गये थे।

इस संशोधन ने प्रस्तावना में भारत का उल्लेख "संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य" से बदलकर "संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" कर दिया।

सुनवाई के दौरान जैन ने दलील दी कि डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने कहा था कि "समाजवाद" शब्द को शामिल करने से व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगेगा। उन्होंने कहा कि प्रस्तावना को संशोधनों के जरिये संशोधित नहीं किया जा सकता।

न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि समाजवाद के अलग-अलग अर्थ हैं और "पश्चिमी देशों में अपनाए गए अर्थ को नहीं लिया जाना चाहिए"।

पीठ ने कहा, ‘‘समाजवाद का अर्थ यह भी हो सकता है कि अवसर की समानता होनी चाहिए और देश की संपत्ति समान रूप से वितरित की जानी चाहिए।’’

याचिकाकर्ताओं में शामिल अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह न तो ‘‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता’’ शब्दों के खिलाफ हैं और न ही संविधान में उनके शामिल किए जाने के खिलाफ हैं, बल्कि वह इन शब्दों को 1976 में प्रस्तावना में शामिल किए जाने के खिलाफ हैं और वह भी 26 नवंबर, 1949 से पूर्वव्यापी प्रभाव के साथ।

उन्होंने कहा कि एक शब्द जोड़ने से देश में कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि भविष्य की सरकारों के लिए भानुमती का पिटारा खुल जाता है। उन्होंने कहा कि ये सरकारें इन शब्दों के साथ खेल सकती हैं। उन्होंने कहा कि प्रस्तावना से एक शब्द हटाया जा सकता है।

दूसरी ओर, स्वामी ने कहा कि प्रस्तावना 26 नवंबर, 1949 को की गई एक घोषणा थी, इसलिए बाद में संशोधन के माध्यम से इसमें और शब्द जोड़ना मनमाना था।

उन्होंने कहा कि यह दर्शाना गलत है कि वर्तमान प्रस्तावना के अनुसार, भारतवासी 26 नवंबर, 1949 को भारत को एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनाने के लिए सहमत हुए थे। पीठ ने कहा कि वह मामले की पड़ताल करेगी।

इसने मामले की अगली सुनवाई के लिए 18 नवंबर की तारीख निर्धारित की।

शीर्ष अदालत ने नौ फरवरी को सवाल किया था कि क्या संविधान की प्रस्तावना को अपनाने की तारीख, 26 नवंबर, 1949 को बरकरार रखते हुए संशोधित किया जा सकता है।

जैन ने कहा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना एक विशिष्ट तिथि के साथ आती है, इसलिए, बिना चर्चा के इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता।

स्वामी ने कहा कि 42वां संशोधन अधिनियम आपातकाल (1975-77) के दौरान पारित किया गया था।

शीर्ष अदालत ने दो सितंबर, 2022 को स्वामी की याचिका को अन्य लंबित मामले ‘‘बलराम सिंह और अन्य’’ के साथ सुनवाई के लिए संलग्न कर दिया था।

स्वामी और सिंह दोनों ने प्रस्तावना से "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को हटाने की मांग की है।

स्वामी ने अपनी याचिका में दलील दी कि प्रस्तावना को बदला या निरस्त नहीं किया जा सकता है।

उन्होंने कहा कि प्रस्तावना न केवल संविधान की आवश्यक विशेषताओं को इंगित करती है, बल्कि उन मूलभूत शर्तों को भी दर्शाती है जिनके आधार पर इसे एकीकृत समुदाय बनाने के लिए अपनाया गया था।

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