नयी दिल्ली, तीन मई केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने संबंधी याचिकाओं को खारिज करने का उच्चतम न्यायालय से अनुरोध करते हुए बुधवार को कहा कि जीवनसाथी चुनने के अधिकार का मतलब कानूनी तौर पर स्थापित प्रक्रिया से परे शादी का अधिकार नहीं होता है।
केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपनी लिखित दलीलों में कहा है कि यह पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है कि सरकार सभी मानवीय रिश्तों को मान्यता देने के लिए बाध्य है, बल्कि इसके बजाय यह माना जाना चाहिए कि सरकार के पास किसी भी व्यक्तिगत संबंध को मान्यता देने का कोई अधिकार नहीं है, जब तक कि इसे विनियमित करने में इसका कोई कानूनी हित समाहित न हो।
प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।
मेहता ने अपनी लिखित दलील में कहा, "इसलिए, यह प्रस्तुत किया गया है कि जीवनसाथी चुनने के अधिकार का मतलब कानूनी तौर पर स्थापित प्रक्रिया से परे शादी का अधिकार नहीं होता है।’’
शीर्ष विधि अधिकारी ने कहा कि विवाह के अलावा मानव संबंधों का एक पूरा समूह भी है जो समाज में मौजूद है और कुछ मामलों में विवाह से भी अधिक मूल्यवान हो सकता है।
उन्होंने कहा कि दुनिया के किसी भी देश में सांविधिक कानून, सभी मानवीय रिश्तों को विनियमित नहीं करता है और दुनिया भर में विधायिकाओं ने कई मानव संबंधों को पूरी तरह से विधायी दायरे से बाहर कर दिया है, जिससे वे कानूनी मान्यता से वंचित हैं।
मेहता ने कहा, ‘‘यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि सरकार सभी मानवीय रिश्तों को मान्यता देने के लिए बाध्य है, बल्कि इसके बजाय यह माना जाना चाहिए कि सरकार के पास किसी भी व्यक्तिगत संबंध को तब तक मान्यता देने का कोई अधिकार नहीं है, जब तक कि इसे विनियमित करने में इसका कोई कानूनी हित समाहित न हो।’’
मेहता ने याचिकाकर्ताओं की इन दलीलों को ‘निराधार’ करार दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) के तहत ‘शादी का मौलिक अधिकार’ मौजूद हैं।
उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के दो उल्लेखित निर्णय संसद के कानून द्वारा मंजूर विषमलैंगिक संबंध में जोड़े की ‘पसंद’ के सवाल पर थे।
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) या अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) के तहत सभी प्रकार के सामाजिक रिश्तों को मान्यता देने की मांग का मौलिक अधिकार नहीं हो सकता है।
सुनवाई के दौरान, केंद्र ने शीर्ष अदालत से कहा कि कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जाएगी, जो समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने के मुद्दे को छुए बिना ऐसे जोड़ों की कुछ ‘वास्तविक मानवीय चिंताओं’ को दूर करने के प्रशासनिक उपाय तलाशेगी।
केंद्र ने यह दलील न्यायालय द्वारा 27 अप्रैल को पूछे गये एक सवाल के जवाब में दी। न्यायालय ने केंद्र से पूछा था कि क्या समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता दिये बगैर ऐसे जोड़ों को बैंक में संयुक्त खाता खुलवाने, भविष्य निधि में जीवन साथी नामित करने, ग्रेच्युटी और पेंशन जैसी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिया जा सकता है।
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