विदेश की खबरें | पश्चिमी समाज में बढ़ती उम्र में बेमकसद जिंदगी से थकने लगे हैं लोग
श्रीलंका के प्रधानमंत्री दिनेश गुणवर्धने

बाथ (यूके), नौ मई (द कन्वरसेशन) मौली 88 वर्ष की थीं और उनका स्वास्थ्य अच्छा था। उनके दो पतियों, भाई-बहनों, अधिकांश दोस्तों और इकलौते बेटे का निधन हो चुका है।

उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘मेरे पास कोई सार्थक संबंध नहीं बचा है, वह सब गुजर चुके हैं। और क्या आपको पता है? उन सबके बिना मैं भी इस दुनिया को छोड़ना चाहती हूं।’’ फिर वह थोड़ा झुकी और मेरे करीब आई, मानो वह मुझे कोई राज़ की बात बता रही हो, उन्होंने कहा, ‘‘क्या मैं आपको बता दूँ कि मैं क्या हूँ? मैं मजबूत हूँ। मैं अपने आप को और आपको बताना चाहती हूं कि यहां मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा है। जब मेरा समय आएगा तो मैं जाने के लिए तैयार हूं। दरअसल, यह ज्यादा जल्दी नहीं आ सकता।’’

मैंने शोध के लिए कई उम्रदराज लोगों का साक्षात्कार लिया है। हर बार, मैं उस ईमानदारी से प्रभावित होता हूं जिसके साथ कुछ लोगों को लगता है कि उनका जीवन पूरा हो गया है। जैसे वह जीते जीते थके हुए लगते हैं।

मैं यूरोपियन अंडरस्टैंडिंग टायर्डनेस ऑफ लाइफ इन ओल्डर पीपल रिसर्च नेटवर्क का सदस्य हूं, जो जराचिकित्सकों, मनोचिकित्सकों, सामाजिक वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों और मृत्यु विद्वानों का एक समूह है। हम इस मन:स्थिति को बेहतर ढंग से समझना चाहते हैं और इसके बारे में जानना चाहते हैं कि इसमें क्या अनोखा है। नेटवर्क राजनेताओं और स्वास्थ्य देखभाल प्रथाओं के साथ-साथ देखभाल करने वाले और रोगी सहायता के लिए सलाह देने का भी काम कर रहा है।

नीदरलैंड में देखभाल नैतिकता के प्रोफेसर एल्स वैन विजनगार्डन और सहयोगियों ने वृद्ध लोगों के एक समूह की बात सुनी जो गंभीर रूप से बीमार नहीं थे, फिर भी अपने जीवन को समाप्त करने की तड़प महसूस कर रहे थे। ऐसे लोगों में उन्होंने जिन प्रमुख मुद्दों की पहचान की, वे थे: अकेलेपन का दर्द, कोई फर्क नहीं पड़ने से जुड़ा दर्द, आत्म-अभिव्यक्ति के साथ संघर्ष, अस्तित्वगत थकान और पूरी तरह से आश्रित अवस्था में सिमट जाने का डर।

ऐसा नहीं था कि यह जीवन भर की पीड़ा, या असहनीय शारीरिक दर्द झेलने वालों की मानसिकता थी। जीवन की थकान उन लोगों में भी उत्पन्न होने लगती है जो स्वयं को पूर्ण जीवन जीने वाला समझते हैं। 92 में से एक व्यक्ति ने नेटवर्क के शोधकर्ताओं से कहा:

आपके होने से किसी चीज पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। जहाज चलता है और सभी के पास नौकरी है, लेकिन आप बस साथ चलते हैं। मैं उनके लिए कार्गो हूं। यह आसान नहीं है। वो मै नहीं हूं। अपमान एक बहुत मजबूत शब्द है, लेकिन हम जैसा महसूस करते हैं वह इसके आसपास ही कहीं है। मैं उपेक्षित, पूरी तरह से हाशिए पर महसूस करता हूं।

एक और शख्स ने कहा:

सामने वाली बिल्डिंग में उन बूढ़ी औरतों की हालत देखिए। दुबला-पतला और अधमरा, बेमतलब व्हीलचेयर पर इधर-उधर भटकता हुआ शरीर... अब इनका इंसान होने से कोई लेना-देना नहीं है। यह जीवन का एक ऐसा पड़ाव है जिससे मैं बिल्कुल नहीं गुजरना चाहता।

एक अलग तरह की पीड़ा

अमेरिकी उपन्यासकार फिलिप रोथ ने लिखा है कि ‘‘वृद्धावस्था एक युद्ध नहीं है, बुढ़ापा एक नरसंहार है’’। यदि हम काफी लंबे समय तक जीवित रहते हैं, तो हम अपनी पहचान, शारीरिक क्षमताओं, साथी, दोस्तों और करियर को खो सकते हैं।

कुछ लोगों में, यह एक ऐसी भावना को उजागर करता है कि जीवन का अर्थ छीन लिया गया है - और यह कि हमें अपने जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए जो कुछ चाहिए, वह अब नामुमकिन है।

स्वीडन में केयर प्रोफेसर हेलेना लार्सन और उनके सहयोगियों ने बुढ़ापे में धीरे-धीरे ‘‘उजाले से दूर होते जाने’’ के बारे में लिखा है। उनका तर्क है कि लोग लगातार जीवन को छोड़ते चले जाते हैं, जब तक कि वे उस बिंदु तक नहीं पहुंच जाते जहां वे बाहरी दुनिया से नाता तोड़ने के लिए तैयार हों। लार्सन की टीम सवाल उठाती है कि क्या यह हम सभी के लिए अपरिहार्य हो सकता है।

बेशक, इस तरह की पीड़ा हमारे जीवन के अन्य बिंदुओं पर होने वाली पीड़ा के साथ विशेषताओं (यह निराशाजनक और दर्दनाक है) को साझा करती है। लेकिन यह वही नहीं है। अस्तित्वगत पीड़ा पर विचार करें जो एक लाइलाज बीमारी या हाल ही में हुए तलाक से उत्पन्न हो सकती है। इन उदाहरणों में, पीड़ा का एक हिस्सा इस तथ्य से जुड़ा है कि अभी जीवन की और यात्रा करनी है - लेकिन यह कि बाकी की यात्रा अनिश्चित महसूस होती है और अब वैसी नहीं दिखती जैसी हमने कल्पना की थी।

इस तरह की पीड़ा अक्सर उस भविष्य के लिए शोक से जुड़ी होती है जो हमें लगता है कि हमारे पास होना चाहिए था, या भविष्य से डरने के बारे में हम अनिश्चित हैं। जीवन की थकान का एक भेद यह है कि भविष्य की कोई इच्छा या शोक नहीं है; केवल एक गहरा एहसास है कि यात्रा समाप्त हो गई है, फिर भी यह दर्दनाक और अनिश्चित काल तक चलती है।

वैश्विक दृष्टिकोण

उन देशों में जहां इच्छामृत्यु और असिस्टेड सुसाइड कानूनी हैं, डॉक्टर और शोधकर्ता इस बात पर बहस कर रहे हैं कि क्या जीवन की थकान उस तरह की भावनात्मक पीड़ा के चरम तक ले जाती है, जो लोगों को इच्छामृत्यु का अधिकार देती है।

तथ्य यह है कि शोधकर्ताओं के लिए बहस करने के लिए यह समस्या काफी आम है, एक सुझाव यह हो सकता है कि आधुनिक जीवन ने वृद्ध लोगों को पश्चिमी समाज से बाहर कर दिया है। शायद बड़ी उम्र के लोगों की बुद्धि और अनुभव को अब उतना सम्मान नहीं दिया जाता है। लेकिन सब जगह ऐसा हो यह जरूरी भी नहीं है। जापान में, काम करने और बच्चों की परवरिश की व्यस्त अवधि के बाद उम्र को वसंत या पुनर्जन्म के रूप में देखा जाता है। एक अध्ययन में पाया गया कि जापान में वृद्ध वयस्कों ने मध्यम आयु के वयस्कों की तुलना में व्यक्तिगत विकास के मामले में बेहतर प्रदर्शन किया, जबकि अमेरिका में इसका विपरीत आयु पैटर्न पाया गया।

सर्जन और चिकित्सा प्रोफेसर अतुल गवांडे का तर्क है कि पश्चिमी समाजों में, बेहतर चिकित्सा सुविधाओं के चलते उम्र को लंबी और एक बोझिल प्रक्रिया में बदलने के लिए आदर्श स्थितियाँ बनाई हैं। उनका मानना ​​है कि जीवन की गुणवत्ता की अनदेखी की गई है क्योंकि हम अपने संसाधनों को जैविक अस्तित्व पर खर्च कर रहे हैं। यह इतिहास में अभूतपूर्व है।

जीवन की थकान इसी का परिणाम हो सकती है।

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