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देश की खबरें | मौसम की मार से ईंट भट्ठा मजदूरों की आजीविका प्रभावित

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एजेंसी न्यूज Bhasha|
देश की खबरें | मौसम की मार से ईंट भट्ठा मजदूरों की आजीविका प्रभावित

(उज़मी अतहर)

अलीगढ़/बुलंदशहर, छह जुलाई पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में ईंट भट्ठा मजदूर इस बार मौसम की मार से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

ननौ गांव की रामवती ने बताया कि उन्होंने और उनके पति ने दो दिनों में लगभग 1,600 ईंटें बनाई थीं, लेकिन अचानक हुई हल्की बारिश ने उनकी मेहनत को बर्बाद कर दिया।

उन्होंने कहा, "बस एक बार बारिश हुई और पूरा हफ्ते का काम खत्म!"

मार्च से जून तक का मौसम ईंट भट्ठों पर काम करने के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। इस दौरान तेज धूप में ईंटें अच्छी तरह सूखती हैं।

लेकिन पिछले कुछ सालों से बारिश और ओलावृष्टि ने इस मौसम को भी बिगाड़ दिया है।

बुलंदशहर के भट्ठा सुपरवाइजर रमेश सिंह के अनुसार, मई और जून में मुश्किल से 15-20 दिन ही तेज धूप निकली।

बिहार, छत्तीसगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए हजारों प्रवासी मजदूर इस उद्योग के मुख्य श्रमिक हैं।

बिहार के मधुबनी के रहने वाले भट्ठा मजदूर सरोज ने कहा, "हम तीन दिन से लगातार काम कर रहे थे, तभी बारिश आ गई। सारी मेहनत पानी में बह गई। अब भट्ठा मालिक से चावल उधार लेना पड़ रहा है। हम मजदूरी करके चुका देंगे, लेकिन इससे घर भेजने के लिए कम पैसा बचेगा।"

मजदूर अधिकार मंच के महासचिव रमेश श्रीवास्तव ने बताया, "जब बारिश हो जाती है, तो गीली ज़मीन पर काम नहीं किया जा सकता। मिट्टी को फिर से काम करने लायक बनने में कम से कम चार दिन लगते हैं। इसका असर करीब एक हफ्ते तक रहता है।"

मजदूरों को प्रति 1,000 ईंटों पर लगभग 676 रुपए मिलते हैं, लेकिन असलियत में कई बार उन्हें इससे भी कम भुगतान किया जाता है।

बंधुआ मजदूरी उन्मूलन समिति के संयोजक निर्मल गोरणा ने कहा, "अक्सर मजदूरों को 500 रुपए या उससे भी कम दिया जाता है। अगर बारिश से ईंटें खराब हो जाएं, तो मजदूरों को कोई भुगतान नहीं मिलता।"

रामवती ने बताया, "हमारे भट्ठे पर एक फुहार में 12,000 रुपये की ईंटें खराब हो गईं, लेकिन किसी मजदूर को मुआवजा नहीं मिला।"

परंपरागत तौर पर, मानसून के महीनों में जब काम कम हो जाता है, तो प्रवासी मजदूर अपने गांव लौट जाते हैं। फिर सर्दियों में काम शुरू होने पर वापस लौट आते हैं। उनकी जिंदगी इस आवागमन के अनुरूप ढल गई है। इसी के अनुसार वे गांव में अपनी खेतीबाड़ी की देखभाल करते हैं और बच्चों का स्कूलों में दाखिला करा पाते हैं।

लेकिन असमय हुई बारिश इस व्यवस्था को तोड़ रही है। कुछ मजदूर अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए गर्मी में ज़्यादा दिन ठहर जाते हैं, लेकिन अचानक होने वाली मानसून से पहले की बारिश उनकी मेहनत को बर्बाद कर देती है।

लेकिन अब असमय बारिश इस चक्र को बिगाड़ रही है। कुछ मजदूर गर्मी में ज्यादा दिन रुककर ज्यादा कमाने की कोशिश करते हैं, लेकिन अप्रत्याशित बारिश से नुकसान उठाना पड़ता है। वहीं कुछ लोग जल्दी लौट आते हैं, फिर सूखे मौसम में वा.latestly.com/author/bhasha/" class="auth_name_txt" title="Bhasha">Bhasha|

देश की खबरें | मौसम की मार से ईंट भट्ठा मजदूरों की आजीविका प्रभावित

(उज़मी अतहर)

अलीगढ़/बुलंदशहर, छह जुलाई पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में ईंट भट्ठा मजदूर इस बार मौसम की मार से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

ननौ गांव की रामवती ने बताया कि उन्होंने और उनके पति ने दो दिनों में लगभग 1,600 ईंटें बनाई थीं, लेकिन अचानक हुई हल्की बारिश ने उनकी मेहनत को बर्बाद कर दिया।

उन्होंने कहा, "बस एक बार बारिश हुई और पूरा हफ्ते का काम खत्म!"

मार्च से जून तक का मौसम ईंट भट्ठों पर काम करने के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। इस दौरान तेज धूप में ईंटें अच्छी तरह सूखती हैं।

लेकिन पिछले कुछ सालों से बारिश और ओलावृष्टि ने इस मौसम को भी बिगाड़ दिया है।

बुलंदशहर के भट्ठा सुपरवाइजर रमेश सिंह के अनुसार, मई और जून में मुश्किल से 15-20 दिन ही तेज धूप निकली।

बिहार, छत्तीसगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए हजारों प्रवासी मजदूर इस उद्योग के मुख्य श्रमिक हैं।

बिहार के मधुबनी के रहने वाले भट्ठा मजदूर सरोज ने कहा, "हम तीन दिन से लगातार काम कर रहे थे, तभी बारिश आ गई। सारी मेहनत पानी में बह गई। अब भट्ठा मालिक से चावल उधार लेना पड़ रहा है। हम मजदूरी करके चुका देंगे, लेकिन इससे घर भेजने के लिए कम पैसा बचेगा।"

मजदूर अधिकार मंच के महासचिव रमेश श्रीवास्तव ने बताया, "जब बारिश हो जाती है, तो गीली ज़मीन पर काम नहीं किया जा सकता। मिट्टी को फिर से काम करने लायक बनने में कम से कम चार दिन लगते हैं। इसका असर करीब एक हफ्ते तक रहता है।"

मजदूरों को प्रति 1,000 ईंटों पर लगभग 676 रुपए मिलते हैं, लेकिन असलियत में कई बार उन्हें इससे भी कम भुगतान किया जाता है।

बंधुआ मजदूरी उन्मूलन समिति के संयोजक निर्मल गोरणा ने कहा, "अक्सर मजदूरों को 500 रुपए या उससे भी कम दिया जाता है। अगर बारिश से ईंटें खराब हो जाएं, तो मजदूरों को कोई भुगतान नहीं मिलता।"

रामवती ने बताया, "हमारे भट्ठे पर एक फुहार में 12,000 रुपये की ईंटें खराब हो गईं, लेकिन किसी मजदूर को मुआवजा नहीं मिला।"

परंपरागत तौर पर, मानसून के महीनों में जब काम कम हो जाता है, तो प्रवासी मजदूर अपने गांव लौट जाते हैं। फिर सर्दियों में काम शुरू होने पर वापस लौट आते हैं। उनकी जिंदगी इस आवागमन के अनुरूप ढल गई है। इसी के अनुसार वे गांव में अपनी खेतीबाड़ी की देखभाल करते हैं और बच्चों का स्कूलों में दाखिला करा पाते हैं।

लेकिन असमय हुई बारिश इस व्यवस्था को तोड़ रही है। कुछ मजदूर अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए गर्मी में ज़्यादा दिन ठहर जाते हैं, लेकिन अचानक होने वाली मानसून से पहले की बारिश उनकी मेहनत को बर्बाद कर देती है।

लेकिन अब असमय बारिश इस चक्र को बिगाड़ रही है। कुछ मजदूर गर्मी में ज्यादा दिन रुककर ज्यादा कमाने की कोशिश करते हैं, लेकिन अप्रत्याशित बारिश से नुकसान उठाना पड़ता है। वहीं कुछ लोग जल्दी लौट आते हैं, फिर सूखे मौसम में वापस बुला लिए जाते हैं।

भट्ठा मालिक भी इस मौसम से परेशान हैं। वे कहते हैं कि उत्पादन में देरी, ईंधन की बढ़ती कीमतें और ग्राहकों के जुर्माने की वजह से वे मजदूरों को खराब ईंटों के लिए मुआवजा नहीं दे पाते।

बुलंदशहर के राजवीर सिंह कहते हैं, "यह बाहरी काम है, हम बारिश नहीं रोक सकते, बारिश में हमारा भी नुकसान होता है।"

(यह सिंडिकेटेड न्यूज़ फीड से अनएडिटेड और ऑटो-जेनरेटेड स्टोरी है, ऐसी संभावना है कि लेटेस्टली स्टाफ द्वारा इसमें कोई बदलाव या एडिट नहीं किया गया है)

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