नयी दिल्ली, 7 दिसंबर: दिल्ली उच्च न्यायालय ने अगवा की गई तीन साल की बच्ची को खरीदने के मामले में संबंधित पक्षों के बीच समझौते के बावजूद एक दंपति के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने से इनकार कर दिया. अदालत ने कहा कि वह बच्ची को खरीद-फरोख्त की वस्तु नहीं बनने दे सकती. न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने बच्ची का अपहरण करने वाली महिला के खिलाफ मामला रद्द करने से इनकार करते हुए कहा कि बच्चों का अपहरण और तस्करी गंभीर अपराध है और आरोपियों को राहत देने से यह संदेश जाएगा कि निजी समझौते के जरिये बच्चों के खिलाफ अपराधों की गंभीरता को कम किया जा सकता है.
न्यायाधीश ने एक हालिया आदेश में कहा, ‘‘यह विचार कि किसी बच्ची की खरीद-फरोख्त की जा सकती है, उसके संरक्षण को लेकर समझौता हो सकता है। जैसे कि यह संपत्ति का एक टुकड़ा हो. यह कानून के शासन के सिद्धांतों को चुनौती देता है.’’ आदेश में कहा गया, ‘‘यह अदालत समझौते पर पहुंचने के अभिभावक के फैसले का संज्ञान लेती है लेकिन वह उस प्रथा को नजरअंदाज नहीं कर सकती जो एक नाबालिग लड़की को व्यापार की वस्तु मानती है.’’
अदालत ने कहा, ‘‘निर्दोष नाबालिग बच्चों का अपहरण करने के मामलों में समझौता करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है और ऐसे समझौतों के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द नहीं किया जा सकता है। एक ऐसी मिसाल स्थापित करना महत्वपूर्ण है जो बच्चों के अपहरण और तस्करी के कृत्य की स्पष्ट रूप से निंदा करे, यह सुनिश्चित करे कि समाज में कानून का राज कायम रहे.’’
बच्ची और उसके दो साल के भाई का उनके पड़ोसी ने 2017 में अपहरण कर लिया था और आरोपी दंपति को 20,000 रुपये में बेच दिया था. हालांकि, बाद में लड़के को उसके घर छोड़ दिया गया क्योंकि वह लगातार रोते रहता था. दंपति ने इस आधार पर प्राथमिकी को रद्द करने का अनुरोध किया कि उन्हें इस तथ्य की जानकारी नहीं थी कि बच्ची का अपहरण किया गया था और दावा किया कि बच्ची अब उनसे प्यार करती है। तीन साल बाद बच्ची बरामद की गई.
बच्ची के अभिभावक ने कहा कि अगर दंपति उसके भरण पोषण के लिए उसे गोद लेता है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. सभी दलीलों को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि यह मामला ‘‘बच्चों को व्यापार की वस्तु मानने’’ के महत्वपूर्ण प्रश्न को सामने लाता है. न्यायाधीश ने कहा कि वर्तमान मामले में ‘‘कानून की कठोरता और भावनात्मक लगाव के बीच’’ एक दुविधा थी, लेकिन कानून उन लोगों का पक्ष नहीं ले सकता जो ‘‘कानून के विपरीत पक्ष’’ में हैं और ‘‘अदालत को उन लोगों के साथ खड़ा होना होगा जो अपने लिए नहीं लड़ सकते.’’
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