जर्मनी में श्रम प्रवासन नियमों में ढील को लेकर श्रमिक संघ क्यों चिंतित हैं?

जर्मनी पश्चिमी बाल्कन देशों के लोगों को ज्यादा वर्क वीजा देने की योजना बना रहा है.

प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

जर्मनी पश्चिमी बाल्कन देशों के लोगों को ज्यादा वर्क वीजा देने की योजना बना रहा है. लेकिन श्रमिक संघों को इस बात की चिंता है कि इससे मजदूरी कम हो सकती है और अकुशल श्रमिकों की स्थिति खराब हो सकती है.जर्मनी इस समय मजदूरों की समस्या से बुरी तरह जूझ रहा है. इंस्टीट्यूट फॉर एम्प्लॉयमेंट रिसर्च के मुताबिक, देश में इस समय करीब बीस लाख नौकरियां खाली हैं. अब, जर्मनी इस कमी को पूरा करने के लिए लेबर माइग्रेशन कानून को लचीला बनाने जा रहा है. इसके तहत ‘वेस्टर्न बाल्कन्स रेग्युलेशन' नाम के प्रावधान में दो बदलाव भी शामिल हैं. 2023 में के अंत में खत्म हो रहे इस कानून को न सिर्फ अनिश्चितकाल के लिए बढ़ाया जाएगा बल्कि कोटा को भी दोगुना कर दिया जाएगा ताकि हर साल 50 हजार लोगों को नौकरियां दी जा सकें.

किसी योग्यता की जरूरत नहीं

साल 2015 में बड़े रिफ्यूजी संकट के दौरान जब बाल्कन देशों से होते हुए सीरिया, अफगानिस्तान और इराक से दस लाख से भी ज्यादा शरणार्थी जर्मनी पहुंचे, तो इनके साथ छह बाल्कन देशों से भी बड़ी संख्या में लोग जर्मनी आ गए. इन बाल्कन देशों में अल्बानिया, बोस्निया-हर्जेगोविना, कोसोवो, मोंटिनेग्रो, नॉर्दर्न मेसीडोनिया और सर्बिया शामिल थे. उस वक्त जर्मनी में शरणार्थी आवेदन के तीस फीसद आवेदन इन्हीं लोगों के थे. हालांकि इनमें से करीब पांच फीसद आवेदन ही स्वीकृत हो पाए.

इतनी बड़ी संख्या में आए लोगों को वापस उनके देश भेजना भी बहुत खर्चीला था, इसलिए इस खर्च से बचने के लिए चांसलर अंगेला मैर्केल की सरकार ने इन लोगों के देशों की सरकारों के साथ एक समझौता किया ताकि उन लोगों पर कार्रवाई कर सके जो अपने देशों से निर्वासित किए गए हैं और उन लोगों की समीक्षा की जा सके जो अपने देश लौटने के इच्छुक हैं.

इसके अलावा, 2016 में वेस्टर्न बाल्कन्स रेग्युलेशन पेश किया गया जिसके जरिए जर्मनी में नौकरी की तलाश वालों के लिए नौकरशाही की बाधाओं के बिना काम का प्रावधान किया गया था. ब्लू कार्ड स्कीम के तहत आने वाले कुशल श्रमिकों के विपरीत इस समूह में आने वाले श्रमिकों के लिए किसी योग्यता की जरूरत नहीं थी. इन लोगों के लिए दो नियम हैं- उनके देश में स्थित जर्मन सरकार के प्रतिनिधि के यहां वर्क परमिट जमा कराना पड़ता है और नौकरी चाहने वाला पहले से ही शरण पाने के लिए आवेदन नहीं कर सकता.

जीत की स्थिति?

इस रेग्युलेशन के जरिए सबको संतुष्ट करने की कोशिश की गई, एक तरफ जर्मन लेबर मार्केट में अकुशल और अर्ध कुशल श्रमिकों के प्रवासन को रेग्युलेट किया गया, दूसरी ओर जिन देशों के ये लोग थे उन्हें वहां के अतिरिक्त श्रमिकों को जर्मनी में खपाकर उन्हें राहत दी गई. उदाहरण के लिए, कोसोवो में बेरोजगारी दर 21 फीसद के नीचे है लेकिन जब युवाओं के बीच बेरोजगारी की बात होती है तो यह करीब 55 फीसद हो जाती है. बोस्निया-हर्जेगोविना या फिर नॉर्दर्न मेसीडोनिया में युवा बेरोजगारी दर करीब 35 फीसद है.

इन संख्याओं को देखकर इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जर्मनी की फेडरल एम्प्लॉयमेंट एजेंसी ने 2020 के अंत तक वेस्टर्न बाल्कन देशों के लिए करीब 2 लाख 60 हजार बेसिट परमिट और 98 हजार वर्क वीजा जारी किए थे.

‘वेज डंपिंग' का डर

नियोजित बदलावों का मकसद इन आंकड़ों को और बढ़ाना है. यह एक ऐसा कदम है जिसका नियोक्ताओं यानी नौकरी देने वालों ने स्वागत किया है और जर्मन सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि प्रवासन कानूनों को उदार बनाया जाए ताकि नौकरियों को भरा जा सके. लेकिन जर्मन ट्रेड यूनियन कॉन्फेडरेशन यानी डीजीबी इस बारे में काफी सतर्क है. डीजीबी की एक्जीक्यूटिव बोर्ड में लेबर मार्केट पॉलिसी से जुड़ी एवलिन रेडर कहती हैं कि लेबर माइग्रेशन का हम स्वागत करते हैं लेकिन बाल्कन देशों से यहां आने वाले श्रमिकों की मूलभूत जरूरतों पर भी ध्यान देना चाहिए.

रेडर कहती हैं, "यहां जो लोग आते हैं वो अपने नियोक्ताओं पर बहुत ज्यादा निर्भर होते हैं. उनके पास यहां रहने का जो परमिट होता है, वो उनकी नौकरी से ही जुड़ा होता है. उन्हें हमेशा इस बात का डर रहता है कि यदि हम उनके हिसाब से नहीं चलेंगे तो उन्हें वापस भेज दिया जाएगा.”

इसके अलावा, अक्सर ऐसे लोग जर्मन भाषा में नहीं बोलते हैं और न ही उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी होती है. ऐसी स्थिति में वो खराब परिस्थितियों में काम करने जैसी शर्तों को भी स्वीकार कर लेते हैं. इन्हीं सबके कारण आगे चलकर ‘वेज डंपिंग' की स्थिति आ जाती है. वेज डंपिंग एक जर्मन शब्दावली है जिसका मतलब होता है कि सस्ते लेबर मिलने के कारण मजदूरी मार्केट रेट से कम कर दी जाए.

कुशल श्रमिकों की बजाय मजदूर

पश्चिमी बाल्कन इलाके से आने वाले करीब तीन चौथाई मजदूरों को कंस्ट्र्क्शन, केटरिंग और घरेलू नौकर जैसे क्षेत्रों में रोजगार मिलता है. इनमें से भी करीब 44 फीसद अकेले कंस्ट्र्क्शन क्षेत्र में ही नौकरी पाते हैं. इनमें से ज्यादातर नौकरियां अस्थाई होती हैं और मजदूरी भी बहुत कम मिलती है.

हालांकि जर्मनी की फेडरल सरकार विदेशी श्रमिकों के लिए लेबर कानून में सुधार को यह कहते हुए न्यायसंगत ठहराती है कि वो चाहती है कि इसके जरिए वह कुशल श्रमिकों की कमी की भरपाई करना चाहती है, लेकिन वेस्टर्न बाल्कन्स रेग्युलेशन इस दावे से अलग है क्योंकि वर्क परमिट पाने के लिए किसी योग्यता की जरूरत नहीं होती है.

डीजीबी के आकलन के मुताबिक, इसका उद्देश्य कुशल श्रमिकों को नियुक्त करना बिल्कुल नहीं है, बल्कि मजदूरों को आकर्षित करना है. रेडर कहती हैं, "यह विशुद्ध रूप से नियक्ताओं के हित में लेबर खरीद प्रोग्राम है, जो इस तरीके से आसानी से लेबर पा जाते हैं, लेकिन जरूरत पड़ने पर आसानी से उनसे छुटकारा भी पा सकते हैं.”

विकट परिस्थितियां

यह स्थिति विशेष तौर पर निर्माण यानी कंस्ट्र्क्शन उद्योग में साफ देखी जा सकती है. पिछले साल, मुख्य कंस्ट्र्क्शन इंडस्ट्री एसोसिएशन ने दशकों पुराने कलेक्टिव एग्रीमेंट के एक्सटेंशन को खत्म कर दिया. अब मजदूरों को कानूनी रूप से गारंटीड पगार के तौर पर 12 यूरो प्रति घंटा की दर से भुगतान किया जा सकता है जो कि पहले कंस्ट्र्क्शन साइट्स पर औसतन मजदूरी 13 यूरो से लेकर 16 यूरो तक होती थी.

अब नियोक्ता ज्यादा मजदूरी मांगने वालों पर यह कहते हुए दबाव बनाते हैं कि यहां हमेशा से लेबर सस्ता रहा है और वो भी बिना किसी मुकदमेबाजी के डर के. पश्चिमी बाल्कन इलाके के मजदूर बेहद कमजोर तबके के होते हैं. उन्हें अपने अधिकारों के बारे में नहीं पता होता, और ज्यादातर तो इन खराब स्थितियों में भी काम करने को इसलिए भी तैयार हो जाते हैं क्योंकि उनके अपने देश की तुलना में यह तब भी अच्छा होता है. कुल मिलाकर इस मामले में व्यावहारिक रूप से सरकार का कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं है.

कर्मचारी सुरक्षा और सामूहिक सौदेबाजी खतरे में

रेडर कहती हैं, "हमें डर है कि इससे कंस्ट्र्क्शन उद्योग में लगे मजदूरों की कामकाजी स्थितियों पर दबाव बनेगा. अच्छे एग्रीमेंट मिलना बहुत कठिन हो जाएगा और बिना उसके आसानी से सस्ती मजदूरी पर काम लिया जा सकेगा.”

डीजीबी का सुझाव है कि इसका समाधान वेस्टर्न बाल्कन्स रेग्युलेशन में और बदलाव करने में है. सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह हो सकता है कि इन कर्मचारियों के पास वर्क परमिट के लिए दोबारा आवेदन किए बिना अपने नियोक्ता को बदलने का अधिकार हो जैसा कि अन्य विदेशी श्रमिकों के मामलों में होता है.

मौजूदा रेक्युलेशन के तहत वर्क वीजा के लिए आवेदन नियोक्ता के मूल देश में ही बनता है और यह वीजा एक खास नौकरी के लिए ही जारी होता है. नौकरी बदलना तो संभव है लेकिन इसके लिए उसे फेडरल एम्प्लॉयमेंट एजेंसी में दोबारा आवेदन देना होता है. यह बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और बहुत से मजदूर तो इसके बारे में जानते भी नहीं हैं कि यह भी एक विकल्प है.

श्रमिक संघों की मांग है कि वेस्टर्न बाल्कन्स रेग्युलेशन के तहत नौकरियां वहीं संभव हों जहां सामूहिक एग्रीमेंट की व्यवस्था हो. इससे कर्मचारी और श्रमिक संघों की सामूहिक सौदेबाजी की स्वायत्तता सुरक्षित रहेगी. जर्मनी में काम की तलाश कर रहे वेस्टर्न बाल्कन देशों के लिए डीजीबी का सीधा संदेश है, "खुद को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करें और जरूरत हो तो हमसे मदद मांगें.”

रेडर कहती हैं, "आपको वह सब कुछ स्वीकार करने की जरूरत नहीं है जो आपको दी जाती है. यहां वास्तव में मजदूरों के पास भी अपने अधिकार हैं.”

रिपोर्ट: जोरान अर्बुटीना

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