पाकिस्तान तालिबान पनाहगाहों को बंद करे, तभी अफगानिस्तान में शांति संभव
प्रतीकात्मक तस्वीर (फाइल फोटो)

इस्लामाबाद, 12 जून: ऑस्ट्रेलिया के प्रभावशाली थिंक टैंक में से एक ने कहा है जब तक पाकिस्तान तालिबान के लिए अपने पनाहगाहों को बंद नहीं कर देता है, तब तक अमेरिका और तालिबान के बीच हुए शांति समझौते के टिकाऊ होने की संभावना कम रहेगी. ऑस्ट्रेलिया के लोवी संस्थान ने एक नए लेख में कहा है कि बीते अफगान राजनीतिक समझौतों 1989 रावलपिंडी शूरा, 1992 पेशावर समझौते और 1993 में इस्लामाबाद समझौते ने दिखाया है कि अफगान मुजाहिदीन तंजीमों (सैन्य-राजनीतिक संगठन) एक समझौते तक पहुंच तो जाते हैं, लेकिन फिर भी समझौते के लिए प्रतिबद्ध नहीं रह पाते क्योंकि वे संघर्ष के वास्तविक स्रोत, जैसे कि बाहरी सैन्य और वित्तीय सहायता या बाहरी पनाहगाहों की समस्या की अनदेखी करते हैं.

इस पेपर को एशिया-पैसिफिक कॉलेज ऑफ डिप्लोमेसी के शोधार्थी फर्खोनदेह अकबरी और इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप के पूर्व नीति विश्लेषक डॉ. तिमोर शरण द्वारा लिखा गया है. दोनों विद्वानों ने कई अकादमिक और नीतिगत अध्ययनों पर अपने तर्क को आधारित किया है जो बताते हैं कि पनाहगाहों को उपलब्ध कराने जैसे बाहरी समर्थन बगावत के परिणामों पर निर्णायक प्रभाव डालते हैं. लेख में कहा गया है, "बाहरी रूप से समर्थित विद्रोह लंबे समय तक चलते हैं और इसमें शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद भी हिंसा जारी रहती है."

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पेपर लिखने वाले दोनों लोगों ने कहा है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान की दिलचस्पी, अफगानिस्तान में रणनीतिक पहुंच हासिल करने और भारत द्वारा रणनीतिक घेराव से बचने के दो व्यापक उद्देश्यों से प्रेरित है. पहले लक्ष्य को हासिल करने के लिए पाकिस्तान ने काबुल में अपेक्षाकृत मित्रतापूर्ण और पाकिस्तान समर्थक सरकार सुनिश्चित करने के प्रयास में तालिबान और बड़ी पश्तून आबादी का उपयोग किया है.

पेपर में कहा गया है, "दूसरे लक्ष्य को साधने के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान में और मध्य एशिया में भारत की बढ़ती कूटनीतिक और वाणिज्यिक उपस्थिति के डर से भारत का प्रभाव इस क्षेत्र में कम करने के लिए अनवरत संघर्ष में लगा हुआ है." इसमें लिखा गया है, "जब तक पाकिस्तान, तालिबान के लिए पनाहगाहों को बंद करने के लिए ठोस रूप से प्रतिबद्ध नहीं हो जाता, तब तक यह संगठन युद्ध में बने रहने के विकल्प को बनाए रखेगा."