नूर इनायत खान, वो जासूस जो मर गई लेकिन राज नहीं खोला

नूर इनायत खान का नाम आपने सुना है? शायद सुना होगा.

प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

नूर इनायत खान का नाम आपने सुना है? शायद सुना होगा. भारतीय सूफी परिवार से आने वाली ये राजकुमारी नाजियों के खिलाफ संघर्ष का बड़ा नाम है.जर्मनी द्वितीय विश्व में अपनी हार की वर्षगांठ मना रहा है, लेकिन उसके लिए ये नाजियों पर मानवता की जीत की वर्षगांठ है. खुद उसके लिए नाजियों से छुटकारा पाना मुश्किल था. दुनिया ने शायद नाजियों की मंशा को समझने में बहुत देर लगाई और जब तक वे हिटलर और नाजियों के खिलाफ कुछ करते, तब तक लाखों दिमाग भरे जा चुके थे और लाखों लोगों की अत्यंत बुरी हालत में हत्या की जा चुकी थी.

नाजियों का विरोध का मतलब था जान माल सब कुछ को जोखिम में डालना. विरोध करने वालों का सफर जेल और यातना शिविर से होकर यातना और मौत पर खत्म होता था. इसी बदहाली को खत्म करने और नाजियों को रोकने के लिए नूर इनायत खान ने जर्मनी के खिलाफ़ लड़ाई में ब्रिटेन की ओर से मदद देने का फैसला किया. और नाजियों को हराने के लिए ब्रिटिश सेना की मदद करने वाली इस जासूस का अंत द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने से पहले ही दाखाउ के यातना शिविर में हुआ.

युद्ध विरोधी जिंदगी में आया मोड़

बच्चों के लिए किताब लिखने वाली ये सीधी सादी लड़की अपने जीवट और बहादुरी के लिए ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी में जानी जाती है. नूर को ब्रिटेन ने सर्वोच्च सम्मान जॉर्ज क्रॉस से सम्मानित किया तो फ्रांस ने सैनिक सम्मान क्रो दे गेर से. फ्रांस में जोन दे आर्क को आदर्श मानने वाली नूर को नाजियों के खिलाफ प्रतिरोध में अभूतपूर्व बहादुरी दिखाने के लिए आज भी याद किया जाता है. फ्रांस ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस साल राष्ट्रीय दिवस के मौके पर मिलिट्री परेड के लिए बुलाया है.

प्रधानमंत्री के अलावा मिलिट्री परेड में भारतीय सेना की एक टुकड़ी भी हिस्सा लेगी. वही भारतीय सेना, जिसका अपना इतिहास ब्रिटेन की सेना के इतिहास के साथ घुला मिला है. पेरिस में भारतीय सैनिक टुकड़ी का सामना नूर की यादों से होगा. नूर की जब दाखाउ के यातना शिविर में नाजियों ने जान ली तो उनके मुंह से निकला अंतिम शब्द था लिबर्ते यानी आजादी. फ्रांस की क्रांति का ध्येय वाक्य आजादी, बराबरी और भाईचारा है जो भारत के संविधान की प्रस्तावना का प्रमुख हिस्सा है.

पत्रकार श्रावणी बसु ने अपनी किताब 'स्पाई प्रिंसेस' में नूर इनायत खान की जिंदगी को पाठकों तक पहुंचाया है. ये किताब इधर उधर बिखरे मोतियों को एक धागे में पिरो कर अपने देश की धरती से बाहर रहने वाली राजकुमारी की वह कहानी कहती है जिसमें नूर की एक सीधी सादी लड़की से साहसी जासूस बनने की कहानी है.

कौन थी नूर इनायत खान

मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के खानदान की नूर 1914 में मॉस्को में इनायत खान और अमेरिकी मां के घर पैदा हुई थी. पिता यूरोप में संगीतज्ञ और सूफी उपदेशक के तौर पर रहते थे. पहला विश्व युद्ध शुरू होने के पहले ही इनायत खान का परिवार ब्रिटेन आ गया. 1920 में जब नूर छह साल की थी तो इनायत खान का परिवार फ्रांस चला गया और पेरिस के निकट सुरेन में रहने लगा.

बचपन में नूर शांत, शर्मीली और संवेदनशील स्वाभाव की थी. 1927 में पिता की मौत के बाद 13 साल की उम्र में ही मां और तीन छोटे भाई बहनों की देखभाल करने लगी. बाद में सोबॉर्न यूनिवर्सिटी से चाइल्ड साइकोलॉजी की पढ़ाई की और साथ ही पेरिस कंसर्वेटरी में संगीत की पढ़ाई भी की. युवा नूर लेखक बनना चाहती थीं और अंग्रेजी तथा फ्रेंच में बच्चों की कहानियां और कविताएं लिखने लगीं. 1939 में बौद्ध जातक कथाओं से प्रेरित उनकी किताब 20 जातक टेल्स लंदन से छपी.

लेकिन 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया और 25 साल की इस संवेदनशील लेखिका के जीवन में बड़ा मोड़ आया. जब नाजी जर्मनी ने फ्रांस पर हमला किया तो खान परिवार पहले भागकर बोर्दो चला गया और फिर वहां से 1940 में ब्रिटेन. नूर और उनके भाई विलायत ने नाजियों के अत्याचार के खिलाफ लड़ाई में योगदान देने का फैसला किया और नूर ब्रिटिश एयरफोर्स के महिला दस्ते में शामिल हो गईं और वायरलेस ऑपरेटर की ट्रेनिंग ली.

फ्रांस में अंग्रेजों के लिए जासूसी

अपने फ्रेंच ज्ञान के कारण बाद में नूर को स्पेशल ऑपरेशंस एक्जेक्यूटिव के फ्रांस सेक्सन में भर्ती कर लिया गया और जासूसी की ट्रेनिंग दी गई. वायरलेस ऑपरेटर की ट्रेनिंग के कारण फील्ड से खबर भेजने के लिए उन्हें उपयुक्त समझा गया. शत्रु क्षेत्र में जासूसी करने के लिए भेजे जाने का फैसला बड़ा जोखिम भरा था और इस मिशन पर भेजा गया कोई भी एजेंट अपनी जान की हिफाजत नहीं कर पाया.

लेकिन नूर काफी समय तक अपनी पहचान छुपाने में कामयाब रहीं और नाजी सेनाओं के बारे में फ्रांस से खबर भेजती रहीं. लेकिन आखिरकार नाजी पुलिस गेस्टापो ने उन्हें पकड़ लिया. नूर ने नाजियों के कैद से दो बार भागने की असफल कोशिश की, जिसके बाद उन्हें जर्मनी के फोर्त्सहाइम और उसके बाद दाखाउ के यातना शिविर में भेज दिया गया.

कंसेंट्रेशन कैंप में पहुंचने के बाद के घंटे सख्त पूछताछ और यातना के घंटे थे. कुछ ही घंटों बाद नूर के सर में पीछे से गोली मार दी गई. मरने से पहले उनके आखिरी शब्द थे लिबर्ते. यातनाओं के बावजूद नूर ने कोई राज नहीं खोला और नाजियों को उनका असल नाम भी पता नहीं चला.

जर्मनी की प्रमुख रेडियो नाटक लेखिका माया दास गुप्ता ने नूर इनायत खान की जिंदगी के आखिरी सालों पर लिबैर्ते नाम से एक रेडियो नाटक लिखा है जिसे इस साल फरवरी में जर्मन परफॉर्मिंग आर्ट अकादमी ने महीने के सबसे अच्छे रेडियो नाटक से सम्मानित किया. युद्ध विरोधी सूफी परंपरा में पली बढ़ी भारतीय मूल की एक ऐसी लड़की की कहानी जो बाल साहित्य की लेखिका बनने की राह पर थी, लेकिन जिसका अंत आजादी की रक्षा के लिए तत्पर एक सैनिक के रूप में हुआ.

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