
जर्मनी के प्रतिष्ठित शोध संस्थान माक्स प्लांक सोसायटी से अब तक 31 नोबेल पुरस्कार विजेता आए हैं. लेकिन निगरानी में कमी के कारण यहां के कई अंतरराष्ट्रीय रिसर्चरों को दुर्व्यवहार और संस्थान के निदेशकों की मनमानी झेलनी पड़ी.उस निदेशक के साथ शायद ही ऐसी कोई मुलाकात हुई होगी जिसने असहज महसूस ना कराया हो.
ब्राजील के विशेषज्ञ और माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के पुराने रिसर्चर गाब्रिएल लांडो बताते हैं, "वह (निदेशक) मेज पर जोर-जोर से हाथ मारते हुए, मुझ पर इस हद तक चिल्ला रहे थे कि मैं उनके मुंह से निकलती थूक भी देख सकता था."
संस्थान के "फिनाइट सिस्टम्स" विभाग के निदेशक, जान-माइकल रोस्ट कई महीनों तक लांडो को अपमानित करते रहे. लांडो ने बताया रोस्ट ने उन्हें "ऑटिस्टिक" और "फालतू इंसान" कहा. उन्होंने बताया कि मीटिंग्स के दौरान रोस्ट लगातार मेज पर जोर-जोर से हाथ पटकते थे और उन पर चिल्लाते थे.
लांडो ने बताया, "मुझे लगता है कि ये मेरी जिंदगी के सबसे बुरे पल थे. इससे उबरने में मुझे एक साल से ज्यादा का समय लग गया." लांडो अकेले नहीं हैं, उनके जैसे कई अन्य शोधकर्ताओं ने भी इसी तरह के अनुभव साझा किए.
बड़े पैमाने पर की गई जांच-पड़ताल
महीनों तक डीडब्ल्यू की इनवेस्टिगेटिव टीम और जर्मन पत्रिका डेय श्पीगल ने जर्मनी के माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट में दुर्व्यवहार और टॉक्सिक माहौल से जुड़े मामलों की जांच की. इसमें 30 से अधिक वैज्ञानिकों से बात की गई, जिनमें से ज्यादातर विश्वस्तरीय शोध के वादों पर भरोसा करके एशिया, अमेरिका और यूरोप के अन्य हिस्सों से जर्मनी आए थे.
इनमें से आधे से ज्यादा वैज्ञानिकों ने बताया कि उन्होंने खुद दुर्व्यवहार झेला है या फिर होते हुए देखा है. यह दुर्व्यवहार अधिकतर वरिष्ठ वैज्ञानिकों, खासकर संस्थान के निदेशकों और समूह प्रमुखों ने किया. महिलाओं और अन्य देशों से आए लोगों के साथ सबसे ज्यादा बुरा व्यवहार किया गया.
डीडब्ल्यू और डेय श्पीगल ने माक्स प्लांक सोसायटी में दर्ज की गई शिकायतों, पीड़ितों और अधिकारियों के बीच हुई बातचीत और गोपनीय दस्तावेजों की भी जांच की, जो इन घटनाओं की पुष्टि करते हैं.
इस जांच से साफ होता है कि इस संस्थान में दुर्व्यवहार से निपटने के लिए कोई मजबूत प्रणाली नहीं है और यह कमी ही इस तरह के व्यवहार को बढ़ावा देती है.
बुलिंग और लिंगभेद आम बात
माक्स प्लांक सोसायटी अपने संस्थानों को प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के आधार पर विकसित करती है. इन वैज्ञानिकों को अपनी रिसर्च और प्रयोगशालाओं को अपनी पसंद के अनुसार चलाने की पूरी आजादी होती है, जिससे वह अपने हिसाब से शोधकर्ताओं को चुनते हैं और वैज्ञानिक खोज को बढ़ावा देते हैं.
यह मॉडल 1911 में एडोल्फ वॉन हार्नाक नामक वैज्ञानिक की क्रांतिकारी सोच के आधार पर बनाया गया था. हार्नाक का मानना था कि शोध कार्य सबसे बेहतर तरीके से तभी आगे बढ़ सकता है जब एक ही वैज्ञानिक के नेतृत्व में पूरी संस्था काम करे. जिससे वह बिना किसी रोक-टोक के अपनी रिसर्च पूरी कर सकेंगे.
यह मॉडल काफी सफल रहा. माक्स प्लांक सोसायटी के वैज्ञानिकों को अब तक 31 नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं. यह मॉडल रिसर्च में तो कामयाब रहा लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें निदेशकों को कुछ ज्यादा ही शक्ति मिल जाती है और उन पर कोई सख्त निगरानी नहीं होती. यही कारण है कि जूनियर रिसर्चरों, जैसे पीएचडी छात्रों और पोस्टडॉक्टोरल रिसर्चरों को पूरी तरह से अपने निदेशकों पर निर्भर रहना पड़ता है. और यह कई बार उनके साथ दुर्व्यवहार और अन्याय का कारण बन जाता है.
2019 में आई सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, हर पांच में से एक इंसान ने संस्थान में बुलिंग का सामना किया है. इसमें यह भी पाया गया कि गैर-जर्मन कर्मचारियों को बुलिंग और लिंगभेद वाली टिप्पणियां का अधिक सामना करना पड़ा.
'जर्मनी में रिसर्च के कई मौके'
सर्वे के बाद, माक्स प्लांक सोसायटी ने अपने संस्थानों में बेहतर माहौल बनाने और जवाबदेही बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए. जिसमें 'कोड ऑफ कॉन्डक्ट' यानी आचार संहिता जारी करना भी शामिल है. इसके बावजूद, दुर्व्यवहार के मामले थमे नहीं, खासकर महिलाओं और गैर-श्वेत लोगों के साथ.
ऑब्री, जो अपनी पीएचडी करने जर्मनी आई थीं, उन्होंने बताया कि उनके शोध समूह में लिंगभेद आम था. अन्य वैज्ञानिकों की तरह उन्होंने भी अपना असली नाम छिपाने का अनुरोध किया क्योंकि उन्हें डर है कि इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. उन्होंने बताया, "मुझे मेरे ही प्रोजेक्ट पर होने वाली चर्चाओं से बाहर रखा जाता था."
उन्हें डर था कि उन्हें उनके काम का श्रेय नहीं मिलेगा, क्योंकि उन्होंने दूसरी महिलाओं के साथ ऐसा होते देखा था. डीडब्ल्यू की जांच में उनकी कहानी सही पाई गई, और ऐसे कई अन्य मामले भी सामने आए.
ऑब्री बताती हैं, "कई बार दूसरे लोग मेरे काम को अपना बताने लगते थे. यहां अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना और दूसरों के योगदान को छोटा दिखाना आम बात थी. इसी तरह से लोग यहां टिके रहते थे."
"रिसर्च का तरीका अलग है"
संस्थान ने किसी भी व्यक्तिगत मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. उनका कहना था कि पिछले पांच सालों में निदेशकों के खिलाफ लिंगभेद की ‘कोई भी शिकायत मैनेजमेंट को नहीं मिली है.'
हालांकि, डीडब्ल्यू और डेय श्पीगल की जांच में अन्य माक्स प्लांक संस्थानों में भी दुर्व्यवहार के मामले सामने आए हैं. इस जांच के दौरान माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर द फिजिक्स ऑफ कॉम्प्लेक्स सिस्टम्स में काम करने वाले 20 लोगों से बात की गई. इनमें से ज्यादातर ने कहा कि उन्होंने खुद दुर्व्यवहार झेला, देखा या इसके बारे में सुना है. डीडब्ल्यू और डेय श्पीगल ने गवाहों से बात की और ऐसी बातचीत की समीक्षा की जो इन घटनाओं की पुष्टि करते हैं.
एलियास (बदला हुआ नाम), जो अपनी पीएचडी के लिए जर्मनी आए थे. उन्होंने बताया कि रोस्ट कॉन्ट्रैक्ट को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे खासकर जब वह खत्म होने वाला होता था. जो वैज्ञानिक उनकी बात नहीं मानते थे, उन्हें कॉन्ट्रैक्ट न बढ़ाने की धमकी दी जाती थी.
उन्होंने बताया, "यूरोप के बाहर से आए लोगों पर उनका ज्यादा दबाव था. क्यूंकि हमें रेजिडेंट परमिट के लिए कॉन्ट्रैक्ट की जरूरत होती थी और वह कॉन्ट्रैक्ट ना बढ़ाने की धमकियां देकर अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते थे."
जब हमने रोस्ट से इन आरोपों पर जवाब मांगा, तो माक्स प्लांक सोसायटी ने उनकी ओर से जवाब दिया, "मिस्टर रोस्ट इन आरोपों की पुष्टि नहीं करते हैं.” संस्था ने गुमनाम आरोपों पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
शिकायतों की जांच पर 'बिल्कुल ध्यान नहीं'
इस जांच में पत्रकारों से बात करने वाले कई युवा वैज्ञानिकों ने कहा कि उन्होंने डर की वजह से दुर्व्यवहार की शिकायत नहीं की. कुछ को तो यह पता भी नहीं था कि शिकायत करना संभव है.
जिन वैज्ञानिकों ने शिकायत करने की कोशिश की उन्हें रोका गया और कई लोगों को चेतावनी दी गई कि इससे उनका करियर खतरे में पड़ सकता है. कुछ को साफ तौर पर कह दिया गया कि या तो वे संस्थान की शर्तें मानें या फिर नौकरी छोड़ दें.
लांडो ने रोस्ट के दुर्व्यवहार की शिकायत करने की कोशिश की थी. उन्होंने माक्स प्लांक सोसायटी के वकीलों से भी संपर्क किया था, जो एक बाहरी लीगल फर्म थी और आधिकारिक रूप से शिकायतें सुनने के लिए थी. लेकिन जब उन्होंने गोपनीयता की मांग की, तो उन्हें सीधा जवाब नहीं मिला.
ईमेल में लिखा था, "पूरी प्रक्रिया गोपनीय और गुमनाम रहेगी, जब तक आप मुझे कुछ और निर्देश नहीं देते. लेकिन सच्चाई यह है कि जांच को शुरू करने के लिए अभी नहीं तो बाद में नाम सामने आएगा ही."
बाकी लोगों ने बताया कि उनकी शिकायतों को दबाने का प्रयास किया गया. फेलिक्स, दक्षिण जर्मनी के माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट में पीएचडी शोधकर्ता थे. उन्होंने भी अपना असली नाम न बताने का अनुरोध किया और कहा कि उन्होंने 2022 में एक विस्तृत रिपोर्ट जमा की थी, जिसे आंतरिक जांच टीम को भेजा गया था. यह टीम 2019 के सर्वेक्षण के बाद बनाई गई थी और इसका काम शिकायतों की जांच करना था.
लेकिन डीडब्ल्यू और डेय श्पीगल की समीक्षा में सामने आया कि फेलिक्स को बताया गया कि उनकी रिपोर्ट को उनके संस्थान के प्रमुख निदेशक को भेजने का फैसला किया गया है. जिसका मतलब था कि संस्थान के ही एक बड़े अधिकारी को पूरी जानकारी दी जा रही थी, जिसमें पीड़ितों के नाम और दुर्व्यवहार की सारी जानकारी शामिल थी.
जब फेलिक्स ने अनुरोध किया कि रिपोर्ट को बिना बदलाव के आगे न भेजा जाए, तो उन्हें जवाब आया कि उनके अनुरोध के कारण उनकी शिकायत औपचारिक रूप से बंद कर दी गई है.
फेलिक्स ने कहा, "मुझे लगा कि किसी को भी जांच में दिलचस्पी नहीं है. मेरे लिए यह स्वीकार करना मुश्किल है कि लोगों के साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है और भविष्य में भी युवा वैज्ञानिकों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ सकता है."
माक्स प्लांक सोसायटी ने कहा कि वे इन मामलों पर टिप्पणी नहीं कर सकते, लेकिन दावा किया कि "हम शिकायत करने वाले को गुमनाम और गोपनीय रखते हैं."
जो अन्य जूनियर वैज्ञानिक शिकायत करने आंतरिक जांच टीम के पास गए, उन्होंने बताया कि उनके कई सवालों के जवाब नहीं दिए गए. उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि शिकायत प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से रोका जा रहा है.
डीडब्ल्यू और डेय श्पीगल ने माक्स प्लांक सोसायटी से अनुरोध किया कि वे यह जानकारी दें कि अब तक कितनी शिकायतें दर्ज की गई है? और उनमें से कितने मामलों की जांच हुई है, तथा कितनों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई है?
लेकिन संस्थान ने इस अनुरोध को ठुकरा दिया. उन्होंने कहा कि ये डेटा सार्वजनिक नहीं किया जा सकता. संस्थान ने ईमेल में यह भी लिखा, "गुमनामी का मतलब यह नहीं है कि शिकायत की जांच नहीं होगी. हम शिकायत करने वालों की पहचान को गोपनीय रखने को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं."
निगरानी की कमी के गंभीर परिणाम
जर्मनी के फेडरल कोर्ट ऑफ ऑडिट ने 2024 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें कहा गया था कि माक्स प्लांक सोसायटी में प्रभावी निगरानी प्रणाली नहीं है.
रिपोर्ट में इस संस्था की आलोचना की गई थी, जो हर साल 2 अरब यूरो (लगभग 2.1 अरब डॉलर) से अधिक की सरकारी फंडिंग प्राप्त करती है. रिपोर्ट में कहा गया, "संस्थान के पास सही तरीके से काम करने वाला कोई निगरानी निकाय नहीं है." और "असल में, संस्था के अध्यक्ष ही खुद अपने काम की निगरानी करते हैं."
जर्मनी के पूर्व सांसद और शिक्षा व अनुसंधान मंत्रालय में राज्य सचिव रह चुके, थोमास साटेलबेर्गर, ने इस समस्या को सुधारने के लिए संसद में कई बार सवाल उठाए.
उनका कहना है, "इस संस्था के लिए सार्वजनिक निगरानी निकाय जरूरी हैं और इन निकायों को भी अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी, जैसे समाज के अन्य क्षेत्रों में होता है."
साटेलबेर्गर को डर है कि अगर निगरानी और जवाबदेही को मजबूत नहीं किया गया तो जर्मनी को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है. उन्होंने कहा, "हमारे देश में वैज्ञानिक शोध का स्तर इन घोटालों की वजह से कमजोर हो रहा है. पहले से ही जर्मनी कई टॉप वैज्ञानिकों के देश छोड़कर जाने की समस्या का सामना कर रहा है"
लांडो भी उन वैज्ञानिकों में से एक हैं, जिन्होंने जर्मनी छोड़ दिया. 2021 में उन्होंने माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट (ड्रेसडेन) में अपने कॉन्ट्रैक्ट को बढ़ाने से मना कर दिया और जर्मनी छोड़कर चले गए. अब वह दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिक संस्थान में "क्वांटम केऑस" पर शोध कर रहे हैं.
लांडो ने बताया, "अब जब मेरे पास अनुभव है और मैंने ऐसे लोगों के साथ काम किया है, जो विज्ञान को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाते हैं तो मुझे इसमें कोई समस्या नहीं लगती. अगर ऐसा आक्रामक वैज्ञानिक माहौल है, जहां लोग अपने विचारों के लिए लड़ते हैं, यह तो बहुत प्रोडक्टिव हो सकता है."
लांडो ने कहा कि उनके माक्स प्लांक के पूर्व सुपरवाइजर का रवैया इससे बिल्कुल अलग था. वह उनके बारे में कहते हैं, "वह विज्ञान से नहीं लड़ रहे थे. वह इंसान से लड़ रहे थे. वह मुझे अपमानित कर रहे थे."
एडिटिंग: कारोलीन खॉम्पसन और मिलान गैगनॉन.
फैक्स चेकिंग: जूलेट पिनेदा.