आर्कटिक में क्यों हो रही है पोलर भालुओं की बायॉप्सी
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

नॉर्वे के स्वालबार्ड इलाके में एक रिसर्च टीम पोलर भालुओं को बेहोश कर उनके शरीर से फैट टिशू के सैंपल ले रही है. लेकिन क्यों किया जा रहा है ऐसा?इस रिसर्च टीम में एक पशु-चिकित्सक भी हैं जो एक एयर राइफल से बेहोश करने वाली गोली दाग कर ध्रुवीय भालुओं को बेहोश करते हैं. उसके बाद वैज्ञानिक बेहोश भालू के शरीर से फैट टिशू निकाल लेते हैं.

यह टिशू इन भालुओं के स्वास्थ्य पर प्रदूषण के असर को मापने के लिए निकाले जा रहे हैं. बेल्जियम की विषविज्ञानी (टॉक्सिकोलॉजिस्ट) लौरा पिरार्ड ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "हम यह दिखाना चाह रहे हैं कि पोलर भालू जंगली माहौल में कैसे रहते हैं - लेकिन हम यह एक लैब में करना चाह रहे हैं. हम ऐसा करने के लिए उनका टिशू लेते हैं, उसे बेहद पतले फांकों में काटते हैं और फिर उस फांक को उस स्ट्रेस हॉर्मोन और प्रदूषकों से एक्सपोज करते हैं जिनका सामना भालू करते हैं."

कैसे हो रही है जांच

पिरार्ड ने ही इस जांच को करने का तरीका विकसित किया था. बेहोश भालुओं से टिशू और खून के सैंपल लेने के बाद उनके गले में एक सैटलाइट कॉलर लगा दिया जाता है. वैज्ञानिकों ने बताया कि इस अध्ययन में सभी भालुओं की निगरानी की जा रही है, लेकिन जीपीएस कॉलर सिर्फ मादाओं पर लगाए जा रहे हैं, क्योंकि उनके गले उनके सरों से छोटे हैं.

नर भालू कुछ मिनटों से ज्यादा कॉलर पहन कर नहीं रह पाते हैं. यह रिसर्च नार्वेजियन पोलर इंस्टिट्यूट करवा रहा है. उसके शोधि जहाज क्रोनप्रिंस हाकोन पर एक अस्थायी लैब भी बनाई गई है, जहां सैम्पलों को कई दिनों तक रखा जाता है.

उन्हें प्रदूषकों और स्ट्रेस हॉर्मोन की छोटी खुराकों से एक्सपोज किया जाता है. उसके बाद उन्हें फ्रीज कर दिया जाता है, ताकि जब टीम वापस जमीन पर पहुंचे तो आगे का विश्लेषण कर सके.

टिशू के हर टुकड़े ने पिरार्ड और उनके सहकर्मियों को इस पशु के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी दी जिसने अपने जिंदगी का अधिकांश हिस्सा समुद्री बर्फ पर बिताया है. फैट सैम्पलों के विश्लेषण ने दिखाया कि मुख्य प्रदूषक थे "पर और पॉली फ्लुओरोएल्काइल पदार्थ" (पीएफएस).

बदल रही है भालुओं की दुनिया

यह सिंथेटिक केमिकल होते हैं जिनका इस्तेमाल उपभोक्ता वस्तुओं और अन्य उद्योगों में किया जाता है. ये दशकों तक पर्यावरण में ही रह जाते हैं. लेकिन रिसर्च टीम ने पाया कि सालों तक इन केमिकलों से एक्सपोजर के बावजूद स्वालबार्ड के पोलर भालुओं में दुर्बलता या स्वास्थ्य के बिगड़ने के कोई संकेत दिखाई नहीं देते.

यहां इनकी आबादी भी स्थिर ही है, बल्कि थोड़ी बढ़ी ही है. इसके विपरीत, कनाडा के कुछ हिस्सों में 2016 से 2021 के बीच भालुओं की आबादी 842 से गिर कर 618 हो गई. यह 27 प्रतिशत की गिरावट है. यह आंकड़े एक सरकारी हवाई सर्वे के हैं.

कनाडाई आर्कटिक में दक्षिणी बोफोर्ट सागर समेत अन्य इलाकों में भी पोलर भालुओं की आबादी में लंबी-अवधि में गिरावट देखने को मिली है. इसका कारण शिकार की कमी और पहले से लंबे बर्फ मुक्त मौसमों को माना गया.

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कि स्वालबार्ड द्वीप-समूह में करीब 300 और उत्तरी ध्रुव से बैरेंट्स सागर तक फैले इससे आगे के इलाके में करीब 2,000 पोलर भालू हैं. टीम को समुद्री बर्फ के कम होने और भालुओं में ज्यादा मात्रा में प्रदूषकों के मिलने में कोई सीधा संबंध नहीं मिला.

इसकी जगह प्रदूषकों के स्तर में कमी के जिम्मेदार भालुओं के भोजन को पाया गया. दो अलग अलग किस्म के भालू अलग अलग जीवों का शिकार करते हैं, जिसकी वजह से उनके शरीर में अलग अलग केमिकल चले जाते हैं.

जमीन पर ज्यादा समय बिताते हैं

शोधकर्ताओं का कहना है कि समुद्री बर्फ के कम होने की वजह से भालुओं का खान-पान बदलना शुरू हो चुका है. ऐसा लग रहा है कि इस बदलाव की वजाज से उन्हें अपना स्वास्थ्य ठीक रखने में मदद मिल रही है.

स्वालबार्ड पोलर भालू कार्यक्रम के मुखिया जॉन आर्स ने बताया, "वो अभी भी सील मछली का शिकार करते हैं लेकिन वो रेनडियर के अंडे भी खाते हैं. वो घास समुद्री शैवाल भी खाते हैं, हालांकि वह उन्हें जरा भी एनर्जी नहीं देती."

आर्स ने आगे बताया, "उनके पास अगर समुद्री बर्फ बहुत कम है, तो उन्हें जमीन पर ही रहने की जरूरत पड़ती है." उन्होंने यह भी बताया कि भालू "20 या 30 साल पहले जितना समय जमीन पर बिताते थे, आज वो उससे कहीं ज्यादा समय बिताते हैं."

सिर्फ इसी सीजन में आर्स और उसकी टीम ने 53 भालू पकड़े, उन में से 17 पर सैटलाइट कॉलर लगाए और 10 माओं को उनके बच्चों के साथ ट्रैक किया. इनके शोध के नतीजे यह बता सकते हैं कि भालुओं की दुनिया कैसे चिंताजनक गति से बदल रही है.