मानव-मल से बनी दवा को अमेरिका में मिली मंजूरी
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

अमेरिकी अधिकारियों ने पेट के खतरनाक संक्रमण को ठीक करने वाली एक दवा को मंजूरी दी है, जिसे मानव मल में मिलने वाले एक बैक्टीरिया से बनाया गया है.अमेरिकी दवा नियामक अधिकारियों ने मानव मल से बनी एक दवा को मंजूरी दी है, जो पेट के खतरनाक इंफेक्शन से लड़ने में मददगार साबित हो सकती है. यह दवा सेरीज थेराप्युटिक्स नामक कंपनी ने बनाई है और उनका दावा है कि यह इलाज बहुत से डॉक्टरों द्वारा पेट के इंफेक्शन से लड़ने के लिए एक दशक से भी ज्यादा समय से इस्तेमाल किए जा रहे तरीके का सरल रूप है.

अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने क्लस्ट्रिडियम से होने वाले पेट के संक्रमण के लिए कैप्सूल के रूप में दवा को मंजूरी दे दी है. क्लास्ट्रिडियम बैक्टीरिया एक खतरनाक जीवाणु है जो पेट में दर्द, उलटी और दस्त जैसी परेशानियां पैदा कर सकता है. बार-बार होने पर यह संक्रमण घातक सिद्ध हो सकता है. अमेरिका में इसके कारण हर साल 15 हजार से 30 हजार के बीच लोगों की मौत होती है.

जहां एंटिबायोटिक काम ना करे

आमतौर पर इस बैक्टीरिया को एंटिबायोटिक्स से खत्म किया जा सकता है लेकिन उस इलाज में पेट में रहने वाले अच्छे बैक्टीरिया भी मारे जाते हैं, जिससे भविष्य में इंफेक्शन होने का खतरा बढ़ जाता है. नई दवा ऐसे मरीजों को दी जाएगी जिन्हें एंटिबायोटिक का कोर्स मिल चुका है और इंफेक्शन खत्म नहीं हो रहा.

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दस साल पहले कुछ डॉक्टरों ने मानव मल से जुड़े इलाज की सफलता के मामले सामने लाने शुरू किए. इसके तहत एक स्वस्थ व्यक्ति के मल का इस्तेमाल बीमार व्यक्ति का इलाज करने के लिए किया जा रहा था. उसी इलाज को दवा कंपनी ने परिष्कृत कर सरल बनाया है. एफडीए ने पिछले साल एक अन्य कंपनी फेरिंग फार्मा के ऐसे ही इलाज को मान्यता दी थी. लेकिन उस इलाज में मरीज को दवाई गुदाद्वार से दी जाती है.

मैसाचुसेट्स के केंब्रिज में स्थित कंपनी सेरीज अपना दवा का प्रचार एक ऐसे इलाज के रूप में कर रही है, जिसमें डॉक्टरों को मानव शरीर के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी पड़ेगी. इस दवा को वाउस्ट नाम से बेचा जाएगा और इसका कोर्स तीन दिन तक चलेगा जिसमें चार कैप्सुल रोज लेने होंगे.

अब मानव-मल बैंकों का क्या होगा

अब तक मानव मल जुड़े इलाज करने के लिए डॉक्टर स्टूल-बैंक यानी लैब में सुरक्षित रखे गए स्वस्थ मल का इस्तेमाल करते रहे हैं. ये बैंक अमेरिका के कई मेडिकल संस्थानों और अस्पतालों में उपलब्ध हैं. ऐसी आशंका है कि नई दवा के बाद मानव मल को दान करने वाले लोगों की संख्या घट सकती है. फिर भी कुछ स्टूल-बैंक खुले रखे जाएंगे.

अमेरिका के सबसे बड़े स्टूल-बैंक ओपनबायोम ने कहा है कि वह ऐसे मरीजों के लिए उपलब्ध रहेगा जो एफडीए द्वारा मान्यता प्राप्त नई दवाओं के योग्य नहीं माने जाएंगे. इनमें बच्चे और ऐसे वयस्क शामिल हैं जिन पर दवा का इस्तेमाल नहीं होगा. 2013 से अब तक यह बैंक मानव-मल के 65,000 से ज्यादा नमूने उपलब्ध करवा चुका है.

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बैंक के मेडिकल प्रमुख डॉ. माजिद उस्मान ने बताया, "ओपनबायोम इन मरीजों के लिए फीसल ट्रांसप्लांटेशन सुविधा मुहैया कराने को प्रतिबद्ध है.” ओपनबायोम का मानव-मल इलाज करीब 1,700 डॉलर यानी डेढ़ लाख रुपये के आस-पास पड़ता है. इसके लिए जमी हुई अवस्था में मानव मल को कुछ ही दिन में उपलब्ध करवा दिया जाता है. सेरीज ने अभी यह नहीं बताया कि उसके इलाज पर कितना खर्च आएगा.

बुधवार को जारी एक बयान में सेरीज के मुख्य वित्त अधिकारी एरिक शाफ ने कहा, "हम डॉक्टरों और मरीजों के लिए खर्च को कम से कम रखना चाहते हैं. हमारे विचार में हम जो सुविधाएं उपलब्ध करवा रहे हैं उनमें इलाज की आसानी एक है.”

कैसे बनाई जाती है दवा

सेरीज के अधिकारियों के मुताबिक दवा की निर्माण प्रक्रिया लगभग वैसी ही है, जैसी अब तक स्टूल-बैंक अपनाते रहे हैं. कंपनी वही तकनीक और उपकरण इस्तेमाल कर रही है जो कि रक्त संबंधी अन्य उत्पादों को शुद्ध करने और अन्य जैविक थेरेपी में इस्तेमाल होते हैं.

सबसे पहले कुछ दानकर्ताओं से मानव मल लिया जाता है. इन दानकर्ताओं की पहले ही डॉक्टर अन्य संक्रमणों के लिए जांच कर यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि वे स्वस्थ हैं और उनसे लिए सैंपल किसी भी सूरत में सेहत के लिए खतरनाक नहीं होंगे. उनके मल को फ्रीज किया जाता है और उसकी जांच की जाती है कि अन्य संक्रमणों, वायरसों व पैरासाइट का खतरा तो नहीं है.

उसके बाद कंपनी इन नमूनों को शुद्ध करके इनमें से स्वस्थ बैक्टीरिया को अलग कर लेती है और अन्य जीवाणुओं को खत्म कर दिया जाता है. मानव मल के एक नमूने से हजारों कैप्सुल बनाए जा सकते हैं.

हालांकि एफडीए ने चेतावनी दी है कि यह दवा अन्य संक्रमण पैदा कर सकती है और इसमें ऐसे तत्व हो सकते हैं जो एलर्जी कर सकें. इस इलाज को मान्यता देने से पहले 180 मरीजों पर अध्ययन किया गया था और उनमें से 88 फीसदी को इलाज के आठ हफ्ते बाद तक कोई बीमारी नहीं हुई.

वीके/एए (एपी)