एस्बेस्टस की तरह जानलेवा साबित हो रही सिलिका की धूल
पत्थरों को काटने या ड्रिल करने के दौरान निकलने वाली सिलिका की धूल अगर सांस के जरिए शरीर के अंदर तक पहुंच जाए, तो इससे फेफड़ों की जानलेवा बीमारी हो सकती है.
पत्थरों को काटने या ड्रिल करने के दौरान निकलने वाली सिलिका की धूल अगर सांस के जरिए शरीर के अंदर तक पहुंच जाए, तो इससे फेफड़ों की जानलेवा बीमारी हो सकती है. रोज इसके संपर्क में आने वाले कामगारों के लिए बेहतर करनी होगी.निर्माण कार्य, खनन, दांतों का इलाज और अन्य उद्योगों में हर दिन काम करने के दौरान लोग सिलिका की धूल के संपर्क में आते हैं. इस संपर्क को घटा कर दुनिया भर में लगभग 13,000 जानें बच सकती हैं. यह बात ब्रिटेन के रिसर्चरों ने सुझाई है. उन्होंने पता लगाया है कि पूरी जिंदगी धूल की मौजूदा ‘स्वीकार्य' सीमाओं के संपर्क में आने वाले किसी कामगार में सिलिकोसिस विकसित होने का गंभीर खतरा हो सकता है. यह फेफड़ों की एक घातक बीमारी है.
शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि सिलिकोसिस भी वैसी ही बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन सकती है जैसा एस्बेस्टस के संपर्क में आने पर हुआ था. एस्बेस्टस एक बेहद जहरीला रसायन है. यह दशकों तक भवन निर्माण में इस्तेमाल होता रहा और इसके कारण बहुत से लोगों की जान गई थी. .
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रिसर्च रिपोर्ट के लेखक और लंदन के इंपीरियल कॉलेज से जुड़े पैट्रिक हॉलेट ने कहा, "हमारे शोध से यह निष्कर्ष निकलता है कि हर दिन सिलिका की धूल के संपर्क में आने की सीमा को 0.1 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर से घटाकर 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर किया जाना चाहिए.” सामान्य शब्दों में कहें, तो काम करने वाली जगहों पर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कोई भी कामगार 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा धूल की मात्रा के संपर्क में ना आए.
यह अध्ययन ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में 8 अगस्त, 2024 को थोरैक्स शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इस रिसर्च से यह भी पता चलता है कि सिलिकोसिस के खतरों के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करने के लिए और डेटा की जरूरत है, क्योंकि यह स्पष्ट नहीं है कि कितने लोग इस बीमारी से प्रभावित हो रहे हैं. खासकर विकासशील देशों में सिलिकोसिस के बारे में पर्याप्त डेटा नहीं है.
सिलिकोसिस क्या है?
सिलिकोसिस सांस से जुड़ा रोग है, जो फेफड़ों को सख्त बनाता है. यह सिलिका की धूल या सिलिका क्रिस्टल के कारण होता है, जो मिट्टी, रेत, कंक्रीट, मोर्टार, ग्रेनाइट और कृत्रिम पत्थरों में पाए जाते हैं. यह निर्माण कार्य, खनन, तेल और गैस निकालने, मॉड्यूलर किचन तैयार करने, दांत के इलाज, मिट्टी के बर्तन बनाने और मूर्ति बनाने के दौरान आम तौर पर निकलता है.
इन उद्योगों में काम करने वाले लोग अक्सर हर दिन सिलिका के संपर्क में आते हैं और इस वजह से इन कामगारों में सिलिकोसिस विकसित होने का खतरा ज्यादा होता है. उदाहरण के लिए, इस बीमारी ने भारत में खनन उद्योग से जुड़े लोगों पर कहर बरपाया है.सिलिकोसिस ऐसी बीमारी है जो लोगों को हर दिन और ज्यादा बीमार करती जाती है और इसका कोई इलाज नहीं है.
कामगारों पर किस तरह पड़ रहा असर
जब सिलिका वाली किसी सामग्री को काटा या ड्रिल किया जाता है, तो सिलिका की बेहद बारीक धूल हवा में फैलती है. काम के दौरान यह धूल सांस के जरिए सीधे कामगारों के फेफड़ों तक पहुंच जाती है, खासकर उन जगहों पर जहां स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़े मानकों का सही तरीके से पालन नहीं किया जाता. सिलिकोसिस विकसित होने में लंबा समय लग सकता है. आम तौर पर, अगर कोई व्यक्ति काम के दौरान 10 से 20 सालों तक सिलिका की धूल के संपर्क में आता है, तो उसमें सिलिकोसिस विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है.
हॉलेट ने डीडब्ल्यू को दिए इंटरव्यू में बताया, "ऐसा अनुमान है कि दुनिया भर में लाखों लोग सिलिकोसिस से पीड़ित हैं, लेकिन इससे जुड़े आंकड़े काफी कम है. ब्रिटेन और यूरोप में, हमें हर साल इससे जुड़े सैकड़ों मामले देखने को मिलते हैं.” सिलिकोसिस की वजह से फेफड़ों के कैंसर सहित अन्य गंभीर बीमारियां हो सकती हैं. हालांकि, वैज्ञानिकों को ठीक से यह नहीं पता है कि ऐसा कैसे होता है. कुछ लोगों का मानना है कि सिलिका की धूल फेफड़ों में जमा हो जाती है और इस वजह से वहां सूजन बढ़ जाता है.
सिलिका की धूल की मात्रा कम करने की मांग
इस नए अध्ययन के दौरान, आठ मौजूदा अध्ययनों का मूल्यांकन किया गया जिनसे सिलिकोसिस के खतरे का पता चलता है. अध्ययन में शामिल 65,977 लोगों में से 8,792 लोग सिलिकोसिस से पीड़ित थे. इसमें फेफड़ों के एक्स-रे के विश्लेषण, पोस्टमॉर्टम के नतीजे और मृत्यु प्रमाण पत्र के सबूत भी शामिल थे. हॉलेट ने कहा, "हमने यह पता लगाने की कोशिश की कि जो लोग अपने कामकाजी जीवन में 40 से ज्यादा वर्षों तक सिलिका की धूल के संपर्क में रहे हैं उनमें सिलिकोसिस विकसित होने का कितना खतरा है. ज्यादातर रिसर्च में खनन उद्योग से जुड़े लोगों को शामिल किया गया था. सिर्फ दो रिसर्च में दूसरे उद्योग से जुड़े लोग शामिल थे.”
रिसर्चरों ने देखा कि अगर खनन उद्योग में 40 साल के कामकाजी जीवन के दौरान सिलिका की धूल के संपर्क में आने की सीमा को आधा कर दिया जाए यानी 0.1 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर से घटाकर 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर कर दिया जाए, तो सिलिकोसिस के मामलों में 77 फीसदी की कमी आ सकती है. हॉलेट ने कहा, "इससे अन्य उद्योग से जुड़े लोगों को भी फायदा होगा. हालांकि, सिर्फ दो अध्ययन में अन्य उद्योग से जुड़े लोगों को शामिल किया गया था, इसलिए किसी भी नतीजे तक पहुंचने के लिए यह पर्याप्त आंकड़ा नहीं है.”
क्या सिलिका की धूल घट सकती है
ब्रिटेन में सिलिका की धूल के संपर्क की व्यावसायिक सीमा 0.1 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर है. फ्रांस, ऑस्ट्रिया और स्विटजरलैंड सहित अधिकांश यूरोपीय देशों में भी यही सीमा तय की गई है. दूसरी तरफ चीन जैसे अन्य देशों में इसकी सीमा काफी ज्यादा है, जो लगभग 1 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर है. सिलिका की धूल के संपर्क में आने की सीमा को 0.05 मिलीग्रीम प्रति क्यूबिक मीटर तक कम करना अमेरिकी मानकों के अनुरूप होगा.
हॉलेट कहते हैं कि काम की जगह पर ऐसे उपाय किए जा सकते हैं जिनसे कामगार सिलिका की कम से कम धूल के संपर्क में आ सकें. उन्होंने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का हवाला दिया जहां स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़े इस तरह के उपाय कारगर साबित हुए हैं.
ऑस्ट्रेलिया ने इंजीनियर्ड स्टोन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है, क्योंकि इसे काटने या ड्रिल करने पर सिलिका की काफी ज्यादा धूल निकलती है. हॉलेट ने कहा, "ऐसे कई तरीके हैं जिनसे हवा में धूल की मात्रा को कम किया जा सकता है. जैसे, फोम और पानी का इस्तेमाल करना, बेहतर वेंटिलेशन और व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण.”
हालांकि, उनका मानना है कि विकासशील देशों में सिलिकोसिस की समस्या काफी गंभीर है, क्योंकि वहां धूल को कम करने या उससे सुरक्षा के लिए बेहतर उपाय नहीं किए जाते. उन्होंने कहा, "विकासशील देशों में खनन उद्योग में काम करने वाले लोग साल भर में ही धूल की इतनी ज्यादा मात्रा के संपर्क में आ जाते हैं जितना अन्य देशों में लोग पूरी जिंदगी में आते हैं.”