
जीवन के शुरुआती सालों में हम बहुत तेजी से सीखते हैं लेकिन फिर भी आम तौर पर हमें उस अवधि के खास तजुर्बे याद नहीं आते. लेकिन एक नए अध्ययन ने शिशुओं की याददाश्त के बारे में प्रचलित धारणाओं को चुनौती दी है.'साइंस' पत्रिका में छपे इस नए अध्ययन में दावा किया गया है कि छोटे बच्चों के दिमाग में भी यादें बनती हैं. सवाल यह है कि आगे जाकर इन यादों को वापस लाना मुश्किल क्यों हो जाता है.
इस अध्ययन के वरिष्ठ लेखक और येल विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर निक टर्क-ब्राउन का कहना है, "मैं हमेशा से हमारे निजी इतिहास में मौजूद इस रहस्यमयी ब्लैंक स्पॉट को लेकर आकर्षित रहा हूं."
एक साल की उम्र के आस पास बच्चे असाधारण शिक्षार्थी बन जाते हैं. वो भाषा सीखते हैं, चलना, चीजों को पहचाना, सामाजिक रिश्तों को समझना और बहुत कुछ सीखते हैं. निक कहते हैं, "फिर भी हमें उन तजुर्बों में से कुछ भी याद नहीं रहता - तो इस अद्भुत अनुकूलन और हमारी सीखने की क्षमता में एक तरह का मिसमैच है."
साइकोएनालिसिस के संस्थापक सिग्मंड फ्रॉएड ने कहा था कि शुरुआती यादें दब जाती हैं, हालांकि विज्ञान ने इन यादों को दबाने की एक सक्रिय प्रक्रिया की संभावना को मोटे तौर पर नकार दिया है.
क्यों मुश्किल है बच्चों पर इस तरह के टेस्ट करना
विज्ञान, इसकी जगह आधुनिक सिद्धांत हिप्पोकैम्पस पर ध्यान देता है, जो दिमाग का वो हिस्सा है जो एपिसोडिक मेमोरी के लिए बेहद जरूरी है. शिशुओं की उम्र में यह पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ होता है.
हालांकि निक के मन में पिछली बिहेवियरल रिसर्च से मिले संकेतों की वजह से कौतुहल है. चूंकि शिशु भाषा सीखने से पहले अपनी यादों को बोल कर बता नहीं सकते, जानी पहचानी चीजों को थोड़ी ज्यादा देर तक देखने की उनकी आदत महत्वपूर्ण इशारे देती है.
दिमाग की गतिविधियों पर नजर रखने वाले हाल के रोडेंट अध्ययनों में भी देखा गया है कि यादों को स्टोर करने वाले कोशिकाओं के पैटर्न शिशु हिप्पोकैम्पस में बनते हैं लेकिन समय के बीतने के साथ पहुंच से बाहर हो जाते हैं. इन पैटर्नों को 'एन्ग्राम' कहा जाता है.
इन्हें एक तकनीक के जरिए कृत्रिम तरीके से फिर से जगाया जा सकता है, जिसके तहत रोशनी के इस्तेमाल से न्यूरॉनों को स्टिमुलेट किया जाता है. लेकिन अभी तक शिशुओं के अध्ययन को ब्रेन इमेजिंग से मिला मुमकिन नहीं था, क्योंकि बच्चे एक फंक्शनल मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एफएमआरआई) मशीन के अंदर शांत नहीं बैठ पाते हैं.
इस चुनौती से जीतने के लिए निक की टीम ने उन तरीकों का इस्तेमाल किया जिन पर उनकी लैब में बीते कुछ सालों में काफी काम किया गया है. जैसे परिवारों के साथ मिल कर काम करना, बच्चों को पैसिफायर, कम्बल और खिलौने देना; तकियों की मदद से बच्चों को हिलने डुलने से रोकना; और साइकेडेलिक बैकग्राउंड पैटर्नों का इस्तेमाल कर उन्हें व्यस्त रखना.
एक साल के आस पास बनने लगती हैं स्मृतियां
फिर भी उन्हें थोड़ा बहुत हिलने से रोका नहीं जा सका जिसकी वजह से तस्वीरें धुंधली आईं और उन्हें फेंक देना पड़ा. लेकिन टीम से इस तरह के सैकड़ों सेशन किए. इनमें करीब 26 शिशुओं ने हिस्सा लिया, जिनमें आधे एक साल से कम उम्र के थे, आधे एक साल से ज्यादा.
वयस्कों के अध्ययन से लिए गए एक मेमोरी टास्क में कुछ बदलाव ला कर उन्हें दिया गया और टास्क के दौरान उनके दिमागों को स्कैन किया गया. सबसे पहले उन्हें चेहरों, दृश्य और चीजों की तस्वीरें दिखाई गईं. दूसरी तस्वीरें देख लेने के बाद उन्हें पहले से देखी हुई एक फोटो के साथ साथ एक नई तस्वीर भी दिखाई गई.
निक ने बताया, "जो चीज उन्होंने पहले देखी हुई है उसे देखने में उन्होंने कितना समय बिताया, हम उसे मापते हैं और वही उस तस्वीर के लिए उनकी याददाश्त का एक परिमाण है."
याद के सफल रूप से बनने और भूल चुकी तस्वीरों के दौरान दिमाग की गतिविधि की तुलना करने से रिसर्चरों ने इस बात की पुष्टि की कि कम उम्र से ही यादों को एनकोड करने में हिप्पोकैम्पस सक्रिय हो जाता है.
यह एक साल से ज्यादा उम्र के 13 शिशुओं में से 11 के लिए ये सही पाया गया, लेकिन एक साल से कम के शिशुओं के लिए नहीं. यह भी पता चला कि मेमोरी टास्क में सबसे अच्छा प्रदर्शन दिखाने वाले शिशुओं के हिप्पोकैम्पस में ज्यादा गतिविधि देखी गई.
क्या फिर से जाग पाएंगी ये यादें
निक ने कहा, "हम अपने अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि शिशुओं में लगभग एक साल की उम्र के आस पास हिप्पोकैम्पस में एपिसोडिक मेमोरी एनकोड करने की क्षमता होती है."
हालांकि जो सवाल अभी भी अनसुलझा है वो यह है कि इन शुरुआती यादों के साथ क्या हो जाता है. शायद यह लॉन्ग टर्म स्टोरेज में कभी भी पूरी तरह से मिल नहीं पाती हैं या शायद ये वहां रहती तो हैं लेकिन पहुंच के बाहर हो जाती हैं.
निक को दूसरी संभावना ठीक लगती है और वो अब एक नए अध्ययन का नेतृत्व कर रहे हैं जिसमें यह परखा जा रहा है कि शिशु, नन्हे बच्चे और उन्हें थोड़े बड़े बच्चे उन्हीं की नजर से कम उम्र में बनाए गए वीडियो क्लिपों को पहचानते हैं या नहीं.
शुरुआती नतीजे सुझा रहे हैं कि हो सकता है ये यादें करीब तीन साल की उम्र तक रहती हो और उसके बाद धुंधली पड़ जाती हों. निक विशेष रूप से इस संभावना से कौतूहल महसूस करते हैं कि हो सकता है इन यादों को बाद में कभी फिर से जगाया जा सके.
सीके/ओएसजे (एफपी)