विवेकानंद जिनका बचपन में नाम नरेंद्रनाथ था, का जन्म 12 जनवरी 1863 में हुआ था. उनके आध्यात्मिक गुरू रामकृष्ण परमहंस थे. उनके उपदेशों, तर्कों, और भाषण सुनने लाखों की संख्या में लोग एकत्र होते थे. दुनिया भर में उनके लाखों अनुयायी थे. उनके अनमोल विचार आज भी युवाओं और बच्चों को प्रेरित करते हैं. 4 जुलाई को उनकी 122वीं पुण्यतिथि पर आइये जानते हैं उनके जीवन के पांच रोचक पहलू.
सच बोलने का साहस
एक बार नरेंद्र नाथ क्लासरूम में बैठे थे. मास्टर जी ने पढ़ाना शुरू किया था, तभी क्लास रूम के एक कोने से फुसफुसाहट शुरु हुई. मास्टर जी ने तेज स्वर में पूछा, कौन बात कर रहा है? छात्रों ने उस दिशा में इशारा किया, जहां नरेंद्र नाथ बैठे थे. मास्टर जी ने उस छोर पर बैठे सभी छात्रों को बुलाया और पढ़ाए गये पाठ से संबंधित प्रश्न पूछना शुरू किया. लेकिन कोई भी छात्र मास्टर जी के सवालों का जवाब नहीं दे सका. अंत में नरेंद्र नाथ से पूछा तो उन्होंने जवाब दे दिया. मास्टर जी ने असफल छात्रों को पीछे बेंच पर खड़ा होने का आदेश दिया. नरेंद्र नाथ भी जब उन छात्रों के साथ जाने लगे, मास्टर जी ने कहा, तुम बैठ जाओ. तब नरेंद्र नाथ ने कहा श्रीमान, मैं ही था, जो इन छात्रों से बात कर रहा था, तो दोषी मैं भी हूं. यह भी पढ़ें : शिक्षकों के तबादलों में लाखों-करोड़ों की धांधली हुई: आतिशी
शौक नरेंद्र नाथ के
बताया जाता है कि नरेंद्र नाथ को बचपन से संगीत और गायन का खास शौक रहा है. उन्होंने काफी छोटी उम्र में क्लासिकल, इन्स्ट्रुमेंटल और वोकल ट्रेनिंग ली थी. वे हारमोनियम, तबला, सितार और पखावत बहुत अच्छा बजाते थे. फुरसत के क्षणों में अकसर वे इन साजों पर अपना वक्त गुजारते और गाते-गुनगुनाते थे. इसके अलावा उन्हें रेसलिंग का भी बहुत शौक था.
रोसोगुल्ला से शुरू हुई शागिर्दी
बचपन से नटखट और शरीर स्वभाव वाले विवेकानंद को रोसोगुल्ला बहुत पसंद था, कहा जाता है कि एक बार उनके चचेरे भाई रामचंद्र दत्ता ने उनसे कहा कि वे दक्षिणेश्वर मंदिर चलें, जहां हर आने वालों को स्वामी रामकृष्ण परमहंस रोसोगुल्ला खिलाते हैं. से करते हैं. विवेकानंद ने कहा अगर वहां उन्हें रोसोगुल्ला नहीं मिला तो वे उनका कान खींचेंगे. परमहंस ने उनके सामने मटका भर रोसोगुल्ला रख दिया था. विवेकानंद पर रोसोगुल्ला पसंद आया कि नहीं, अलबत्ता परमहंस बहुत पसंद आए और उनके शिष्य बन गये.
स्वामीजी क्यों पहनते थे विदेशी जूते?
देश हो या विदेश स्वामी विवेकानंद जी सदा भारतीय परिधान पहनते थे. एक बार अमेरिका के किसी मंच पर व्याख्यान दे रहे थे, उनके व्याख्यान के बीच एक विदेशी श्रोता ने उनके सीधे-सादे परिधान के बारे में पूछा, तो स्वामीजी ने उसे स्वदेश-प्रेम से जोड़ते हुए लंबा व्याख्यान दे दिया. कार्यक्रम की समाप्ति पर एक अंग्रेज महिला उनके करीब आई, उनपर कटाक्ष करते हुए पूछा, आपका स्वदेश-प्रेम सुनकर अच्छा लगा, लेकिन आपने पैरों में विदेशी जूता पहना है? वस्तुत: किसी विवेकानंद को किसी मजबूरीवश वो जूता पहनना पड़ा था. महिला के कटाक्ष पर स्वामी जी ने कहा, हमारे देश में अंग्रेजों का स्थान कहां होनी चाहिए, ये बताने के लिए मैं कभी-कभी विदेशी जूते पहनता हूं.
भय से भागो मत सामना करो
एक दिन स्वामी विवेकानंद जी बनारस (अब वाराणसी) में दुर्गा मंदिर से गुजर रहे थे, कि तभी कई सारे बंदरों ने उनका रास्ता रोक लिया. विवेकानंद जी भयभीत होकर सरपट भागने लगे. इससे बंदरों की हिम्मत बढ़ गई, वे सभी विवेकानंद जी का पीछा करने लगे, पास खड़ा एक संन्यासी सब देख रहा था. संन्यासी ने विवेकानंद को रोकते हुए कहा, भागो मत इनका सामना करो, विवेकानंद जी संत की बात समझ कर रुक गये. थोड़ी ही देर में सारे बंदर भाग खड़े हुए. इस घटना से स्वामीजी को यह सीख मिली, कि अगर आप किसी से भयभीत होते हैं तो उसका सामना करो और भयमुक्त होकर सामान करो. भय खुद-ब-खुद भयभीत होकर भाग जाएगा.
अपनी ही मृत्यु की भविष्यवाणी
स्वामी विवेकानंद 4 जुलाई 1902 को बेलूर मठ के एक कमरे में महासमाधि ली. उन्हें कई किस्म की बीमारियां थीं. हालांकि सर्वविदित है कि उन्होंने काफी पहले ही अपनी मौत की भविष्यवाणी करते हुए कहा था, कि वह चालीस साल से आगे नहीं जियेंगे. जब वह 39 वर्ष 5 माह 24 दिन के थे, उन्होंने बेलूर मठ के एक कमरे में महासमाधि ले ली.