महान वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बसु की 161वीं जन्मतिथि पर विशेष: जानें कैसे बहुमुखी प्रतिभाशाली वैज्ञानिक ने साबित किया कि पेड़ों में भी होती है जान
आचार्य जगदीश चन्द्र बसु देश के मल्टी टैलेंटेड शख्सियत थे, जिन्हें भौतिकी, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान एवं पुरातत्व विषयों पर गहरी पकड़ थी, इन क्षेत्रों में उन्होंने कई आविष्कार किये. वह भी बिना लैब या विशेष उपकरणों के. रेडियो से लेकर टीवी रडार, रिमोट सेंसिंग एवं माइक्रोवेव ओवन आदि पर उनकी गहरी पकड़ थी. आइये जानें इस महान वैज्ञानिक की जीवन गाथा.
आचार्य जगदीश चन्द्र बसु (Jagdish Chandra Bose) देश के मल्टी टैलेंटेड शख्सियत थे, जिन्हें भौतिकी, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान एवं पुरातत्व विषयों पर गहरी पकड़ थी, इन क्षेत्रों में उन्होंने कई आविष्कार किये. वह भी बिना लैब या विशेष उपकरणों के. रेडियो से लेकर टीवी रडार, रिमोट सेंसिंग एवं माइक्रोवेव ओवन आदि पर उनकी गहरी पकड़ थी. उनकी सबसे बड़ी कामयाबी थी यह प्रमाणित करना जीव जंतुओं की तरह पेड़-पौधों में भी जीवन होता है, वे भी हमारी तरह सांस लेते एवं छोड़ते हैं. आज देश इस बहुमुखी प्रतिभाशाली शख्सियत की 161 जन्मतिथि मना रहा है. आइये जानें इस महान वैज्ञानिक की जीवन गाथा.
दुनिया के इतिहास में अलग-अलग क्षेत्रों में कई महान वैज्ञानिकों ने अपना नाम दर्ज कराया है, लेकिन सर जगदीश चन्द्र बसु एकमात्र ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने भौतिकी, वनस्पति, जैविक जैसे क्षेत्रों में कई आविष्कारों को जन्म दिया.
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सेहत के कारण चिकित्सक नहीं बन सके
जगदीश चन्द्र बसु का जन्म 30 नवंबर 1858 को बंगाल (अब बांग्लादेश) में ढाका के फरीदपुर स्थित मेमन सिंह गांव में हुआ था. पिता भगवान चन्द्र बसु उप-मैजिस्ट्रेट थे. 11 वर्ष की आयु तक बसु ने गांव के ही विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की. उनकी शिक्षा एक बांग्ला विद्यालय में प्रारंभ हुई. उनके पिता का मानना था कि अंग्रेजी सीखने से पूर्व अपनी भाषा पर पूरी पकड़ होनी चाहिए. वे जिस बांग्ला विद्यालय में पढते थे, वहां उनके दो खास मित्र थे, एक मुस्लिम परिचारक का बेटा और दूसरा मछुआरे का बेटा था.
जिनके मुंह से वह अकसर पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियां सुनते थे. शायद इसी वजह से उनके भीतर प्रकृति की संरचना पर शोध करने की रुचि पैदा हुई. स्कूली शिक्षा के बाद उन्होंने कलकत्ता आकर सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया. बोस की जीव विज्ञान में भी गहरी रुचि थी. 22 वर्ष की युवावस्था में वह चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने लंदन चले गए. लेकिन निरंतर सेहत खराब होने के कारण मेडिकल लाइन छोड़कर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय से जुड़े. यहां उन्हें फिजिक्स के एक विश्वविख्यात प्रोफेसर फादर लाफोण्ट ने फिजिक्स पढ़ने के लिए प्रेरित किया.
पेड़-पौधों में भी जान होती है
बसु ने साबित किया कि पेड़-पौधों में भी जान होती है. इसे मापने वाले जिस यंत्र का उन्होंने आविष्कार किया उसे केस्कोग्राफ का नाम उन्होंने ही दिया, इस यंत्र से पौधों में होने वाली वृद्धि एवं उद्दीपन की प्रतिक्रियाओं को मापा जाता है. इसी संदर्भ में उनके द्वारा किया गया एक शोध का प्रसंग बहुत रोचक था. दरअसल उन्होंने एक पौधे को जहर का इंजेक्शन दिया. उन्हें विश्वास था कि पौधे के अंदर जहर जाते ही पौधा मुरझा जायेगा. लेकिन पौधा मुरझाया नहीं. बसु का चमत्कार देखने वहां इकट्ठे हुए लोगों ने बसु की खिल्ली उड़ाई. बसु जरा भी विचलित नहीं हुए.
उन्होंने सोचा कि अगर जहर भरे इंजेक्शन से पौधे को कोई नुकसान नहीं हुआ तो उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए. उन्हें शक हुआ कि शीशी में जहर की जगह कुछ और तो नहीं था. उन्होंने शीशी में बचा द्रव पी लिया. उन पर भी जहर का कोई असर नहीं हुआ.
तभी वह शख्स आया, जिससे उन्होंने जहर की शीशी खरीदी थी, उसने माफी मांगते हुए कहा कि वह नहीं चाहता था कि बसु का प्रयोग सफल हो, इसलिए उसने शीशी में जहर की जगह उसी रंग का दूसरा द्रव भर दिया. बोस ने पौधे को दुबारा असली जहर वाला इंजेक्शन दिया. जहर के प्रभाव में आते ही पौधा मुरझाने लगा. यह देख वहां उपस्थित लोगों ने हैट उतार कर बसु को सैल्यूट किया. और उनकी खिल्ली उड़ाने के लिए माफी मांगी. इसके बाद बसु ने वनस्पति पर कई महत्वपूर्ण आविष्कार किये.
रेडियो और सूक्ष्म तरंगों का परिचय देनेवाले पहले वैज्ञानिक
बसु ने विज्ञान के कई विभागों विषयों पर कई आविष्कार किया. उन्होंने माइक्रो वेव पर भी काफी काम किया. 1885 में उन्होंने रेडियो वेव के जरिये बारूद में विस्फोट करके दिखाया तो यह नजारा देखने वालों की आंखें चौंधिया गयीं. लेकिन इसके पहले कि वे इसे एक उन्नत रूप दे पाते, इसका श्रेय मार्कोनी ले गये. बसु दुनिया के पहले वैज्ञानिक थे, जिसने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों पर कार्य किया. वे भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे, जिन्होंने एक अमरीकन पेटेंट प्राप्त किया. उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है. उन्होंने कई विज्ञान कथाएं भी लिखी. उन्हें बंगाली विज्ञान कथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है.
अंग्रेजों की गलत नीति का विरोध
1885 में बसु भारत लौटे और प्रेसिडेंसी कॉलेज में बतौर भौतिकी के सहायक प्राध्यापक पढ़ाने लगे. उन दिनों भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिया जाता था. अंग्रेजों की इस गलत नीति का विरोध करते हुए उन्होंने तीन वर्षों तक बिना वेतन काम किया. इस वजह से उनकी सेहत खराब हो गयी.
उन पर काफी कर्ज चढ़ गया, जिसे चुकाने के लिये उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी, अंततः चौथे वर्ष बसु की जीत हुई. उन्हें पूरा वेतन दिया गया. यहीं पर बसु के छात्र रहे सतेन्द्र नाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री बने. 23 नवंबर 1932 में बसु ने अपने गिरिडीह स्थित पैतृक मकान में अंतिम सांस ली. साल 1997 में इस घर को बिहार सरकार ने विज्ञान भवन का नाम दे दिया.