Rajmata Jijabai Punyatithi 2021: जानें कैसे संघर्षों, विपत्तियों एवं त्रासदियों से जूझते हुए जीजामाता ने शिवाजी को छत्रपति बनाया?
‘शेरनी ही शेर पैदा करती है’, यह बात राजमाता जीजाबाई पर अक्षरशः लागू होती है, जिन्होंने अपने पुत्र शिवाजीजी को एक बहादुर छत्रपति के रूप में गढ़ा, संवारा. वह शिवाजी की माँ होने के साथ-साथ उनकी मित्र, मार्गदर्शक और प्रेरणास्त्रोत भी थीं.
‘शेरनी ही शेर पैदा करती है’, यह बात राजमाता जीजाबाई (Jijabai) पर अक्षरशः लागू होती है, जिन्होंने अपने पुत्र शिवाजीजी को एक बहादुर छत्रपति के रूप में गढ़ा, संवारा. वह शिवाजी की माँ होने के साथ-साथ उनकी मित्र, मार्गदर्शक और प्रेरणास्त्रोत भी थीं. उनका सारा जीवन साहस, संघर्ष और त्याग से भरा हुआ था, उन्होने जीवन भर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए कभी धैर्य नहीं खोया. अपने पुत्र ‘शिवा’ को वे संस्कार दिए, जिनके कारण शिवाजी हिंदू समाज के संरक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुए. आज सारा देश माता जीजाबाई की 347 वीं पुण्य-तिथि मना रहा है. आइये जानें उनके जीवन के प्रेरक हिस्सों को.
राजनीतिक सक्रियता
जीजाबाई का जन्म 12 जनवरी 1598 बुलढाणा जिले के सिंधखेड़ में हुआ था. उनके पिता लखुजी जाधव एक शक्तिशाली सामन्त थे. माता का नाम महालसाबाई था. वे बचपन से बहुत बहादुर एवं असाधारण व्यक्तित्व वाली महिला थीं. साल 1605 में काफी कम उम्र में उऩका विवाह दौलताबाद के राजा शाहजी भोसले के साथ हो गया था. विवाहोपरांत जीजामाता अपने पति की हर राजनीतिक गतिविधियों में सक्रियता से भाग लेती थीं. शाहजी ने तत्कालीन निजामशाही सल्तनत पर कब्जा कर वहां मराठा राज्य करने की कोशिश की, लेकिन मुगल और आदिलशाह के साथ मिल जाने से शाहजी को हार का सामना करना पड़ा. मुगलों से संधि की शर्त पर उन्हें अपने बड़े बेटे संभाजी के साथ दक्षिण के लिए कूच करना पड़ा. जाते जाते शाहजी ने पुणे की बागडोर जीजामाता को सौंपी. लेकिन अफजल खान के साथ एक युद्ध में शाहजी और संभाजी दोनों मारे गये. पति की मृत्यु के पश्चात परंपरानुसार जीजाबाई ने पति के साथ सती होने की कोशिश की लेकिन शिवाजी के अनुरोध पर उन्होंने अपना फैसला बदल दिया. यह भी पढ़ें: Rajamata Jijabai Death Anniversary 2021 Messages: राजमाता जीजाबाई की पुण्यतिथि आज, इन WhatsApp Stickers, Quotes, HD Images के जरिए करें उन्हें नमन
बहुमुखी व्यक्तित्व की स्वामिनी
पुणे की जिम्मेदारी मिलने के पश्चात जीजामाता शिवाजी के साथ पुणे आ गईं. क्योंकि पुणे पर कई राजाओं की नजरें थीं, वे जीजामाता को कमजोर मानकर बार-बार पुणे पर हमला करते, लेकिन राजामाता जीजाबाई दादोजी कोंडदेव की मदद से पुणे पर अपना कब्जा बरकरार रखा. इस दरम्यान एक तरफ जीजामाता पुणे की सुरक्षा के प्रति सतर्क रहतीं, साथ ही पुणे के विकास, राज्य के मामलों को संभालने, किसानों की मदद करने, विवादों को सुलझाने जैसी जिम्मेदारियां भी निभा रही थीं. इसके साथ ही शिवाजी के व्यक्तित्व को संवारने पर भी उनकी नजर थी. वे बालपन में शिवाजी को श्रीराम एवं श्रीकृष्ण के पराक्रम, भीम एवं अर्जुन की वीरता के किस्से सुनातीं और उन्हें उन जैसा बनने के लिए प्रेरित करती रहती थीं. 1666 में, शिवाजी राज्य के मामलों का प्रबंधन करने के लिए आगरा चले गए. उऩके जाने के पश्चात जीजाबाई के जीवन को तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. जिसे उऩ्होंने चुपचाप सहा. वस्तुतः पति की मृत्यु से उन्हें गहरा सदमा लगा था.
माता जीजाबाई का निधन
शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 12 दिन बाद 17 जून 1674 के दिन रायगढ़ के पचड़ गांव में जीजामाता ने अंतिम सांस ली. ऐसा लग रहा था कि मानों मौत भी छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा हो. उनकी मृत्यु शिवाजी के लिए तो अपूरणीय क्षति ही थी. मराठों को भी इसका गहरा आघात लगा था. क्योंकि जीजामाता जनता का बहुत ध्यान रखती थीं.