Kumbh Mela 2019: जानिए कौन हैं आदि शंकराचार्य और कैसे हुई शंकराचार्यों की उत्पत्ति ?

प्रयागराज कुंभ में इन दिनों शंकराचार्यों का मेला लगा हुआ है. ये सभी शंकराचार्य तमाम संत समाज एवं श्रद्धालुओं के बीच ईश्वर तुल्य माने जाते हैं. ऐसे में सर्वप्रथम आदि शंकराचार्य के संदर्भ में जानना आवश्यक है. कौन थे आदि शंकराचार्य और उन्होंने किस तरह से चार मठ और चार शंकराचार्यों को विस्थापित किया था.

कुंभ मेला 2019 (Photo Credits: Facebook/File Image)

Kumbh Mela 2019: प्रयागराज कुंभ (Prayagraj Kumbh) में इन दिनों शंकराचार्यों (Shankaracharya) का मेला लगा हुआ है. ये सभी शंकराचार्य तमाम संत समाज एवं श्रद्धालुओं के बीच ईश्वर तुल्य माने जाते हैं, लेकिन साथ ही इनकी संख्या को लेकर कुछ संशय भी है. क्योंकि माना जाता है कि आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) ने संपूर्ण भारत में मात्र चार मठों के साथ चार शंकराचार्यों को स्थापित किया. जबकि वर्तमान में कहा जा रहा है कि कुल 24 शंकराचार्य है. ऐसे में सर्वप्रथम आदि शंकराचार्य के संदर्भ में जानना आवश्यक है. कौन थे आदि शंकराचार्य और उन्होंने किस तरह से चार मठ और चार शंकराचार्यों को विस्थापित किया था.

केरल में एक गांव है कालाडी. 788 ईसा पूर्व में यहां के नंबूदरी ब्राह्मण अति विद्वान शिवगुरु के घर पुत्र पैदा हुआ. चूंकि लंबी प्रतीक्षा और भगवान शिव की अथक आराधना के बाद पुत्र पैदा हुआ था, इसलिए उसका नाम शंकरा रखा. शंकरा तीन वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया. शंकरा बहुत मेधावी छात्र थे. तीन वर्ष की आयु में वह काव्य पुराण आदि समझने लगे थे.

गुरुकुल में पढ़ते हुए पांच वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतिहास-पुराण, महाभारत और चारों वेदों पर अच्छी पकड़ बना ली थी. शिक्षा पूरी कर घर वापस लौटने के कुछ ही दिनों के अंतराल पर शंकरा के मन में संन्यास धारण करने की इच्छा प्रबल हुई. पति से विछुड़ने के बाद मां इकलौते बेटे को खोना नहीं चाहती थी, लेकिन अंततः मां ने उन्हें संन्यास धारण करने की अनुमति दे दी. यह भी पढ़ें: Kumbh Mela 2019: कल्पवास करने से होती है मोक्ष की प्राप्ति, तपस्वियों जैसा कठिन जीवन जीते हैं कल्पवासी

कैसे बने संन्यासी शंकरा?

बालक शंकरा गोविंदा भागवतपदा से संन्यास की दीक्षा ली. आध्यात्म के प्रति लगाव और जिज्ञासा को देखते हुए गोविंदा भागवतपदा जी ने शंकरा को उपनिषदों का अर्थ, भाव एवं ब्रह्म के गूढ़ रहस्य से परिचित कराया. गुरु गोविंदा से आत्मा-परमात्मा एवं सृष्टि के सत्य को समझने के पश्चात शंकरा वेदांत के प्रचार-प्रसार हेतु काशी पहुंचे. कहते हैं कि एक दिन काशी में गंगा के किनारे उनके मार्ग में एक चांडाल आ गया. उन्होंने उसे मार्ग से हटने का निर्देश दिया. चाण्डाल ने पूछा -प्रभु आप किसे हटाना चाहते हैं, चांडाल के देह को या उसकी आत्मा को. तत्पश्चात चाण्डाल ने शंकरा को मानव देह और आत्मा के गूढ़ रहस्य को समझाया.

शंकर ने चाण्डाल के तार्किक ज्ञान को देखते हुए उसे अपना गुरु स्वीकार लिया. शीघ्र ही शंकरा उस मोड़ पर पहुंच गये, जब उनके ज्ञान और तर्कों के सामने बड़े से बड़ा विद्वान टिक नहीं सकता था.16 वर्ष की आयु में वह प्रयाग के लिए निकले। यहां उन्होंने प्रसिद्ध कर्मकाण्डी कुमारिल भट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित कर अपना शिष्य बनाया. प्रयाग से वह मिथिला पहुंचे. वहां के प्रकाण्ड विद्वान मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया. मगर यहां शंकरा मंडन मिश्र की पत्नी शारदा से शास्त्रार्थ करते हुए गृहस्थ आश्रम के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके. तब शंकरा ने कामकला का ज्ञान अर्जित कर शारदा को पराजित किया. मण्डन मिश्र शंकरा के शिष्य बन गये। यहीं से शंकरा शंकराचार्य बन गये

कैसे किया संन्यासी ने मां का अंतिम संस्कार?

अमूमन संन्यास धर्म स्वीकार करने के पश्चात संन्यासी का परिवार से सारे संबंध खत्म हो जाते हैं, लेकिन अपनी जन्मदात्री माँ की मृत्यु के पश्चात शंकराचार्य ने अपनी मां का पूरे विधि विधान से अंतिम संस्कार किया. इसके पश्चात शंकराचार्य धर्म और आध्यात्म के प्रचार प्रसार के लिए संपूर्ण भारत का भ्रमण किया. यह भी पढ़ें: Kumbh Mela 2019: कुंभ मेले में स्नान के बाद जरूर करें लेटे हुए हनुमान जी के दर्शन, जिनकी स्वयं मां गंगा करती हैं चरण वंदना

शंकराचार्यों की परंपरा का प्रारंभ

संपूर्ण भारत भ्रमण के दौरान शंकराचार्य ने पाया कि भारत में आध्यात्मिक एकता में काफी बिखराव है, जिससे सनातन धर्म को लेकर काफी दुविधाएं हैं. उन्होंने इसे एक सूत्र में पिरोने के लिये भारत के चारों दिशाओं में एक-एक मठ की स्थापना की.

मठों के कठिन नियम

शंकराचार्य द्वारा रचित ‘मठाम्नाय ग्रंथ’ में उल्लेखित है कि शंकराचार्य किसी पीठ के अधिपति न बनकर अपने चारों शिष्यों तोटक (ज्योतिर्मठ) , सुरेश्वराचार्य (श्रृंगेरीमठ), पद्मपाद (गोवर्धन मठ) एवं हस्तमालक (शारदा मठ) को पीठ की जिम्मेदारी सौंपी. इन पीठों में परंपरागत एक-एक पीठाधीश होता है, जिसे शंकराचार्य के नाम से पुकारा जाता है. इन पीठों के निर्माण के पश्चात शंकराचार्य आदि शंकराचार्य कहलाये. यह भी पढ़ें: Kumbh Mela 2019: कुंभ मेले में जाएं तो ललिता देवी शक्तिपीठ के दर्शन करना न भूलें, जहां गिरी थीं माता सती के हाथों की 3 उंगलियां

आदि शंकराचार्य ने ‘मठाम्नाय ग्रंथ’ में पीठाधीश की योग्यता निर्धारित करते हुए लिखा कि पवित्र इंद्रियों, वेद और वेदांग तथा सभी शास्त्रार्थो को जानने वाला व्यक्ति ही पीठाधीश एवं शंकराचार्य बन सकता है. उन्होंने सभी पीठाधीशों को निर्देश दिया कि वे किसी एक स्थान पर टिक कर न रहें। अपने क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए धर्म, संस्कृति एवं ज्ञान के विकास को सुनिश्चित करें.

इस तरह उन्होंने संपूर्ण भारत में आध्यात्म की एक अनोखी और संगठित पृष्ठभूमि तैयार की. हर हिंदुस्तानी इन मठों के दर्शन करना चाहता है. ये मठ भारत की एकता को अनन्त काल तक सुव्यवस्थित एवं सुद्दढ़ बनाते हैं. बताया जाता है कि सन 820 ईसा पूर्व पर केदारनाथ के समीप 32 वर्ष की अल्पायु में आदि शंकराचार्य ने देह त्याग दिया.

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