Holi 2019: राधा के ननिहाल मुखराई में आज भी बरकरार है चरकुला नृत्य का जादू, जानिए इससे जुड़ी दिलचस्प कहानी
मुखराई चरकुला नृत्य इस पावन ब्रजभूमि की सबसे दिव्य एवं अनूठी कला है. होली के अगले दिन रात्रि को जब महिलाएं इस नृत्य का प्रदर्शन करती हैं तो समस्त ब्रज भूमि जैसे रौशन हो उठती है.
Holi 2019: आस्था और विश्वास के सहारे लोकप्रिय होती परंपराएं इतिहास के पन्नों में जगह पाने के लिए मोहताज नहीं होती, बल्कि अपना इतिहास स्वयं लिखती हैं. मथुरा (Mathura) की ब्रजभूमि (Brij Bhoomi) ऐसी तमाम आस्था और विश्वास का अनमोल संग्रह है. इसी संग्रह की एक कड़ी है मुखराई चारकुला नृत्य (Mukhrai Charkula Dance). मुखराई चरकुला नृत्य इस पावन ब्रजभूमि की सबसे दिव्य एवं अनूठी कला है. होली के अगले दिन रात्रि को जब महिलाएं इस नृत्य का प्रदर्शन करती हैं तो समस्त ब्रज (Brij) भूमि जैसे रौशन हो उठती है.
पारंपरिक परिधानों से सजे पुरुषों के नगाड़ों एवं ढोल की थाप पर महिलाएं मिट्टी के सात घड़े और उनके ऊपर जलते दीयों के साथ पूरे लय एवं सुर में नृत्य करती हैं, तो ब्रज की एक अलग ही छटा नजर आती है. आखिर क्या है चारकुला नृत्य की कहानी..
राधा और चरकुला का नृत्य का संबंध
चारकुला नृत्य से श्रीकृष्ण (Shri Krishna) की प्रेमिका राधा (Radha) का गहरा नाता है. मान्यता है कि राधा का जन्म ब्रज में गोवर्धन के समीप स्थित रावल गांव पिता वृषभानु और माता कीरत के घर पर हुआ था. राधा के पैदा होने की खबर जैसे ही पास के गांव मखुराई में रह रही राधा की नानी मुखरा देवी को मिली, तो वे खुशी से झूम उठीं. उनकी दीवानगी का आलम यह था कि उन्होंने पास रखे रथ के एक पहिये पर 108 दीप सजा कर उन्हें प्रज्जवलित किया और उसे अपने सर पर रखकर नृत्य करने लगीं. बाद में मुखरा देवी की यही दीवानगी पहले शौक बनी फिर चारकुला नृत्य की एक कला के रूप में मुखरित हुई. गौरतलब है कि मुखरा देवी के नाम से ही गांव का नाम मुखराई पड़ा.
दीवानगी परंपरा बन गयी
बताया जाता है कि मुगलकाल में चरकुला की निरंतर गिरती लोकप्रियता को बचाने के लिए इसी मंडल के एक गांव के श्री प्यारेलाल बाबा ने इसे एक नया रूप देने की कोशिश की. सन 1845 में उन्होंने लकड़ी का एक घेरा बनवाकर इस पर लोहे की एक थाल सजाई. इस थाल में मिट्टी के 108 दीपक लगवा कर पांच मंजिला चरकुला बनवाया. इसके पश्चात रामादेई और छीतो देवी ने चरकुला पर लगे 108 जलते दीपों को प्रज्जवलित कर उन्हें अपने सिर पर रख मदन मोहन जी मन्दिर के निकट नृत्य किया था. इसके पश्चात इस लोकनृत्य परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सन् 1930 से 1980 तक लक्ष्मी देवी और असर्फी देवी ने जगह-जगह यह नृत्य किया. यह भी पढ़ें: Holi 2019: मशहूर है मथुरा में आयोजित होने वाला बलदाऊ जी का हुरंगा, जहां देवर-भाभी के बीच खेली जाती है कपड़ा फाड़ होली
राधा के ननिहाल मुखराई में आज भी है चरकुला का जादू
द्वापर युग की पहचान बन चुके चरकुला नृत्य की परंपरा आज भी होली के अगले दिन राधारानी के ननिहाल ग्राम मुखराई में जारी है. आज भी ढोल, मृदंग की थाप एवं हुरियारों द्वारा गाये लोकगीतों पर मुखराई की ग्रामीण महिलाएं 108 दीपों के साथ वजनी चरकुला को सिर पर रखकर नृत्य करती हैं तो दर्शक मंत्र मुग्ध होकर रह जाते हैं. इसे देखने के लिए दूर-दराज से दर्शक यहां इकट्ठे होते हैं.
ऐसा लगता है मानों चरकुला पर टिमटिमाते दीप भी मंत्र-मुग्ध होकर नर्तकी के कदमों की थाप पर झूम रहे हों. धीरे-धीरे इस नृत्य की लोकप्रियता देश के विभिन्न अंचलों से होते हुए विदेशों में भी पहुंच चुकी है. विदेशों में ‘भारत महोत्सव’ अथवा अन्य राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित रंगारंग कार्यक्रमों में दर्शकों को चरकुला के प्रदर्शन का विशेष रूप से इंतजार रहता है. बढ़ती लोकप्रियता के साथ चरकुला नृत्य के कलाकारों को विशेष रूप से विदेशों में बुलाया जाने लगा. आज चरकुला नृत्य रोजगार का बड़ा जरिया बन चुका है.
अगर कहा जाये कि ब्रजभूमि पर लट्टमार, छड़ीमार, और फूलों आदि की होली के बाद चरकुला नृत्य होली की संपूर्णता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.