Chanakya Neeti: जिसने रति-क्रिया का सुख नहीं भोगा! उसका ना इस लोक में भला, ना परलोक में! जानें चाणक्य ने ऐसा क्यों कहा?
‘मानव जीवन अत्यंत दुर्लभ है’, इस जीवन पाने के लिए जीव को अनगिनत योनि में जन्म लेकर कष्ट भोगने के बाद ही मनुष्य योनि में जन्म लेने का अवसर मिलता है. इस वाक्य को आचार्य चाणक्य ने भी अपनी नीतियों में पारिभाषित किया है.
‘मानव जीवन अत्यंत दुर्लभ है’, इस जीवन पाने के लिए जीव को अनगिनत योनि में जन्म लेकर कष्ट भोगने के बाद ही मनुष्य योनि में जन्म लेने का अवसर मिलता है. इस वाक्य को आचार्य चाणक्य ने भी अपनी नीतियों में पारिभाषित किया है. आचार्य चाणक्य नीति के 16वें अध्याय में इस श्लोक के माध्यम से अपनी बात कहने की कोशिश की है.
न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धमोऽपि नोपार्जितः।
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितम्,
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।।
अर्थात जो प्राणी इस संसार के मोहमाया की जाल में फंसे हुए हैं और इस मायारूपी जाल से बाहर निकलने के लिए न तो वेदों का पाठ करते, न ईश्वर की उपासना करते हैं, और ना ही अपने लिए स्वर्ग के द्वार खोलने के लिए धर्मरूपी धन का संग्रह करते हैं, न स्वप्न में स्त्री के सुंदर स्तनों व जंघाओं का आलिंगन करते हैं, वे लोग माता के यौवन रूपी वृक्ष को काटने वाले कुल्हाड़े की तरह होते हैं. यह भी पढ़ें : Tulsidas Jayanti 2024 Wishes: तुलसीदास जयंती की बधाई! अपनों संग शेयर करें ये हिंदी WhatsApp Stickers, GIF Greetings, HD Images और Wallpapers
आचार्य चाणक्य ने वेद-पुराण का हवाला देते हुए कहा है कि वेद आदि धर्म शास्त्रों में मानव जीवन अत्यंत दुर्लभ बताया गया है. लाखों योनि में जन्मों के कष्ट भोगने के बाद ही जीवात्मा को मानव योनि में उत्पन्न होने का दिव्य सौभाग्य प्राप्त होता है. इसलिए इस जन्म को विषय वासनाओं में व्यर्थ गंवाने की बजाय मोक्ष प्राप्ति के लिए इसका उपयोग करना चाहिए. मनुष्य को मोक्ष तभी प्राप्त हो सकता है, जब उसका लोक के साथ साथ परलोक भी सुधर जाए, इसी उक्ति के संदर्भ में चाणक्य ने उपर्युक्त श्लोक द्वारा लोक परलोक को सुधारने की बात कही है. जिसने लोक को सुधारने के लिए पर्याप्त धन का संग्रह नहीं किया है, जो सांसारिक मायाजाल से मुक्त होने के लिए ईश्वर भक्ति नहीं करता, जिसने कभी रति क्रिया का स्वाद नहीं चखा हो, ऐसे मनुष्य का ना तो लोक में भला होता है, औऱ न ही परलोक सुधर पाता है. ऐसे मनुष्य माता के यौन रूपी वृक्ष को कुल्हाड़ी से काटने के समान कार्य करते हैं. कहने का आशय उनके जन्म से ना माता को उनसे कोई सुख प्राप्त होता है, और ना ही कोई सार्थक श्रेय मिलता है, इसलिए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को इस लोक में सांसारिक सुखों का यथावत भोग करना चाहिए, लेकिन साथ ही धार्मिक कार्यों द्वारा परलोक को सुधारने के लिए भी प्रयासरत रहना चाहिए.