कश्मीरी पंडितों की नजर में फारूक अब्दुल्ला क्यों हैं विलेन नंबर 1?
महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला (पीटीआई फाइल)

नई दिल्ली, 19 मार्च : कश्मीरी पंडितों का बहुमत तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को उनके खिलाफ किए गए अत्याचारों के मुख्य अपराधी के रूप में देखता है. उनका मानना है कि अल्पसंख्यक समुदाय के सामूहिक पलायन और घाटी में आतंकवाद के आगमन से पहले की सभी घटनाओं के लिए वह जिम्मेदार हैं. फारूक अब्दुल्ला 7 नवंबर 1986 से 18 जनवरी 1990 तक मुख्यमंत्री थे. यह वह समय था, जिसमें कश्मीर धीरे-धीरे नीचे गिर रहा था और खुफिया एजेंसियों द्वारा चेतावनी के बावजूद उदासीनता दुर्गम लग रही थी. फरवरी 1986 में, दक्षिण कश्मीर में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हमले हुए. मुस्लिम भीड़ ने कश्मीरी पंडितों की संपत्तियों और मंदिरों को लूटा या नष्ट कर दिया. फारूक अब्दुल्ला के बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह तब मुख्यमंत्री थे. वह हिंसा को रोकने में विफल रहे और तबाही को रोकने के लिए सेना को बुलाया गया.

उनकी सरकार को मार्च 1986 में तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने बर्खास्त कर दिया था. यह बताया गया कि मुफ्ती सईद, (जो तब कांग्रेस के नेता थे) ने हिंसा को उकसाया था, क्योंकि वह मुख्यमंत्री बनने और शाह की जगह लेने के इच्छुक थे. तब देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे, जिन्होंने बाद में सईद को राज्यसभा में सीट दी और उन्हें केंद्रीय मंत्री भी बनाया. नवंबर 1986 में, महीनों की व्यस्त बातचीत के बाद, राजीव गांधी और फारूक अब्दुल्ला ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और बाद में मुख्यमंत्री के रूप में बहाल कर दिया गया. यह वह अवधि थी, जिसने नरसंहार को देखा. अखिल भारतीय कश्मीरी समाज (एआईकेएस) के अध्यक्ष रमेश रैना ने कहा, "यह 1986-1989 की अवधि कश्मीर के इतिहास में महत्वपूर्ण है, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है. पलायन रातोंरात नहीं हुआ. इसके लिए पूरी तैयारी थी. अब्दुल्ला ने इस समझौते से देश को भ्रमित किया. आप कह सकते हैं कि वह अक्षम थे और उनका कोई नियंत्रण नहीं था या आप कह सकते हैं कि वह इसमें पूरी तरह से शामिल थे, सब कुछ जानते थे और चीजों को होने दिया." यह भी पढ़ें : RLD प्रदेश अध्यक्ष डॉ. मसूद अहमद का इस्तीफा, बोले- आंतरिक तानाशाही से गठबंधन फ्लॉप, टिकट बेचने का भी लगाया आरोप

पनुन कश्मीर के नेता रमेश मनवत ने कहा, "मुस्लिम सम्मेलन, 'नेशनल' सम्मेलन का मूल अवतार, 1930 के दशक में कश्मीर में मुसलमानों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए एक समूह के रूप में शुरू हुआ. तत्कालीन महाराजा हरि सिंह के खिलाफ अपना रुख मोड़ दिया. एक निर्दलीय के सपने को पोषित किया. कश्मीर (1940 के दशक में 'कश्मीर छोड़ो' के उनके आह्वान के बाद) - 1950 के दशक में इसके संस्थापक शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के लिए अग्रणी अल्पसंख्यकों के प्रति नेशनल कॉन्फ्रेंस के ²ष्टिकोण में सांप्रदायिक मुस्लिम मानसिकता और विसंगतियों की विरासत - कश्मीरी पंडित और 'भारत के विचार' का प्रतिनिधित्व किया, जिसे फारूक अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के सीएम के रूप में अपने लंबे शासनकाल के दौरान आगे बढ़ाया." "फारूक अब्दुल्ला, जमीन पर होने वाली घटनाओं के एक मौन समर्थक के रूप में गोल्फ खेलने और बॉलीवुड अभिनेत्रियों के साथ व्यस्त थे, अंत में लंदन भागने का फैसला किया और वो भी तब कश्मीर जल रहा था और जब पंडितों का नरसंहार हो रहा था."

जम्मू-कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक, शेष पॉल वैद ने 16 मार्च को ट्वीट किया, "शायद बहुत ही कम लोगों को ये पता होगा कि जम्मू-कश्मीर पुलिस ने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा प्रशिक्षित किए गए आतंकियों के पहले जत्थे को गिरफ्तार कर लिया था. उन्हें रिहा कर दिया गया और उन्हीं आतंकवादियों ने बाद में जम्मू-कश्मीर में कई आतंकवादी संगठनों का नेतृत्व किया." वैद 31 दिसंबर, 2016 से 6 सितंबर, 2018 तक जम्मू-कश्मीर के डीजीपी थे. उन्होंने अपने ट्वीट में आतंकियों के नाम बताए हैं, "उनमें त्रेहगाम का मोहम्मद अफजल शेख, रफीक अहमद अहंगर, मोहम्मद अयूब नजर, फारूक अहमद गनी, गुलाम मोहम्मद गुजरी, फारूक अहमद मलिक, नजीर अहमद शेख और गुलाम मोही-उद-दीन तेली शामिल हैं. क्या यह 1989 की केंद्र सरकार की जानकारी के बिना संभव था?"

तथ्य यह है कि खुफिया एजेंसियां बार-बार कश्मीरियों, खासकर युवाओं की भीड़ के बारे में सतर्क कर रही थीं, जो हथियारों के प्रशिक्षण के लिए पीओके में जा रहे थे, काफी हद तक अनसुना था. बहुत सारे अपहरण हो रहे थे, खासकर सरकारी कर्मचारियों के, उनमें से सबसे ज्यादा कश्मीरी पंडित थे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई. स्थानीय अखबारों में खुलेआम धमकियां दी गईं, पोस्टर चिपकाए गए और हिट लिस्ट बनाई गईं, लेकिन प्रशासन बेजान नजर आया. तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को 20 अप्रैल 1990 के पत्रों के माध्यम से स्थिति का उल्लेख किया था. जगमोहन ने पत्र में लिखा, "क्या मैं आपको याद दिला दूं कि 1988 की शुरूआत से, मैंने कश्मीर में उठने वाले तूफान के बारे में आपको 'चेतावनी के संकेत' भेजना शुरू कर दिया था?, लेकिन आपके और आपके आस-पास के सत्ताधारियों के पास इन संकेतों को देखने के लिए ना तो समय था, ना झुकाव, ना ही ²ष्टि. वे इतने स्पष्ट कि उनकी उपेक्षा करना सच्चे ऐतिहासिक अनुपात के पाप करना था."

उनका डर सच हो गया और अल्पसंख्यकों और नरमपंथियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा, जबकि फारूक अब्दुल्ला जल्द ही घाटी से लंदन के लिए रवाना हो गए. रमेश रैना ने कहा, "19 जनवरी को 50 फीसदी कश्मीरी पंडित भाग गए. यह अचानक नहीं हुआ. फारूक अब्दुल्ला सब जानते हैं. उन्हें जवाब देना होगा." "जब घाटी जल रही थी, तब फारूक अब्दुल्ला लंदन भाग गए. वह अल्फाटा, जेकेएलएफ के संस्थापक सदस्य थे. जब वह कुर्सी पर थे, तब एलओसी के जरिए युवाओं को पाकिस्तान ले जाया जा रहा था. उसकी जानकारी के बिना यह कैसे संभव था?" उन्होंने पूछा, "आतंकवादियों को फिर जेल से क्यों छोड़ा जा रहा था? उन्होंने रातोंरात इस्तीफा क्यों दिया और अगले दिन पलायन हुआ? यह सब योजनाबद्ध था, क्योंकि तब सब कुछ उनके सिर पर आ गया था. इसलिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया. लेकिन क्या पलायन इसके पीछे की साजिश के बिना हो सकता था?" जब फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर में थे, मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्र में गृह मंत्री थे. गृह मंत्री के रूप में उनकी भूमिका पर भी समुदाय सवाल उठाता है. यह भी पढ़ें : RLD प्रदेश अध्यक्ष डॉ. मसूद अहमद का इस्तीफा, बोले- आंतरिक तानाशाही से गठबंधन फ्लॉप, टिकट बेचने का भी लगाया आरोप

ग्लोबल कश्मीरी पंडित डायस्पोरा के प्रमुख सुरिंदर कौल ने कहा, "हमें कश्मीर से भागने के लिए मजबूर किए जाने के बाद, हमने विरोध प्रदर्शन किया. मुझे 1990 में तत्कालीन गृह मंत्री मुफ्ती सईद के साथ एक बैठक याद है. उन्हें बस इतना कहना था कि 'हां, यह ठीक नहीं है'. "उनके पास हमारे सवालों का कोई जवाब नहीं था. हमने उनसे कहा, 'स्थानीय पुलिस और खुफिया नेटवर्क क्यों गायब हो गए थे. कोई अपना काम क्यों नहीं कर रहा था? कोई सुरक्षा क्यों नहीं थी'. लेकिन वह चुप रहे. उस दिन मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश की राज्य और केंद्रीय पावर व्यवस्था चरमरा गई है और हमारी मदद करने वाला कोई नहीं है."

कौल ने कहा, "फारूक अब्दुल्ला के दोहरे मापदंड हैं. वह हमेशा दिल्ली में कुछ बोलते हैं और कश्मीर में कुछ. उन्होंने कभी सुशासन नहीं दिया. उन्होंने अभिजात वर्ग की रक्षा की और आम लोगों के लिए कभी काम नहीं किया. अपनी जागीर को जीवित रखने के लिए, उन्होंने समुदायों को विभाजित किया. जब कश्मीरी पंडितों को मारा जा रहा था, अपंग किया जा रहा था, महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जा रहा था, लूटपाट और आगजनी दिन का क्रम बन गया था, वह कहां थे." कई बार ऐसा भी हुआ है, जब फारूक अब्दुल्ला को कश्मीरी पंडितों की नाराजगी का खामियाजा भुगतना पड़ा था. 2019 में, जब उन्होंने तीर्थ यात्रा पर श्रीनगर आए कश्मीरी पंडितों के एक समूह से मिलने की कोशिश की, तो उनके खिलाफ नारे लगाने के बाद उन्होंने कदम पीछे खींच लिये. कश्मीरी पंडितों को लगता है कि अगर फारूक अब्दुल्ला ने कड़े कदम उठाए होते, तो कश्मीर आतंकवाद की चपेट में नहीं आता और अल्पसंख्यकों को ना सताया जाता और ना ही जबरन बाहर किया जाता. समुदाय जवाब मांग रहा है और चाहता है कि एक न्यायिक आयोग का गठन किया जाए और फारूक अब्दुल्ला की जांच की जाए.