लोकसभा स्पीकर को लेकर एनडीए में खींचतान, टीडीपी इसे लेने पर अड़ी
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

18वीं लोकसभा में किसी पार्टी को बहुमत हासिल नहीं हुआ. एनडीए की सरकार जरूर बनी, लेकिन खंडित जनादेश की स्थिति में स्पीकर की भूमिका बेहद अहम होती है. बीजेपी और उसके घटक दलों, खासकर टीडीपी में इस पद को लेकर कश्मकश जारी है.भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार भले ही बन गई हो, मंत्रियों के विभाग भी बंट गए हों लेकिन स्पीकर के पद को लेकर एनडीए के घटक दलों में खींचतान जारी है. खासकर संख्याबल के हिसाब से एनडीए में दूसरा सबसे बड़ा घटक दल टीडीपी इस पद को लेने के लिए पूरा दबाव बनाए हुए है.

संसद का पहला सत्र 24 जून से शुरू होने वाला है. आठ दिन तक चलने वाले इस सत्र में 26 जून को अध्यक्ष का चुनाव होगा. चुनाव से पहले इस पद को लेकर चर्चाएं न सिर्फ एनडीए के घटक दलों के बीच चल रही हैं बल्कि विपक्ष भी इस बात पर जोर दे रहा है कि यह पद एनडीए के घटक दलों के पास ही जाना चाहिए, न कि बीजेपी के.

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बीजेपी के लिए सहयोगी दलों की अनदेखी आसान नहीं

चूंकि पिछले दो चुनावों में बीजेपी को अकेले ही पूर्ण बहुमत हासिल था, इसलिए इस पद के लिए घटक दल न तो दबाव बनाने की स्थिति में थे और न ही बीजेपी ने यह पद उन्हें दिया ही. लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 में बहुमत से 31 सीटें पीछे रह गई बीजेपी के लिए घटक दलों को नजरअंदाज कर पाना आसान नहीं है, वो भी दूसरे सबसे बड़े घटक दल टीडीपी को, जिसके पास लोकसभा में 16 सांसद हैं.

हालांकि एनडीए के तीसरे सबसे बड़े घटक दल जनता दल (यूनाइटेड) ने स्पष्ट कर दिया है कि वो किसी भी फैसले को स्वीकार करेगी लेकिन आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी के रुख को देखते हुए ऐसा नहीं लग रहा है कि वो भी जनता दल (यू) की तरह मान जाएगी.

टीडीपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता पट्टाभि राम कोमारेड्डी ने मीडिया से बातचीत में स्पष्ट किया है कि स्पीकर का पद उसी को मिलेगा जिसके नाम पर सर्वसम्मति होगी. उनका कहना था, "एनडीए के सहयोगी दल जब एक साथ बैठेंगे तो यह तय कर लेंगे कि स्पीकर पद के लिए हमारा उम्मीदवार कौन होगा. आम सहमति बनने के बाद ही उम्मीदवार उतारा जाएगा और टीडीपी सहित सभी सहयोगी उम्मीदवार का समर्थन करेंगे.”

बताया जा रहा है कि स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के पद के लिए रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के घर पर एनडीए के घटक दलों की बैठक हो चुकी है लेकिन उस बैठक में क्या हुआ, इसके बारे में कुछ भी पता नहीं चल सका है.

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राजनीतिक गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि बीजेपी निवर्तमान स्पीकर और राजस्थान की कोटा-बूंदी सीट से लगातार तीसरी बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले ओम बिड़ला को एक बार लोकसभा अध्यक्ष बना सकती है. ओम बिड़ला पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की खास पसंद बताए जाते हैं लेकिन एनडीए के घटक दलों के बीच उनके नाम पर सहमति बन पाएगी, इसके आसार कम ही दिख रहे हैं.

स्पीकर पद के लिए क्यों अड़ी है टीडीपी?

इसके अलावा, एक बात यह भी सामने आ रही है कि टीडीपी के अड़ियल रुख को देखते हुए बीजेपी पार्टी की आंध्र प्रदेश इकाई की अध्यक्ष डी पुरंदेश्वरी का नाम भी आगे बढ़ा सकती है. पूर्व केंद्रीय मंत्री पुरंदेश्वरी चंद्रबाबू नायडू की पत्नी नारा भुवनेश्वरी की बहन हैं. पुरंदेश्वरी उस वक्त चंद्रबाबू नायडू के साथ खड़ी थीं जब नायडू पर अपने ससुर एनटी रामाराव का तख्तापलट करने का आरोप लगा था और इसके लिए उनकी आलोचना हो रही थी.

पारिवारिक रिश्ते अपनी जगह हैं, पुरंदेश्वरी हैं तो बीजेपी की. ऐसे में यह तो हो सकता है कि उन्हें डिप्टी स्पीकर बना दिया जाए लेकिन स्पीकर का पद तो टीडीपी अपने पास ही रखना चाहेगी. हालांकि एक संभावना ये भी है जताई जा रही है कि स्थिति ज्यादा प्रतिकूल आ जाएगी और टीडीपी बीजेपी के स्पीकर को नहीं स्वीकार करेगी तो उस स्थिति में शायद बीजेपी यह पद जेडीयू को दे दे.

बहरहाल, विपक्षी दल भी इस बारे में बीजेपी को उस परंपरा की भी याद दिला रहे हैं कि स्पीकर का पद यदि सत्ता पक्ष का हो तो डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष के पास रहता है. इसी स्थिति में स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के नाम पर आम सहमति बनती है. लेकिन 2019 में तो बीजेपी ने यह पद किसी को दिया ही नहीं. पर इस बार ऐसा शायद न हो.

एक बड़ा सवाल ये है कि आखिर टीडीपी इस पद को लेकर इतना अड़ियल रुख क्यों अपनाए हुए है. तो इसका कारण स्पीकर के पद की अहमियत है और वो भी गठबंधन सरकार की स्थिति में जब किसी भी एक दल के पास पूर्ण बहुमत न हो. विपक्षी दल यानी इंडिया गठबंधन के सहयोगी दल भी टीडीपी और जेडीयू को इसके लिए लगातार आगाह कर रहे हैं.

इंडिया गठबंधन भी तैयारी में है!

शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) के नेता संजय राउत तो यहां तक कह चुके हैं कि यदि टीडीपी के स्पीकर पद के उम्मीदवार को एनडीए समर्थन नहीं करती है तो इंडिया गठबंधन समर्थन देने को तैयार है. हालांकि इंडिया गठबंधन की ओर से इस बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं आई है.

वहीं, कांग्रेस नेता और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एनडीए के घटक दलों को बीजेपी के पिछले दस साल का इतिहास याद दिलाते हैं और शायद यही वजह है कि टीडीपी इस पद को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है.

गहलोत का कहना है, "टीडीपी और जेडीयू को महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा, मणिपुर जैसे राज्यों में सरकारों को गिराने के बीजेपी के षडयंत्र को नहीं भूलना चाहिए. इनमें से कई राज्यों में तो स्पीकर की भूमिका के कारण ही सरकारें गिरीं और पार्टियां टूटीं. यहां तक कि साल 2019 में टीडीपी के 6 में से 4 राज्यसभा सांसद बीजेपी में शामिल हो गए थे, तब टीडीपी कुछ भी नहीं कर पाई थी. इसलिए यदि बीजेपी लोकसभा स्पीकर का पद अपने पास रखती है तो टीडीपी और जेडीयू को अपने सांसदों की हॉर्स ट्रेडिंग होते देखने के लिए तैयार रहना चाहिए.”

अतीत की बड़ी मिसालें

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब एनडीए सरकार थी, उस वक्त भी स्पीकर का पद एनडीए के सहयोगी दलों के ही पास था और बाद में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए-1 सरकार में भी यह पद यूपीए के सहयोगी दल सीपीआई (एम) के पास था. एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि साल 1999 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार जब सिर्फ एक वोट से गिर गई थी, उस वक्त स्पीकर थे जीएमसी बालयोगी और वो भी टीडीपी के ही सांसद थे.

इस एनडीए सरकार को दक्षिण भारत की दो प्रमुख पार्टियों एआईएडीएमके और टीडीपी का समर्थन हासिल था. उस वक्त भी टीडीपी ने स्पीकर पद की जिद की और अपने नेता जीएमसी बालयोगी को स्पीकर बनवाने में सफल हुई. करीब 13 महीने तक सरकार चलने के बाद एआईएडीएमके नेता जे जयललिता ने अचानक सरकार से समर्थन वापस लेने का एलान कर दिया. 17 अप्रैल 1999 को विपक्ष की ओर से अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, उस पर वोटिंग कराई गई और सरकार एक वोट से गिर गई.

उस वक्त हुआ ये था कि वोटिंग से ठीक पहले लोकसभा में अचानक कांग्रेस सांसद गिरधर गोमांग दिखाई पड़े. गिरधर गोमांग करीब तीन महीने पहले ही उड़ीसा के मुख्यमंत्री बने थे लेकिन तब तक उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था. अब ऐसे में यह स्पीकार के विवेक पर निर्भर था कि वो उन्हें मतदान में हिस्सा लेने देते या फिर नहीं. स्पीकर ने उन्हें मतदान में हिस्सा लेने की अनुमति दी. अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 270 और विपक्ष में 269 वोट पड़े और इस तरह सरकार गिर गई.

लोकसभा स्पीकर के पास क्या ताकत है?

दरअसल, लोकसभा की कार्यवाही का पूरा नियंत्रण स्पीकर के हाथ में ही होता है. स्पीकर ही लोकसभा का संवैधानिक और औपचारिक प्रमुख है. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 93 लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की नियुक्ति का प्रावधान करता है. हालांकि संविधान में लोकसभा स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के चुनाव के लिए न तो कोई समय सीमा निर्धारित है और न ही किसी तरह की प्रक्रिया का उल्लेख है. यह पूरी तरह से सदन पर निर्भर है कि वह स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चुनाव कैसे करते हैं.

आमतौर पर स्पीकर को सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत के जरिए चुना जाता है. इसलिए, आमतौर पर सत्तारूढ़ दल का सदस्य ही स्पीकर बनता है. संविधान में प्रावधान है कि अध्यक्ष का पद कभी खाली नहीं होना चाहिए, इसलिए मृत्यु या इस्तीफे की स्थिति को छोड़कर स्पीकर अगले सदन की शुरुआत तक उस पद पर बना रहता है.

लोकसभा को संचालित करने की पूरी जिम्मेदारी स्पीकर की ही होती है. संविधान के अनुच्छेद 108 के तहत स्पीकर संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की भी अध्यक्षता करता है. इसके अलावा लोकसभा में विपक्ष के नेता को मान्यता देने का फैसला भी स्पीकर ही करता है.

स्पीकर यानी लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार की बात करें तो वो संसद सदस्यों की बैठक में चर्चा का एजेंडा तय करता है, सांसदों के अनुचित व्यवहार के लिए उन्हें दंडित भी कर सकता है और अविश्वास प्रस्ताव और निंदा प्रस्ताव की अनुमति देने का काम भी वही करता है. साल 1985 में राजीव गांधी सरकार की ओर से लाए गए दलबदल कानून के बाद स्पीकर की शक्तियां और भी महत्वपूर्ण हो गईं. दलबदल करने वाले सदस्य को स्पीकर अपने विवेक से अयोग्य घोषित कर सकता है. खंडित जनादेश की स्थिति में स्पीकर की भूमिका बेहद अहम हो जाती है.