500 साल पुराना रहस्य: सबरीमाला मंदिर जाने से पहले श्रद्धालु इस मस्जिद की परिक्रमा क्यों करते है?

सबरीमाला मंदिर की महत्ता को लेकर देश में आजकल आये दिन कुछ न कुछ राजनैतिक विवाद चल रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने जब से इस मंदिर को महिलाओं के लिए खोलने का आदेश दिया है, तब से केरल समाज दो हिस्सों में बंट चूका है.

वावर मस्जिद (Photo Credits: Kerala Tourism)

सबरीमाला मंदिर की महत्ता को लेकर देश में आजकल आये दिन कुछ न कुछ राजनैतिक विवाद चल रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने जब से इस मंदिर को महिलाओं के लिए खोलने का आदेश दिया है, तब से केरल समाज दो हिस्सों में बंट चूका है. सबरीमाला के लिए हर वर्ष हजारों श्रद्धालु एक लंबी और कठिन यात्रा करके वहां पहुँचते हैं. इस यात्रा के दौरान श्रद्धालु संयत खान-पान और ब्रह्मचर्य का विशेष रूप से पालन करते हैं.

मंदिर जाने से पहले मस्जिद जाते हैं श्रद्धालु-

सबरीमाला मंदिर के यात्रा के दौरान श्रद्धालु एक सफ़ेद भव्य मस्जिद में जाते हैं. जिसे वावर मस्जिद कहा जाता है. वे वहां भगवान अयप्पा और 'वावरस्वामी' की जयकार करते हैं. फिर श्रद्धालु मस्जिद की परिक्रमा करते हैं और वहां से विभूति और काली मिर्च का प्रसाद लेकर आगे की यात्रा प्रारम्भ करते हैं. मस्जिद की परिक्रमा करने की परंपरा पिछले 500 साल से भी अधिक समय से चली आ रही है. विशेष रूप से सजाए गए हाथी के साथ जुलूस पहले मस्जिद पहुंचता है, उसके बाद पास के दो हिंदू मंदिरों में श्रद्धालु जाते हैं. मस्जिद कमेटी हर साल सबरीमला मंदिर से अपने रिश्ते का उत्सव मनाती है, इस उत्सव को चंदनकुकुड़म (चंदन-कुमकुम) कहा जाता है. इरुमलै में काफ़ी मुसलमान आबादी है और पहाड़ी की चढ़ाई चढ़कर थके तीर्थयात्री अक्सर आराम करने के लिए किसी मुसलमान के घर रुक जाते हैं.

वावर मस्जिद की कहानी-

वावर एक सूफ़ी संत थे जो भगवान अयप्पा में गहरी श्रद्धा रखते थे.उनकी अयप्पा भक्ति इतनी मशहूर हुई कि सदियों से चली आ रही सबरीमला यात्रा में उनका ठिकाना एक पड़ाव बन गया. वावर के बारे में कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं. कुछ लोगों का मामना है की यह सूफ़ी संत अरब सागर के रास्ते इस्लाम का प्रचार करने आए थे. तो वहीं कुछ लोगों का मानना है की वह एक योद्धा थे, जिनकी तलवार अब भी मस्जिद में रखी है. लेकिन इसमें कोई मतभेद नहीं है कि वे एक मुसलमान थे. और भगवान अयप्पा के भक्त थे. सबरीमला की तीर्थयात्रा बहुत पुरानी है. सबरीमला मंदिर का निर्माण 12वीं सदी में पंडालम राजवंश के युवराज मणिकंदन ने कराया था.

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