जानलेवा अंधविश्वास: दस साल में करीब 1,200 लोगों ने गंवाई जान
समाज की तरक्की की दिशा में अंधविश्वास एक बड़ी बाधा है.
समाज की तरक्की की दिशा में अंधविश्वास एक बड़ी बाधा है. इसके चलते बच्चों की बलि दिए जाने और महिलाओं को डायन बताकर मारने के मामले सामने आते हैं. अंधविश्वास को आखिर कैसे खत्म किया जा सकता है?एक नौ साल का बच्चा अपने स्कूल के हॉस्टल में सोया हुआ था. तभी एक शिक्षक ने उसे गोद में उठाने की कोशिश की. इससे बच्चे की नींद खुल गई और उसने शोर मचा दिया. स्थिति बिगड़ती देख बच्चे का गला दबाने की कोशिश की गई. लेकिन शोर मचने की वजह से दूसरे बच्चे जाग गए और उस बच्चे की जान बच गई. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, यह घटना छह सितंबर की रात को हाथरस के डीएल पब्लिक स्कूल में हुई.
कुछ दिन बाद इसी स्कूल के एक दूसरे छात्र की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई. उस 11 साल के बच्चे का शव स्कूल प्रबंधक की गाड़ी में मिला. हाथरस पुलिस ने बच्चे की हत्या के आरोप में स्कूल प्रबंधक दिनेश बघेल, उसके पिता यशोदन समेत पांच लोगों को गिरफ्तार किया. कई मीडिया रिपोर्ट्स में पुलिस के हवाले से बताया गया कि आरोपी यशोदन तांत्रिक क्रिया करता था. उसने स्कूल की तरक्की और कर्ज से उबरने के लिए बच्चे की बलि देने का फैसला लिया था. एक बच्चा तो उनके चंगुल से बच गया लेकिन कुछ दिन बाद एक दूसरे बच्चे की कथित तौर पर बलि दे दी गई. उसे गला दबाकर मार डाला गया.
जिस स्कूल की तरक्की के लिए मासूम बच्चे की हत्या की गई, अब उसके गेट पर ताला पड़ा है. सभी बच्चे हॉस्टल छोड़कर जा चुके हैं. इस मामले में पुलिस की जांच अभी जारी है. ऐसे में और नए तथ्य सामने आ सकते हैं. लेकिन इस घटना ने दिखा दिया है कि हमारे समाज में अंधविश्वास की जड़ें कितनी गहरी हैं.
नौ सालों में मानव बलि के सौ से ज्यादा मामले
उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में हुआ यह अपराध मानव बलि का पहला या इकलौता मामला नहीं है. देश के अलग-अलग हिस्सों से इस तरह के मामले सामने आते रहते हैं. एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक, भारत में 2022 में मानव बलि के आठ मामले सामने आए थे. साल 2014 से 2022 तक नौ सालों में मानव बलि के कारण 111 लोगों की जान चली गई. इनमें बच्चे और बड़े दोनों शामिल थे. मानव बलि अंधविश्वास के चरम पर पहुंचने का उदाहरण है.
प्रोफेसर श्याम मानव पिछले 42 सालों से अंधविश्वास के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. उन्होंने 1982 में अखिल भारतीय अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की स्थापना की थी. उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी को बताया, "मानव बलि देने वाले लोग बहुत अंधविश्वासी होते हैं. वे उस बारे में तर्क के साथ नहीं सोचते हैं. उन्हें बस लगता है कि नरबलि देने से उनकी इच्छा पूरी हो जाएगी, जबकि असल में ऐसा कुछ नहीं होता है.”
वे आगे बताते हैं, "पहले ऐसी कहानियां ज्यादा सुनने को मिलती थीं. अंग्रेजों के जमाने में भारतीय ठेकेदार रेलवे लाइन या पुल बनाने से पहले नरबलि दिया करते थे. इसकी कई रिपोर्ट्स गजट में भी मिलती हैं. लेकिन अब ऐसे मामलों की संख्या काफी कम हो चुकी है. अगर एक साल में नरबलि के 10 मामले सामने आते हैं तो जादू-टोने की वजह से लोगों को मार देने के मामले इसके 10 गुना ज्यादा होते हैं.”
एनसीआरबी के आंकड़े उनकी बात को सही साबित करते हैं. 2022 में जादू-टोने के चलते 85 लोगों की मौत हुई थी. 2021 में यह संख्या 68 थी. साल 2013 से 2022 तक दस सालों में जादू-टोने की वजह से 1,064 लोगों ने अपनी जान गंवाई. इसमें बड़ी संख्या उन महिलाओं की थी, जिन्हें डायन बताकर और जादू-टोना करने का आरोप लगाकर मार डाला गया. डायन प्रथा के चलते सबसे ज्यादा हत्याएं छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड में होती हैं.
अंधविश्वास है कई समस्याओं की जड़
भारत में ऐसे काफी मामले सामने आते हैं, जिनमें किसी व्यक्ति को सांप के काटने पर अस्पताल की बजाय झाड़-फूंक करवाने ले जाया जाता है. वहां स्थिति नहीं सुधरती, तब परिजन पीड़ित को अस्पताल लेकर जाते हैं. लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है और पीड़ित की जान चली जाती है. ऐसे मामलों में अगर पीड़ित को सीधे अस्पताल ले जाया जाए तो जान बचने की ज्यादा संभावना होती है. लेकिन झाड़-फूंक पर अंधविश्वास होने के चलते कई लोग ऐसा नहीं करते.
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प्रोफेसर श्याम मानव मानते हैं कि अंधविश्वास के कारण होने वाली मौतों के अलावा भी इससे बड़े पैमाने पर नुकसान होता है. वे कहते हैं, "ऐसा कोई अंधविश्वास नहीं है, जिससे लोगों का नुकसान नहीं होता है. अंधविश्वास के चलते फर्जी बाबाओं द्वारा बड़े स्तर पर लोगों का शोषण किया जाता है. उनकी वजह से लोगों के बीच आपसी झगड़े भी बढ़ते हैं. कई फर्जी बाबा तो महिलाओं का इतना शोषण करते हैं, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.”
वे आगे कहते हैं, "अंधविश्वास के पीछे दो कारण होते हैं. पहला डर और दूसरा लालच. अगर आप यह करेंगे तो आपका फायदा होगा और अगर नहीं करेंगे तो आपका नुकसान हो जाएगा. लेकिन हकीकत यह है कि इस दुनिया में कोई भी किसी पर जादू या टोटका नहीं कर सकता. अगर एक व्यक्ति में भी इसकी क्षमता होती तो अब तक मैं और मेरे कार्यकर्ता मारे जा चुके होते क्योंकि हम इनके खिलाफ लगातार अभियान चला रहे हैं.”
अंधविश्वास के खिलाफ कितने मजबूत हैं कानून
भारत में केंद्रीय स्तर पर अंधविश्वास के खिलाफ कोई कानून मौजूद नहीं है. लेकिन कई राज्यों ने अपने स्तर पर इसके खिलाफ कानून बनाए हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात में मानव बलि, काला जादू और अमानवीय दुष्ट प्रथाओं को खत्म करने के लिए कानून बनाए गए हैं. वहीं बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान और असम में डायन प्रथा को रोकने के लिए कानून मौजूद हैं. हालांकि, यह सवाल जरूर उठता है कि ये कानून जमीनी स्तर पर किस हद तक लागू हुए हैं और कितने कारगर हैं.
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प्रोफेसर श्याम मानव इसे महाराष्ट्र के उदाहरण के साथ समझाते हैं. वे कहते हैं, "महाराष्ट्र में 2013 में जादू-टोना विरोधी कानून बना. उस समय राज्य में कांग्रेस और एनसीपी की सरकार थी. तब इस कानून को लागू करने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए एक समिति गठित की गई थी. लेकिन राज्य में भाजपा सरकार आने पर इसका काम रोक दिया गया. 2019 में सरकार बदली तो काम शुरू होते-होते कोविड आ गया. फिर 2022 में दोबारा से सत्ता परिवर्तन हो गया. तब से उस समिति का काम पूरी तरह से बंद हैं.”
किस तरह खत्म होगा अंधविश्वास
सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि अंधविश्वास जन्म कैसे लेता है. श्याम मानव बताते हैं, "इंसान के दिमाग का बायां हिस्सा तर्कपूर्ण तरीके से सोचता है. चीजों के पीछे के कारण ढूंढ़ता है. वहीं, दाएं हिस्से में भावनाएं काम करती हैं. जैसा हमसे कहा जाता है, उसे वैसे ही स्वीकार कर लेते हैं. दिमाग के यह दोनों हिस्से एक दूसरे के साथ मिलकर काम करते हैं. लेकिन हमें बचपन से सिखाया जाता है कि धर्म से जुड़ी चीजों पर सवाल और तर्क नहीं करने हैं. इसलिए जब हमसे कहा जाता है कि दुनिया में भूत होते हैं, तो हम तर्क किए बिना ही उस बात को मान लेते हैं. बचपन से हम जो बातें सुनते हैं, उन्हें स्वीकार करते जाते हैं, इसी से अंधविश्वास शुरू होता है.”
वे आगे कहते हैं, "अंधविश्वास को मिटाने का एक ही तरीका है. हमारे सोचने के ढंग को बदलना और तर्कपूर्ण सोच को विकसित करना. साथ ही लोगों में साइंटिफिक टैंपर यानी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना. ऐसा सिर्फ शिक्षा और मीडिया के माध्यम से ही हो सकता है. अगर स्कूलों में तर्कपूर्ण तरीके से सोचना सिखाया गया होता तो अब तक पीढ़ियां बदल जातीं. लोग इतनी जल्दी अंधविश्वासी नहीं बनते.”
श्याम इस बात पर भी जोर देते हैं कि अंधविश्वास के खिलाफ जो कानून बने हैं, उनके बारे में जमीनी स्तर पर जागरुकता फैलानी होगी क्योंकि जब तक लोगों की सोच नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होगा. वे कहते हैं, "समाज से अंधविश्वास को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता. लेकिन अगर किसी समाज में 80 से 90 फीसदी लोग वैज्ञानिक सोच के साथ जीते हैं, तो उसे अंधविश्वास मुक्त समाज कहा जा सकता है.”