Md Rafi Birthday Anniversary: सुरों के सरताज मो. रफी! जिनके असमय निधन पर लता मंगेशकर भी कराह उठी थीं

हिंदी सिनेमा संगीत को स्वर्णयुग से विभूषित करनेवाले विभूतियों में से एक थे, महान पार्श्वगायक स्व. मोहम्मद रफी. भारतीय संगीत की दुनिया में लोग उन्हें 'रफी साहब' के नाम से तवज्जो देते थे.

मुहम्मद रफी (Photo Credits: Instagram)

Md Rafi Birthday Anniversary: हिंदी सिनेमा संगीत को स्वर्णयुग से विभूषित करनेवाले विभूतियों में से एक थे, महान पार्श्वगायक स्व. मोहम्मद रफी. भारतीय संगीत की दुनिया में लोग उन्हें 'रफी साहब' के नाम से तवज्जो देते थे. रफी इकलौते सिंगर थे, जिन्होंने जो भी गाया पूरी शिद्दत से गाया, फिर चाहे वह रोमांटिक गाने हों, गमगीन अथवा उछलकूद वाले मस्तमौला गाने हों, देशभक्ति, भजन, गजल अथवा कव्वाली कुछ भी हो वे बड़ी शिद्दत से गाते थे. मो. रफी बहुमुखी एवं विविधता वाले गायक थे. उनकी हिंदी और उर्दू पर अच्छी पकड़ थी.

आवाज में ज्यादा गहराई थी, इसीलिए वह हिंदी के साथ-साथ कोंकणी, उर्दू, भोजपुरी, उड़िया, पंजाबी, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तेलुगु, मगही, मैथिली और असमिया सहित कई भारतीय भाषाओं में गाने में सफल रहें. इसके अलावा मो रफी ने अंग्रेजी, फारसी, स्पेनिश और डच गीत भी रिकॉर्ड किए.

साल 1940 से 1980 के सफर में मो. रफी ने लगभग 26 हजार से ज्यादा गाने गाकर एक कीर्तिमान स्थापित किया. रफी साहब को 6 फिल्मफेयर और 1 नेशनल अवार्ड मिला. भारत सरकार ने उन्‍हें 'पद्मश्री' सम्मान से सम्मानित किया था, अब प्रतीक्षा है कि भारत सरकार कब उन्हें 'भारत-रत्न' से नवाजती है. आज जब हिंदी सिनेमा जगत मरहूम मो. रफी की 96वीं जयंती मना रहा है, आइये जानें इस अद्भुत संगीत साधक ने कैसे पूरी की सिफर से शिखर तक पहुंचने की राह...

मो. रफी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को ब्रिटिश नियंत्रित भारत के संयुक्त पंजाब प्रांत (अब पाकिस्तान में) में कोटला सुल्तान सिंह गांव में हुआ था. मो. रफी मोहम्मद हाजी अली और अल्लाहखेड़ी की पांचवी संतान थे. उनकी शुरुआती शिक्षा कोटला सुल्तान सिंह में हुई. इसके बाद रोजगार के सिलसिले में रफी अपने परिवार के साथ लाहौर आ गये. उस समय वे लगभग 7 साल के थे. कहा जाता है कि उनके बड़े भाई मो. हमीद की बाल काटने की दुकान थी. उन दिनों अकसर कुछ फकीर सूफी गाते-गुनगुनाते  दुकान के सामने से गुजरते तो रफी बहुत ध्यान से उन्हें सुनते थे. कभी-कभी वे उनके पीछे लग जाते थे. इस वजह से कई लोग उन्हें फीको भी कहना शुरु कर दिया था. उन्हें जब भी मौका मिलता, वे दुकान हो या घर गाने-गुनगुनाने लगते. दुकान पर बैठे लोग रफी की आवाज की खूब प्रशंसा करते थे.

पिता के विरुद्ध जाकर बड़े भाई ने दिलाई संगीत की तालीम

रफी की संगीत के प्रति दीवानगी देख बड़े भाई हमीद ने उन्हें पंडित जीवनलाल मट्टू से हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत की तालीम के लिए भेजना शुरु किया. पं. जीवनलाल ने उन्हें राग शास्त्र में पहाड़ी, भैरवी, बसंती और मल्हार इत्यादि रागों की तालीम देते हुए इसी दिशा में आगे बढ़ने का सुझाव दिया. क्योंकि उन्होंने रफी में गायन टैलेंट को समझ लिया था. इसके बाद रफी ने किराना घराना के उस्ताद अब्दुल वहीद खान के संरक्षण ने में संगीत की तालीम ली.

13 वर्ष की आयु में मो. रफी को आल इंडिया रेडियो (आज का आकाशवाणी) में आमंत्रित किया गया. उन्हीं दिनों एक बार विख्यात गायक और अभिनेता कुंदल लाल सहगल एक शो के लिए आये, लेकिन जैसे ही वे शो के लिए तैयार हुए लाइट चली गई. इस वजह से सहगल ने गाने से मना कर दिया. हामिद ने आयोजकों से अनुरोध किया कि भीड़ को शांत करने के लिए रफी को एक मौका देकर देखें.  रफी का गायन सुनकर वहां मौजूद दर्शकों ने तालियां बजाकर उनकी प्रशंसा की. संयोग से उस जगह उन दिनों के एक मशहूर संगीतकार श्याम सुंदर भी वहां उपस्थित थे, उन्होंने भी रफी को सुना और उन्हें रिकॉर्डिंग रूम में मिलने के लिए बुलाया. श्याम सुंदर ने ही रफी को अपनी पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' में गाने का पहला मौका दिया. यह साल 1944 की बात है. इसके बाद मो. हमीद ने रफी को बंबई (अब मुंबई) लाकर किस्मत आजमाने का सुझाव दिया.

बंबई आना और शिखर को छूना

1946 में रफी को लेकर मो. हमीद बंबई गये. बंबई के एक भिंडी बाजार में एक छोटा-सा कमरा लिया. कुछ मित्रों के सहयोग से रफी को संगीतकार नौशाद से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. नौशाद को रफी की आवाज पसंद आई. उन्होंने रफी को महबूब खान की फिल्म 'अनमोल घड़ी' में एक गीत 'तेरा खिलौना टूटा..' रिकॉर्ड करने का अवसर दिया. नौशाद की 'शहीद', 'मेला' और 'दुलारी' में उनके गानों को खूब सराहा गया. लेकिन मो. रफी को सही मायनों में 1951 में प्रदर्शित फिल्म 'बैजूबावरा' ने सफलता दिलाई. इस फिल्म में नौशाद वास्तव में तलत महमूद से गवाना चाहते थे, लेकिन मना करने के बावजूद उन्होंने तलत महमूद को धूम्रपान करते देख उनकी जगह रफी को मौका दे दिया.

'बैजूबावरा' ने मो. रफी को मुख्य धारा के गायकों के समक्ष पहुंचा दिया. इसके साथ ही नौशाद और मो. रफी एक दूसरे के पूरक बनकर गये. इन्हीं दिनों शीर्ष पर चल रहे संगीतकार शंकर जयकिशन को भी मो. रफी की आवाज बहुत पसंद आयी. शंकर जयकिशन के पास फिल्मों की भरमार थी, उन्होंने मो रफी से गवाना शुरु किया. रफी की लोकप्रियता बढ़ी तो सचिन देव बर्मन से लेकर ओपी नैय्यर, सी रामचंद्र, मदन मोहन, रवि, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी सभी रफी के प्रशंसक बन कर रह गये. इनमें ओपी नैय्यर ने रफी और आशा भोसले पर काफी प्रयोग किया. बहुत जल्दी तीनों की तिकड़ी इंडस्ट्री में मशहूर हो गयी थी. रफी अकेले गायक थे, जिन्होंने दूसरे प्ले-बैक सिंगर के लिए भी गीत गाये. मसलन फिल्म 'रागिनी' में 'मन मोरा बावरा...' और फिल्म 'शरारत' में 'अजब है दास्तां तेरी..' जैसे गीत उन्होंने किशोर कुमार के लिए रिकॉर्ड करवाया था

जब लता-रफी में ठनी!

लता मंगेशकर और मो. रफी ने बहुत सारे सुपर हिट युगल गीत गाये. मगर एक दौर ऐसा भी आया, जब दोनों के बीच विवाद खड़ा हुआ. विवाद का मुद्दा यह था कि लता मंगेशकर अपने गाये गानों के लिये रायल्टी की मांग कर रही थीं. लेकिन मो रफी का मानना था कि जब एक बार हमें हमारी कीमत मिल गई तो हम दुबारा उसी गाने के पैसे कैसे ले सकते हैं. दोनों के बीच विवाद इतना बढ़ा कि बातचीत तक बंद हो गई. रॉयल्टी को लेकर खिंचे तलवार के कारण 1964 से 1967 यानी तीन साल तक दोनों ने एक दूसरे से बात तक नहीं की! कहा जाता है कि दोनों को युगल गीत गवाने के लिए राजी करने में शंकर जयकिशन ने अहम भूमिका निभाई.

दोस्ती के तार जुड़ने के बाद तो लता और रफी ने ही सबसे ज्यादा युगल गीत गाये. यहां तक कि 31 जुलाई, 1980 को आंख मूंदने से पहले मो. रफी ने अपना आखिरी युगल गीत लता मंगेशकर के साथ ही रिकॉर्ड करवाया. फिल्म थी 'आसपास' गाने के बोल थे 'शहर में चर्चा है...' कहा जाता है कि मो. रफी की असमय मौत की खबर सुनकर लता जी हतप्रभ रह गई थीं, उनके मन का दर्द जुबां पर छलक आया, उन्होंने कहा क्या कहूं समझ में नहीं आता. आसमान का चांद अस्त हुआ या फिल्म संगीत का सूर्य.

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