नयी दिल्ली, 16 अगस्त उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि किसी कामकाजी महिला को मातृत्व अवकाश के वैधानिक अधिकार से केवल इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके पति की पिछली शादी से दो बच्चे हैं और महिला ने उनमें से एक की देखभाल करने के लिए पहले अवकाश लिया था।
शीर्ष अदालत ने कहा कि मातृत्व अवकाश देने का उद्देश्य महिलाओं को कार्यस्थल में अन्य लोगों के साथ शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना है, लेकिन यह बात भी कड़वा सच है कि इस तरह के प्रावधानों के बावजूद महिलाएं बच्चे के जन्म पर अपना कार्यस्थल छोड़ने के लिए मजबूर हैं। चूंकि उन्हें अवकाश सहित अन्य सुविधाजनक उपाय नहीं दिए जाते हैं।
नियमों के अनुसार, दो से कम जीवित बच्चों वाली महिला कर्मचारी मातृत्व अवकाश ले सकती है।
न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना की पीठ ने कहा कि प्रसव को रोजगार के संदर्भ में कामकाजी महिलाओं के जीवन का एक स्वाभाविक पहलू माना जाना चाहिए और कानून के प्रावधानों में उसे उसी परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय ‘स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान’ (पीजीआईएमईआर), चंडीगढ़ में बतौर नर्स कार्यरत महिला की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
पीठ ने कहा कि वर्तमान मामले के तथ्यों से संकेत मिलता है कि अपीलकर्ता के पति ने पहले विवाह किया था, जो उसकी पत्नी की मृत्यु के साथ समाप्त हो गया और उसके बाद अपीलकर्ता ने उससे शादी की थी।
पीठ ने कहा, ''उसके (उसके पति के) पूर्व विवाह से दो जैविक बच्चे थे, यह तथ्य वर्तमान मामले में महिला के एकमात्र जीवित (जैविक) बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश देने के लिहाज से अपीलकर्ता के वैधानिक अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा''।
पीठ ने कहा कि तथ्य यह है कि उसे उसके पति की पहले की शादी से पैदा हुए दो बच्चों में से एक के लिए 'बाल देखभाल अवकाश’ दिया गया था, यह एक ऐसा मामला हो सकता है जहां उस समय अधिकारियों ने एक दयालु दृष्टिकोण अपनाया था।
हालांकि, इसका उपयोग उसे केंद्रीय सिविल सेवा अवकाश नियम, 1972 के नियम 43 के तहत छुट्टी की पात्रता से वंचित करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
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