नयी दिल्ली, तीन जुलाई दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि यौन उत्पीड़न पीड़िता की उम्र उसकी अस्थियों की आयु के आधार पर निर्धारित किये जाते समय, रिपोर्ट में दिये गये संदर्भ ‘रेंज’ में ऊपरी उम्र पर विचार किया जाना चाहिए और पॉक्सो कानून से जुड़े मामलों में दो साल का ‘‘मार्जिन ऑफ एरर’’ रखे जाने की जरूरत है।
उच्च न्यायालय की वेबसाइट पर बुधवार को अपलोड किये गये फैसले में, न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति मनोज जैन की पीठ ने कहा कि देश की कानून प्रणाली के अनुसार, यदि जरा भी संदेह हो तो इसका लाभ आरोपी को मिलना चाहिए।
पीठ का यह फैसला, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) मामले की सुनवाई कर रही एक अधीनस्थ अदालत से प्राप्त संदर्भ पर आया। मामले में पीड़िता की उम्र, उसकी अस्थियों की आयु की जांच के आधार पर 16 से 18 वर्ष के बीच निर्धारित की गई थी।
उम्र बढ़ने के साथ अस्थियों के मजबूत होने के आधार पर व्यक्ति की आयु निर्धारित करने में इस जांच का उपयोग किया जाता है।
अधीनस्थ अदालत में यह दलील दी गई कि ‘ऊपरी आयु’ सीमा पर विचार करते हुए तथा दो वर्ष की त्रुटि होने के अंतर को ध्यान में रखते हुए पीड़िता की उम्र को 20 वर्ष माना जाना चाहिए।
अधीनस्थ अदालत के संदर्भ का जवाब देते हुए पीठ ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के कुछ फैसलों पर गौर किया। पीठ ने उल्लेख किया कि (अस्थियों की) जांच के आधार पर निर्धारित की गई उम्र पूरी तरह से सही नहीं हो सकती है और इसलिए उसमें कुछ अंतर होने की त्रुटि की अनुमति देनी चाहिए।
पीठ ने कहा कि स्कूल प्रमाणपत्र या जन्म प्रमाणपत्र के अभाव में, जब अदालत अस्थियों की जांच के आधार पर उम्र पता करने का आदेश देती है तो इस तरह की जांच एक अनुमान देती है लेकिन यह ‘‘हमें सटीक उम्र नहीं मुहैया करती।’’
इसने कहा कि भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली यह निर्धारित करती है कि किसी भी आरोपी के खिलाफ मामला संदेह से परे साबित होना चाहिए।
पीठ ने दो जुलाई को दिए अपने फैसले में कहा, ‘‘इसका मतलब यह है कि अगर जरा भी संदेह है, तो इसका लाभ आरोपी को मिलना चाहिए।’’
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