Tokyo Olympics 2021: कभी मिलता था जैतून के फूलों का हार तो कभी मोबाइल फोन, खेलों की तरह ओलंपिक पदकों ने भी किया है लंबा सफर
जैतून के फूलों के हार से लेकर पुराने मोबाइल फोन और विद्युत उपकरणों की पुनरावर्तित धातु, ओलंपिक में जीत दर्ज करने पर मिलने वाले पदकों ने भी इन खेलों की तरह लंबा सफर तय किया है. विद्युत उपकरणों के पुनर्नवीनीकरण से बने और कंचे जैसे दिखने वाले आगामी तोक्यो ओलंपिक के पदक का व्यास 8.5 सेंटीमीटर होगा और इस पर यूनान की जीत की देवी ‘नाइक’ की तस्वीर बनी होगी.
नयी दिल्ली, 15 जुलाई : जैतून के फूलों के हार से लेकर पुराने मोबाइल फोन और विद्युत उपकरणों की पुनरावर्तित धातु, ओलंपिक में जीत दर्ज करने पर मिलने वाले पदकों ने भी इन खेलों की तरह लंबा सफर तय किया है.
विद्युत उपकरणों के पुनर्नवीनीकरण से बने और कंचे जैसे दिखने वाले आगामी तोक्यो ओलंपिक के पदक का व्यास 8.5 सेंटीमीटर होगा और इस पर यूनान की जीत की देवी ‘नाइक’ की तस्वीर बनी होगी. लेकिन पिछले वर्षों के विपरीत इन्हें सोने, चांदी और कांसे (इस मामले में तांबा और जिंक) से तैयार किया गया है जिसे जापान की जनता द्वारा दान में दिए गए 79 हजार टन से अधिक इस्तेमाल किए गए मोबाइल फोन और अन्य छोटे विद्युत उपकरणों से निकाला गया है. प्राचीन ओलंपिक खेलों के दौरान विजेता खिलाड़ियों को ‘कोटिनोस’ या जैतून के फूलों का हार दिया जाता था जिसे यूनान में पवित्र पुरस्कार माना जाता था और यह सर्वोच्च सम्मान का सूचक था. यूनान की खो चुकी परंपरा ओलंपिक खेलों ने 1896 में एथेंस में पुन: जन्म लिया. पुनर्जन्म के साथ पुरानी रीतियों की जगह नई रीतियों ने ली और पदक देने की परंपरा शुरू हुई. विजेताओं को रजत जबकि उप विजेता को तांबे या कांसे का पदक दिया जाता था.
पदक के सामने देवताओं के पिता ज्यूस की तस्वीर बनी थी जिन्होंने नाइक को पकड़ा हुआ था. ज्यूस के सम्मान में खेलों का आयोजन किया जाता था. पदक के पिछले हिस्से पर एक्रोपोलिस की तस्वीर थी. सेंट लुई 1904 खेलों में पहली बार स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक का उपयोग किया गया. ये पदक यूनान की पैराणिक कथाओं के शुरुआती तीन युगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. स्वर्णिम युग- जब इंसान देवताओं के साथ रहता था, रजत युग- जहां जवानी सौ साल की होती थी और कांस्य युग या नायकों का युग. अगली एक शताब्दी में पदकों के आकार, आकृति, वजन, संयोजन और इनमें बनी छवि में बदलाव होता रहा.
अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने 1923 में ओलंपिक खेलों के पदक को डिजाइन करने के लिए शिल्पकारों की प्रतियोगिता शुरू की. इटली के कलाकार ज्युसेपी केसियोली के डिजाइन को 1928 में विजेता चुना गया. पदक का अग्रभाग उभरा हुआ था जिसमें नाइक ने अपने बाएं हाथ में ताड़ और दाएं हाथ में विजेता के लिए मुकुट पकड़ा हुआ है. इसकी पृष्ठभूमि में कलागृह का चित्रण था और पिछली तरफ एक विजयी खिलाड़ी को लोगों की भीड़ ने उठा रखा था. पदक का यह डिजाइन लंबे समय तक बरकरार रहा. यह भी पढ़ें : Tokyo Olympics 2020: पूर्व हॉकी खिलाड़ी धनराज पिल्ले का बड़ा बयान, कहा- भारतीय पुरुष हॉकी टीम 41 साल का सूखा खत्म करेगी
मेजबान शहरों को 1972 म्यूनिख खेलों से पदक के पिछले भाग में बदलाव की स्वीकृति दी गई. अग्रभाग में हालांकि 2004 में एथेंस ओलंपिक के दौरान बदलाव हुआ. इसमें नाइक का नया चित्रण था वह सबसे मजबूत, सबसे ऊंचे और सबसे तेज खिलाड़ी को जीत प्रदान करने 1896 पैनाथेनिक स्टेडियम में उड़ती हुईं आ रहीं थी. रोम ओलंपिक 1960 से पहले तक विजेताओं की छाती पर पदक पिन से लगाया जाता था लेकिन इन खेलों में पदक का डिजाइन नैकलेस की तरह बनाया गया और खिलाड़ी चेन की सहायता से इन्हें अपने गले में पहन सकते थे. चार साल बाद इस चेन की जगह रंग-बिरंगे रिबन ने ली. रोचक तथ्य है कि स्वर्ण पदक पूरी तरह सोने का नहीं बना होता. स्टॉकहोम खेल 1912 में आखिरी बार पूरी तरह सोने के बने तमगे दिए गए. अब पदकों पर सिर्फ सोने का पानी चढ़ाया जाता है. आईओसी के दिशानिर्देशों के अनुसार स्वर्ण पदक में कम से कम छह ग्राम सोना होना चाहिए. लेकिन असल में पदक में चांदी का बड़ा हिस्सा होता है.
बीजिंग ओलंपिक 2008 में पहली बार चीन ने ऐसा पदक पेश किया जो किसी धातु नहीं बल्कि जेड से बना था. चीन की पारंपरिक संस्कृति में सम्मान और सदाचार के प्रतीक इस माणिक को प्रत्येक पदक के पिछली तरफ लगाया गया था. पर्यावरण के प्रति बढ़ती चेतना को देखते हुए 2016 रियो खेलों में आयोजकों ने पुनरावर्तित धातु के अधिक इस्तेमाल का फैसला किया. पदकों में ना सिर्फ 30 प्रतिशत पुनरावर्तित धातु का इस्तेमाल हुआ बल्कि उससे जुड़े रिबन में भी 50 प्रतिशत पुनरावर्तित प्लास्टिक बोतलों का इस्तेमाल किया गया. सोना भी पारद मुक्त था. रियो के नक्शेकदम पर चलते हुए तोक्यो खेलों के आयोजकों ने भी पुनरावर्तित विद्युत धातुओं से पदक बनाने का फैसला किया.