नयी दिल्ली, 30 जनवरी केंद्र ने मंगलवार को उच्चतम न्यायालय से कहा कि राष्ट्रीय महत्व के किसी संस्थान में ''राष्ट्रीय संरचना'' झलकनी चाहिए। केंद्र ने साथ ही यह भी कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में पढ़ने वाले करीब 70 से 80 प्रतिशत छात्र आरक्षण के बिना भी मुस्लिम हैं।
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्त, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा संबंधी जटिल मुद्दे पर दलीलें सुन रही है। केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ से कहा कि मामले का निर्णय करने में सामाजिक न्याय एक बहुत ही निर्णायक कारक होगा।
मेहता ने पीठ से कहा, "आपको इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पक्षों के बीच यह लगभग स्वीकृत स्थिति है कि आरक्षण के बिना भी, लगभग 70 से 80 प्रतिशत छात्र मुस्लिम हैं।’’
उन्होंने कहा, ‘‘मैं धर्म पर बात नहीं कर रहा हूं। यह एक बहुत ही गंभीर विषय है। संविधान द्वारा घोषित राष्ट्रीय महत्व की संस्था को राष्ट्रीय संरचना को प्रतिबिंबित करना चाहिए। आरक्षण के बिना, यह स्थिति है।"
शीर्ष अदालत में दायर अपनी लिखित दलील में, मेहता ने कहा है कि एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान को केंद्रीय शिक्षण संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 (2012 में संशोधित) की धारा 3 के तहत आरक्षण नीति लागू करने की आवश्यकता नहीं है।
छठे दिन की सुनवाई के दौरान मेहता ने आरक्षण पहलू का जिक्र करते हुए कहा कि एएमयू बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक है और इसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में मान्यता प्राप्त है।
उन्होंने कहा, "इसलिए, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के योग्य उम्मीदवार या सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के व्यक्ति को आरक्षण नहीं मिलेगा, लेकिन आर्थिक रूप से साधन संपन्न व्यक्ति को महज धर्म के आधार पर आरक्षण मिलेगा...।’’
दिन भर चली सुनवाई के दौरान मेहता ने कहा कि 1920 में अल्पसंख्यक या अल्पसंख्यक अधिकारों की कोई अवधारणा नहीं थी। एएमयू अधिनियम 1920 में अस्तित्व में आया।
मेहता ने कहा कि भारत के ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के बाद समानता संविधान का "हृदय, आत्मा और रक्त" है।
वर्ष 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता। हालांकि, जब संसद ने 1981 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किया, तो इसे उसका अल्पसंख्यक दर्जा वापस मिल गया।
बाद में, जनवरी 2006 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एएमयू (संशोधन) अधिनियम, 1981 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था, जिसके द्वारा विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था।
मंगलवार को सुनवाई के दौरान पीठ ने 1981 के संशोधन का जिक्र किया और कहा कि इसके पीछे मंशा कानून में संशोधन करना था, ताकि बाशा मामले में दिया गया तर्क लागू न हो।
पीठ ने दिन के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी और नीरज किशन कौल की दलीलें भी सुनीं। द्विवेदी ने कहा कि मुस्लिम होना एक बात है और अल्पसंख्यक होना दूसरी बात है।
संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का मुद्दा भी सुनवाई के दौरान उठा , जो धार्मिक और ई अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार से संबंधित है।
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