जंगल की आग, वनों की कुदरती व्यवस्था का हिस्सा रही है. लेकिन आज हम इसका जैसा अनियंत्रित और प्रचंड रूप देख रहे हैं, वह जंगलों और वन्यजीवों समेत इंसानों के लिए बड़ा खतरा है. इसका सामना करने के लिए कितने तैयार हैं हम?जंगल में आग लगने की घटनाएं और उनकी तीव्रता, दोनों तेजी से बढ़ रही हैं. प्रकृति और पर्यावरण को बड़े स्तर पर हो रहा नुकसान और जलवायु परिवर्तन वाइल्डफायर की उग्रता बढ़ाता जा रहा है, लेकिन इससे निपटने के लिए दुनिया की तैयारी अब भी काफी कमजोर है.
भारत भी इसकी चपेट में है. बीते दिनों उत्तराखंड में लगी आग में 1,000 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल तबाह हो गए. काउंसिल ऑफ एनर्जी, एनवॉयरमेंट एंड वॉटर की एक स्टडी बताती है कि साल 2000 से 2020 तक भारत में फॉरेस्ट फायर की घटनाओं की बारंबारता में 52 प्रतिशत का इजाफा हुआ है.
भारतीय राज्यों में 62 फीसदी से ज्यादा पर उच्च-तीव्रता वाली जंगल की आग का जोखिम है. पिछले दो दशकों में आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड और उत्तराखंड जंगल की आग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील रहे हैं. भारत के कुल जिलों में 30 प्रतिशत से ज्यादा प्रचंड जंगल की आग के हॉटस्पॉट हैं.
बहुत अपर्याप्त हैं हमारी तैयारियां
दुनिया के कई और हिस्से फॉरेस्ट फायर के नियमित शिकार बन रहे हैं. अमेरिका, कनाडा, तुर्की में गर्म लहरों के कारण तापमान ऊंचा रहा और गर्मियों की शुरुआत में औसत समय से पहले ही जंगलों में आग भड़कने लगी. यूरोप में स्पेन, ग्रीस और फ्रांस जैसे देश तकरीबन हर साल ही प्रचंड दावानलों का सामना कर रहे हैं. प्रचंज हालिया सालों में जंगल की आग बुझाने के लिए भले ही अतिरिक्त संसाधन लगाए गए हों, लेकिन ऐसी आपदाओं के लिए रणनीति और तैयारी करने के स्तर पर उतना काम नहीं हुआ.
क्या है जॉम्बी फायर और कितनी खतरनाक है ये आग?
श्टेफान डोर, ब्रिटेन की स्वानसी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ रिसर्च में निदेशक हैं. समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में अपर्याप्त तैयारियों की ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने कहा, "असल में हम अभी भी बस हालात के बारे में जान ही रहे हैं."
बहुत तीव्र होती जा रही हैं वाइल्डफायर की घटनाएं
जंगल में लगी आग कितनी तीव्र होगी, कहां आग लग सकती है या आग कब भड़क सकती है, इनका अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है. स्थानीय मौसम समेत कई पक्ष इनमें भूमिका निभाते हैं. जैसे कि हवा की रफ्तार, कम नमी, ऊंचा तापमान. इंसानी लापरवाही भी आग लगने की एक बड़ी वजह है.
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फाउंडेशन इंटरनेशनल ने 2020 की अपनी रिपोर्ट में अनुमान दिया कि जंगलों में आग लगने की घटनाओं में करीब 75 फीसदी मामलों के लिए इंसान जिम्मेदार हैं. डोर ने हाल ही में वाइल्डफायर जैसी चरम घटनाओं और प्राकृतिक आपदा की बारंबारता और तीव्रता की समीक्षा करते हुए एक शोध प्रकाशित किया है. वह कहते हैं कि समूची स्थिति देखते हुए यह तो तय है कि जंगल की आग ज्यादा विस्तृत और भीषण होती जा रही है.
अभी जून में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बीते 20 साल के दौरान अत्यधिक प्रचंड जंगल की आग की आवृत्ति और आकार, दोनों में करीब दोगुनी वृद्धि हुई है. यूनाइटेड नेशंस एनवॉयरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की 2022 में आई रिपोर्ट में आशंका जताई गई कि इस सदी के अंत तक पूरी दुनिया में एक्सट्रीम फाइल्डफायर की घटनाएं 50 प्रतिशत तक बढ़ सकती हैं.
सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही नहीं है वजह
श्टेफान डोर कहते हैं कि इतना बड़ा खतरा सामने होने पर भी इंसानों ने अब तक सच्चाई का सामना नहीं किया है. तैयारियों के संदर्भ में वह आगाह करते हैं, "हमारे आगे जैसी स्थिति है, उसके लिए स्पष्ट तौर पर हम पूरी तरह से तैयार नहीं हैं." इस खतरनाक स्थिति के लिए सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही अकेला कारण नहीं है. जमीन के इस्तेमाल का तरीका और घरों का निर्माण भी बड़ी भूमिका निभा रहा है.
जानकार बताते हैं कि जंगल में जमीन पर उगी घास और झाड़ी जैसी वनस्पतियों को मशीन से हटाना, मवेशी चराना जैसे तरीके भी काम आ सकते हैं. ये चीजें सूखने के बाद जंगल की आग भड़काने का ईंधन बनती हैं. एडिनबरा यूनिवर्सिटी के रोरी हेडेन आग से सुरक्षा और इंजीनियरिंग के विशेषज्ञ हैं. वह सुझाव देते हैं कि कैंपफायरों पर पाबंदी लगाना और सड़कें बनाना भी जरूरी है, ताकि दमकलकर्मी प्रभावित इलाके में आसानी से पहुंच सकें और शुरुआती दौर में ही आग को फैलने से रोका जा सके.
कहर बनी यूरोप में साल की सबसे खतरनाक आग
लेकिन ऐसे प्रयासों के लिए सरकारी स्तर पर योजना बनाने और फंड मुहैया कराना जरूरी है. जबकि कई बार सरकार की वरीयताएं कुछ और होती हैं या बजट की कमी होती है. हेडेन कहते हैं, "किसी प्राकृतिक जगह के प्रबंधन के लिए आप जो भी तरीका या तकनीक इस्तेमाल कर रहे हों, उस निवेश का नतीजा यह होगा कि कुछ (दुर्घटना) नहीं होगा. यह बड़ी अजीब सी मनोवैज्ञानिक स्थिति है. सफलता यही है कि कुछ नहीं हुआ."
भारत के जंगलों पर भी है बड़ा जोखिम
भारत में जंगल में आग लगने की अधिकतर घटनाएं आमतौर पर नवंबर से जून तक होती हैं. ज्यादातर पतझड़ी या पर्णपाती वनों में आग लगती है. सदाबहार, आंशिक सहाबहार और पहाड़ी जंगलों पर वाइल्डफायर का जोखिम कम है. हालांकि, अब बारिश और बर्फबारी में आई नाटकीय कमी यह स्थिति भी बदल सकती है.
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) की 2019 में आई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 36 फीसदी से ज्यादा वन्यक्षेत्र नियमित तौर पर जंगल की आग के खतरे का सामना कर रहा है. वहीं, चार फीसदी वन्यक्षेत्र अत्यधिक खतरे की जद में है. यह वन्यजीव और जैवविविधता के लिए भी बड़ी नाजुक स्थिति है.
जंगलों की आग को कम-से-कम करने के लक्ष्य से भारत का पर्यावरण, जंगल एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय 2018 में एक राष्ट्रीय योजना लाया. इस योजना में जंगल के पास रह रहे समुदायों को सूचना देना और आग लगने की स्थिति में वन विभाग के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करना शामिल है.
साथ ही, जंगल में आग लगने के लिहाज से जोखिम भरी चीजों को घटाना, वन विभाग के कर्मियों की क्षमता बढ़ाना और आग लगने के बाद रीकवरी की प्रक्रिया तेज करने पर ध्यान देने की भी बात है. मंत्रालय ने एक केंद्रीय निगरानी समिति (सीएमसी) का भी गठन किया है, जो फॉरेस्ट फायर पर बनाई गई योजना के क्रियान्वयन पर नजर रखेगी.
आग बुझाने से ज्यादा बचाव पर ध्यान देने की जरूरत
जेजुस सन मिगेल, यूरोपियन कमिशन जॉइंट रिसर्च सेंटर से जुड़े एक विशेषज्ञ हैं. उन्होंने एएफपी को बताया कि आग सीमा नहीं देखती, ऐसे में इन आपदाओं से साथ मिलकर निपटने के लिए सरकारों के बीच एक व्यवस्था आकार ले रही है. यूरोपीय संघ (ईयू) के सदस्य देशों में अपने संसाधन साझा करने का मजबूत मॉडल है.
जंगल की आग पर काबू पाने के तरीकों में बदलाव की जरूरत
सन मिगेल बताते हैं कि ईयू के बाहर के देशों को भी जरूरत पड़ने पर ब्लॉक के दमकल उपकरणों और आर्थिक सहायता का फायदा मिला है. लेकिन वह यह भी कहते हैं कि जंगल की आग जिस तरह तेजी से ज्यादा प्रचंड होती जा रही है, ऐसे में सिर्फ आग बुझाने के उपाय काम नहीं आएंगे. उन्होंने कहा, "नागरिक सुरक्षा विभाग के साथी हमें बताते हैं, "हम आग से नहीं लड़ सकते. जमीन पर पहुंचने से पहले ही पानी भाप बनकर उड़ जाता है. हमें बचाव पर और ज्यादा काम करने की जरूरत है."