नयी दिल्ली, 18 फरवरी दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि एक कैदी को नीतियों की कमी के कारण कष्ट भुगतने नहीं दिया जा सकता और कैदियों के मूल अधिकारों के प्रति ‘सुस्त अधिकारियों को उनके ढीले रवैये से जगाने’ के लिए अदालत को सख्त रुख अपनाने की जरूरत थी।
जेल में काम के दौरान एक कैदी को दिये जाने वाले मुआवजे के आकलन और उसकी मात्रा को लेकर कई दिशानिर्देश जारी करते समय अदालत ने ये टिप्पणी की।
अदालत ने कहा कि उस स्थिति में जब एक सजायाफ्ता का काम के कारण अंग-भंग होता है या जानलेवा चोट का शिकार होता है, तो जेल अधीक्षक 24 घंटों के अंदर घटना की सूचना जेल निरीक्षण न्यायाधीश को देने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं।
यह भी कहा गया कि पीड़ित को दिए जाने वाले मुआवजे के आकलन और उसकी मात्रा निर्धारित करने के लिए दिल्ली के महानिदेशक (जेल), एक सरकारी अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक और संबंधित जिले के दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएसएलएसए) के सचिव वाली तीन सदस्यीय समिति का गठन किया जाएगा।
अदालत ने यह भी कहा कि सरकार की ओर से चोटिल व्यक्ति को अंतरिम मुआवजा प्रदान किया जाएगा। यह व्यवस्था तब तक कामय रहेगी जब तक कि भारतीय संसद के विवेकानुसार जरूरी दिशानिर्देश तैयार नहीं कर लिया जाता या नियम नहीं बना लिये जाते या जेल अधिनियम-1994 में संधोधन नहीं किया जाता।
उच्च न्यायालय ने साफ किया है कि ये दिशा-निर्देश काम के दौरान दोषी के अंग-भंग या किसी अन्य जानलेवा चोट के मामले में ही लागू होंगे।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा ने कहा कि हालंकि इस फैसले की मंशा कैदियों के लिए नये अधिकार सृजित करने की नहीं है, लेकिन यह दोषी ठहराए गए कैदी के समानता के अधिकार, जीवन के अधिकार और उसकी मानवीय गरिमा को व्यक्त करता और दोहराता है।
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