नयी दिल्ली, 15 मराठा आरक्षण कानून का विरोध कर रहे याचिकाकर्ताओं ने उच्चतम न्यायालय में सोमवार को कहा कि सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए निर्धारित 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को बदलने का मतलब जाति आधारित समाज होगा, न कि न्याय आधारित समाज और इसलिए पहले से तय आरक्षण की समीक्षा नहीं की जानी चाहिए।
उच्चतम न्यायालय ने यह तय करने के लिए आज सुनवाई शुरू की कि आरक्षण से संबंधित मंडल प्रकरण नाम से चर्चित इंदिरा साहनी मामले पर एक वृहद पीठ को पुनर्विचार करना चाहिए या नहीं।
न्यायालय ने 1992 में अधिवक्ता इंदिरा साहनी की याचिका पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए जाति-आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय कर दी थी।
न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर, न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति आर रवीन्द्र भट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ से कुछ राज्यों ने अभिवेदन के संक्षित नोट दाखिल करने के लिए समय मांगा था। पीठ ने सभी राज्यों को इसके लिए एक सप्ताह का समय दिया।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार ने 1992 के फैसले पर बृहद पीठ के पुनर्विचार करने के सवाल पर दलीलें पेश करते हुए कहा कि इंदिरा साहनी फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है।
दातार ने तर्क दिया कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय करने समेत कई मामलों से जुड़े इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए 11 सदस्यीय पीठ के गठन की आवश्यकता होगी, जो अनावश्यक है।
उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय की स्थापना के बाद केवल पांच बार ऐसा हुआ है, जब 11 न्यायाधीशों की पीठ गठित की गई है और ऐसा अद्वितीय एवं संवैधानिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों की समीक्षा के लिए किया गया है।
दातार ने कहा कि मामले में केवल यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या आरक्षण की 50 प्रतिशत की अधिकतम तय सीमा का उल्लंघन किया जा सकता है। इसमें 1992 के फैसले से जुड़े अन्य मामलों को नहीं उठाया गया है।
उन्होंने कहा, ‘‘इंदिरा साहनी फैसला काफी विचार-विमर्श के बाद सुनाया गया था और मेरे विचार से उस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं है।’’
दातार ने कहा कि फैसले के बाद से ही 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा को स्वीकार कर लिया गया है।
उन्होंने कहा कि निर्धारित 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा बदलने का मतलब जाति आधारित समाज होगा, न कि न्याय आधारित समाज और इसलिए पहले से तय आरक्षण की समीक्षा नहीं की जानी चाहिए।
पीठ ने कहा, ‘‘विभिन्न राज्यों के वकीलों के अनुरोध पर हम लिखित अभिवेदन के संक्षिप्त नोट दाखिल करने के लिए उन्हें एक सप्ताह का समय देते हैं।’’
सुनवाई की शुरुआत में केरल की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता जयदीप गुप्ता ने राज्य में विधानसभा चुनाव के मद्दनेजर सुनवाई स्थगित किए जाने का अनुरोध किया, जिसे पीठ ने खारिज करते हुए कहा, ‘‘हम चुनाव के कारण इस मामले की सुनवाई स्थगित नहीं कर सकते।’’
पीठ ने कहा कि संविधान के 102वें संधोशन के मामले पर निर्णय लेने की आवश्यकता है, क्योंकि इससे हर राज्य प्रभावित होता है।
तमिलनाडु का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफाडे ने कहा कि न्यायालय को उन विशेष परिस्थितियों पर गौर करना होगा, जिनमें 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक आरक्षण दिया गया है।
नफाडे और गुप्ता ने कहा कि आरक्षण नीति संबंधी मामला है, इसलिए चुनावों के कारण इस मामले की सुनवाई स्थगित की जानी चाहिए।
पीठ ने कहा कि वह तथ्यात्मक पहलुओं पर फैसला नहीं कर रही और वह कानूनी पक्ष पर विचार करेगी।
शीर्ष अदालत ने आठ मार्च को संविधान पीठ के समक्ष उठाए जाने वाले पांच प्रश्न तैयार किए थे, जिनमें मंडल फैसले के पुनर्विचार का प्रश्न भी शामिल है।
उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों से इस ‘अति महत्वपूर्ण’ मुद्दे पर जवाब मांगा था कि क्या संविधान का 102वां संशोधन राज्य विधायिकाओं को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों का निर्धारण करने को लेकर कानून बनाने और अपनी शक्तियों के तहत उन्हें लाभ प्रदान करने से वंचित करता है।
संविधान में किये गए 102 वें संशोधन अधिनियम के जरिये अनुच्छेद 338 बी जोड़ा गया, जो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन, उसके कार्यों और शक्तियों से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 342 ए किसी खास जाति को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग अधिसूचित करने की राष्ट्रपति की शक्ति और सूची में बदलाव करने की संसद की शक्ति से संबंधित है।
शिक्षा और नौकरियों में मराठा समुदाय को आरक्षण देने संबंधी 2018 के महाराष्ट्र कानून से संबंधित याचिकाओं की सुनवाई कर रही पीठ के समक्ष इस संविधान संशोधन की व्याख्या का मामला उठा था।
(यह सिंडिकेटेड न्यूज़ फीड से अनएडिटेड और ऑटो-जेनरेटेड स्टोरी है, ऐसी संभावना है कि लेटेस्टली स्टाफ द्वारा इसमें कोई बदलाव या एडिट नहीं किया गया है)