वियतनाम युद्ध ने कैसे बदला जंग के लिए दुनिया का नजरिया
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

वियतनाम युद्ध को खत्म हुए 50 साल हो गए हैं. मोर्चे पर दगी आखिरी गोली के साथ इस युद्ध का असर खत्म नहीं हुआ. जंग क्या होती है और इसका असर कितना गहरा होता है, वियतनाम वॉर ने इन पहलुओं पर दुनिया का नजरिया ही बदल दिया.वियतनाम युद्ध 20वीं सदी के सबसे लंबे सैन्य संघर्षों में से एक था. साल 1955 से 1975 के बीच, दो दशक तक चला यह युद्ध औपनिवेशिक फ्रांस के खिलाफ वियतनाम के युद्ध के ठीक बाद शुरू हुआ.

वियतनाम युद्ध में लगभग 38 लाख लोगों की जान गई. अमेरिका समर्थित दक्षिण वियतनाम की सत्ता की हार के साथ यह युद्ध खत्म हुआ. उत्तर और दक्षिण वियतनाम, दोनों ही जगहों पर कम्युनिस्ट ताकतों की जीत हुई.

वियतनाम युद्ध और इसके परिणाम पर काफी कुछ लिखा गया है. हालांकि, एक पक्ष खासतौर पर ध्यान देने योग्य है, जैसा कि तेल अवीव यूनिवर्सिटी में विज्ञान के इतिहासकार और प्रोफेसर होसे ब्रूनर ने लिखा है. यह पहलू है, युद्ध के दीर्घकालीन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक नतीजों को जानना और समझना.

पोस्ट-वियतनाम सिंड्रोम

कम-से-कम, पहले विश्व युद्ध के समय से हम ये जानते हैं कि सैनिक जंग खत्म होने के बाद भी लंबे वक्त तक हिंसा के अपने अनुभवों की तकलीफ उठाते हैं. जर्मनी में तथाकथित "वॉर शिवरर्स" ने पैनिक अटैक का अनुभव किया, या खाने से इनकार कर दिया.

डॉक्टरों को वजह समझ नहीं आ रही थी. उस दौर के मिजाज के मुताबिक, इन लोगों को ये सोचकर खारिज कर दिया कि वो काम से बचने के लिए बीमार होने का बहाना कर रहे हैं, या फिर उन्हें उनके ही भरोसे ठीक होने के लिए छोड़ दिया गया.

वियतनाम युद्ध ने इस मानसिकता को बदला. साल 1972 में, मनोचिकित्सक खाइम एफ. शाटन की न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार में पोस्ट-वियतनाम सिंड्रोम पर एक रिपोर्ट छपी. उन्होंने युद्ध का लंबा अनुभव रखने वाले वियतनाम के सैनिकों के साथ काम किया था. शाटन ने लिखा कि किस तरह सैनिक अपराधबोध से ग्रस्त थे, युद्ध ने किस तरह उन्हें क्रूर बना दिया था और किस तरह वो बाकी इंसानों से गहरी विरक्ति महसूस करते थे.

शाटन ने लिखा, "सबसे मार्मिक पक्ष है, दूसरों को प्यार कर पाने और लगाव को स्वीकार कर पाने की अपनी क्षमता पर उनका बेहद तकलीफदेह संशय. एक अनुभवी सैनिक ने कहा: मैं उम्मीद करता हूं कि जिस तरह मैंने नफरत करना सीखा, उतना ही प्यार कर पाना सीख पाऊं. मैंने बहुत नफरत की है, लेकिन प्यार बहुत भारी शब्द है."

होसे ब्रूनर ने रेखांकित किया कि यह लेख यह समझने के लिहाज से अभूतपूर्व था कि युद्ध इंसानों पर क्या असर छोड़ता है, "यह दरअसल पहली बार था, जब ये स्वीकार किया गया कि आखिरी दागी गई गोली के साथ युद्ध खत्म नहीं होता है, क्योंकि सैनिक लंबे समय तक अपने भीतर अदृश्य रूप से युद्ध ढोते रहते हैं."

पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर

1980 के दशक से पहले 'अमेरिकन साइकिएट्रिक एसोसिएशन' ने इस डिसॉर्डर को आधिकारिक तौर पर पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर (पीटीएसडी) के रूप में मान्यता नहीं दी थी. 1983 में अमेरिकी कांग्रेस के आदेश से एक जांच हुई, जिसमें पता चला कि 15 फीसदी अनुभवी सैनिक (वेट्रन्स) इससे प्रभावित हैं. इनकी कुल संख्या 4,00,000 से भी ज्यादा थी.

वियतनाम युद्ध खत्म होने के 40 साल बाद एक और अध्ययन हुआ. इसमें पाया गया कि पांच में से एक शख्स उस समय तक भी पीटीएसडी से जूझ रहा है. बाकियों के मुकाबले पीटीएसडी से प्रभावित लोगों के जल्द मरने की आशंका दोगुनी थी. पीटीएसडी का इलाज किया जा सकता है, या कम-से-कम थैरपी और दवाओं से इसका असर कम किया जा सकता है. ज्यादातर प्रभावित लोगों में समय के साथ इसकी गंभीरता कम हो जाती है.

अमेरिका में इस स्थिति की तुलना में वियतनाम की हालत बिल्कुल अलग थी. जैसा कि सियोल (दक्षिण कोरिया) की नेशनल यूनिवर्सिटी में वियतनाम मामलों के विशेषज्ञ और इतिहासकार मार्टिन ग्रोसहाइम ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैं एकदम पक्के तौर पर कह सकता हूं कि ट्रॉमा से प्रभावित वियतनामी सैनिकों की संख्या बहुत ज्यादा थी. लेकिन वियतनाम में ये कभी मुद्दा ही नहीं रहा."

ग्रोसहाइम इसकी मुख्य वजह यह बताते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ वियतनाम (सीपीवी) पहले भी और अब भी, यह निर्धारित करती है कि युद्ध के बारे में क्या कहा जा सकता है और क्या नहीं कहा जा सकता. वह ध्यान दिलाते हैं, "अमेरिकियों के खिलाफ साहसी लड़ाई की आधिकारिक छवि में मनौवैज्ञानिक समस्याएं फबकी नहीं हैं."

ये स्वास्थ्य समस्याएं वास्तविक थीं, इसे लेखक और पूर्व सैनिक बाओ निन्ह के उदाहरण से समझा जा सकता है. साल 1987 में निन्ह का लिखा एक उपन्यास "दी सॉरोज ऑफ वॉर" (युद्ध के शोक) छपा था. इसका मुख्य किरदार जंग की अपनी यादों से राहत पाने के लिए शराब का सहारा लेता है और समाज से एक गहरा विराग महसूस करता है. यह काल्पनिक कहानी छपने के फौरन बाद ही प्रतिबंधित कर दी गई.

समूचे समाज के लिए सदमा

ब्रूनर बताते हैं कि सदमे से उबरना बस एक निजी मसला नहीं है. वह कहते हैं, "बात केवल लोगों को अलग-अलग इलाज देने की नहीं है. इतना भर करना पर्याप्त नहीं है कि सभी प्रभावित लोगों को एक साथ बिठाकर उनका इलाज कर दो और फिर सब ठीक हो जाए. मुझे नहीं लगता कि ये चीज इस तरह प्रभावी होती है. यहां सवाल है कि समाज किस तरह युद्ध का सामना करे. और, इसका असर लोगों पर होता है."

ब्रूनर बताते हैं कि समाज में एक-दूसरे पर असर डालने की प्रक्रिया के चार आयाम हैं. पहला, मृतकों को याद करने से जुड़े रिवाज. क्या कब्रों पर फूल चढ़ाए जाते हैं? क्या उनकी याद में सार्वजनिक कार्यक्रम होते हैं? क्या वियतनाम की तरह सैनिकों को नायकों की तरह पूजा जाता है, या उन्हें अपराधी की तरह देखा जाता है जैसे कि वियतनाम युद्ध लड़ने वाले अमेरिकी योद्धा जिनकी युद्ध खत्म होने के बाद "बच्चों का हत्यारा" कहकर अमेरिका में निंदा की गई?

दूसरा आयाम है कि प्रचलित धारणाएं किस तरह एक भूमिका निभाती हैं. इसका यह मतलब नहीं है कि इतिहासकार कैसे किसी युद्ध पर शोध करते हैं. बल्कि इसका आशय यह है कि स्कूली किताबों, प्रचलित सिनेमा और उपन्यासों में युद्ध का चित्रण किस तरह किया जाता है.

तीसरा आयाम यह है कि क्या लड़ाई कर रहे पक्षों के बीच बाद में सुलह होती है. और सबसे आखिर में यह पहलू बहुत अहम है कि क्या सैनिकों के अत्याचारों और उनकी मनोवैज्ञानिक तकलीफों को सामाजिक तौर पर जाना-समझा जाता है, या तथ्यों को नकार दिया जाता है. ब्रूनर रेखांकित करते हैं, "शुरुआती दशकों में, और मैं ये बतौर इतिहासकार कह रहा हूं कि ऐसी प्रक्रियाओं के लिए कुछ दशक बहुत लंबे नहीं हैं. इनकार करना काफी आम है."

युद्ध की विरासत

वियतनाम युद्ध के संदर्भ में, जंग के बाद के परिणाम दशकों बाद भी बने रहे. विशेषज्ञ बताते हैं कि ये असर निजी और सामाजिक, दोनों स्तरों पर बने रहे. 50 साल पहले जब युद्ध खत्म हुआ, तो वियतनाम में परेडों, परिचर्चाओं और राजनीतिक भाषणों के साथ इसका जश्न मनाया गया. ये सब कुछ सीपीवी द्वारा तय किए गए दायरों के भीतर हुआ.

ग्रोसहाइम के अनुसार, खुद को देश की कामयाबी के गारंटर के रूप में पेश करना सीपीवी का मकसद था. वह कहते हैं, "आधिकारिक शब्दों के मुताबिक, फ्रांस पर मिली जीत के बाद 'अमेरिकी औपनिवेशकों' पर विजय मिली. फिर इसके बाद सफल सुधार नीति आई." सुधार नीति का संदर्भ 1980 के दशक के अंत में लाए गए आर्थिक सुधारों से है, जिसने वियतनाम को दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना दिया.

सुलह और सामंजस्य भी हुआ है, लेकिन एक अजीब सी असंगति के साथ. एक ओर जहां अमेरिकियों का स्वागत है, वहीं भूतपूर्व दक्षिण वियतनामी विरोधी के साथ अब भी "मेल-मिलाप की एक बड़ी समस्या" है. क्या हुआ था, इसपर खुलकर बात नहीं होती है.

दक्षिण वियतनामी सैनिकों ने जो झेला, उसे बहुत हिचक के साथ स्वीकारा जाता है. इसको इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि युद्ध खत्म होने के बाद दक्षिण वियतनाम के सैनिकों के कब्रिस्तानों का अपमान किया गया और फिर लंबे समय तक उनकी अनदेखी जारी रही. जानबूझकर उनके रिश्तेदारों को कब्रों की देखभाल की इजाजत नहीं दी गई.

साल 2007 में आकर इस रुख में तब्दीली आई. वियतनाम सरकार ने कब्रिस्तानों पर लगाया अंकुश खत्म किया और कब्रों के देखभाल की अनुमति दी. ग्रोसहाइम बताते हैं, "राष्ट्रीय समन्वय के लिए यह एक अहम योगदान था. भूतपूर्व शत्रु के साथ सुलह और मेल-जोल की दिशा में और भी बड़ा कदम होता अगर वियतनाम की सरकार लोगों को दक्षिण वियतनाम के मारे गए या लापता हो गए सैनिकों के अवशेष खोजने की इजाजत देती."

मारे गए सैकड़ों सैनिकों के अवशेष अब भी नहीं मिले हैं. वियतनाम में पुरखों को पूजना सांस्कृतिक तौर पर बहुत अहमियत रखता है. बहुत सारे लोग मानते हैं कि अंतिम संस्कार के बाद ही मृतकों की रूह को चैन और सुकून मिलता है.

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