
जब से डॉनल्ड ट्रंप ने कुछ देशों पर भारी टैक्स लगाने की घोषणा की है, तब से व्यापार का पुराना और नियमबद्ध ढांचा पूरी तरह से बिगड़ गया है. अब जर्मनी जैसे देश इससे बचने का समाधान ढूंढ रहे है.व्यापार सुरक्षा दुनिया के लिए कोई नई बात नहीं है. यहां तक कि निर्यात पर निर्भर जर्मनी के लिए भी नहीं. 19वीं सदी में जर्मनी के तत्कालीन चांसलर, ओटो फॉन बिस्मार्क ने भी विदेशों से सस्ता गेहूं आने से रोकने के लिए आयात पर टैरिफ लगाने की कोशिश की थी.
यह फैसला प्रभावशाली किसानों के दबाव में लिया गया था ताकि यूरोप के बाकी देशों से आयात होने वाले सस्ते गेहूं को जर्मनी में आने से रोका जा सके. हालांकि यह कोशिश नाकाम हो गई थी.
अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप, जो इतिहास को अलग नजरिये से देखते हैं. उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के एक नई व्यापार सुरक्षा नीति शुरु करने की कोशिश की है. सख्त शुल्क नीति लागू कर वह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यानी अमेरिका को बाहरी प्रतिस्पर्धा से बचाना चाहते है.
डच बैंक आईएनजी के अर्थशास्त्री, कार्स्टन ब्रजस्की का कहना है, "ज्यादातर पश्चिमी देशों की तरक्की का बड़ा कारण आजाद व्यापार नीति रही है, जिसे पीछे धकेलने की कोशिश की जा रही है. ऐसे में अब एक नए संतुलन तक पहुंचने में वक्त लगेगा.”
बिना सोचे-समझे जवाब देना व्यर्थ है
ब्रजस्की का मानना है कि ट्रंप की नीतियों का जवाब बदले की भावना से देना मूर्खता होगी खासकर तब जब "लिबरेशन डे" की घोषणा के हफ्ते भर बाद भी अमेरिका की कोई स्पष्ट रणनीति सामने नहीं आई है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "अभी ट्रंप को जवाब देने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि उनकी नीतियां बहुत अस्थिर हैं.”
हालांकि, फिर भी यूरोपीय संघ ने शुरुआत कर दी है. उन्होंने मोटरसाइकिल और बॉर्बन व्हिस्की जैसे कुछ अमेरिकी उत्पादों पर जबाबी शुल्क लगाने की धमकी दी है. जब अमेरिका ने फ्रांसीसी और इटैलियन रेड वाइन को अगला निशाना बनाने के संकेत दिए, तो यूरोपीय संघ ने बॉर्बन को सूची से हटा दिया.
अगर ट्रंप की जवाबी शुल्क की सूची को ध्यान से देखा जाए तो साफ हो जाता है कि वह असल में उन्हीं देशों को निशाना बना रहे हैं जिनका अमेरिका के साथ बड़ा और 'अनुचित' ट्रेड सरप्लस है. ब्रजस्की के अनुसार इसलिए "चीन, कनाडा, मैक्सिको और जर्मनी" निशाने पर हैं.
भले ही ट्रंप, यूरोपीय संघ को पसंद नहीं करते लेकिन 27 देशों वाला यह संघ उनका मुख्य निशाना नहीं है. उनके निशाने पर चीन है, जो अमेरिका की जगह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की कोशिश कर रहा है.
इसी वजह से चीन को सबसे कड़े टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है. अमेरिका को निर्यात होने वाले उसके सभी सामानों पर 145 फीसदी का टैक्स लगाया गया है, जिसकी पुष्टि व्हाइट हाउस ने 10 अप्रैल को की थी.
ब्रसेल्स जवाबी कार्रवाई के लिए बर्लिन की ओर देख रहा
डॉयचे बैंक रिसर्च के अर्थशास्त्री, मार्क शाटनबर्ग और रॉबिन विंकलर का मानना है कि जर्मनी ट्रंप के टैरिफ से बच नहीं पाएगा. इस मुद्दे पर खुलकर सामने आने के लिए वह जर्मन नेताओं से अपील करते है.
अपनी रिसर्च रिपोर्ट में वह लिखते हैं कि टैरिफ से मिला झटका "आने वाली जर्मन सरकार पर यह दबाव डाल रहा है कि वह विश्व भर में चुनौतीपूर्ण माहौल के बीच देश की अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धा से रक्षा करे.”
उनकी यह बात जर्मनी की मौजूदा राजनीतिक दुविधा की ओर इशारा करती है. मार्च में हुए चुनावों के बाद से अब तक नया चांसलर चुना नहीं गया है और इसके साथ ही नए मंत्रियों की नियुक्ति भी लंबित हैं.
इस राजनीतिक अनिश्चितता की वजह से यूरोपीय संघ में यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की आवाज कमजोर पड़ गई है. हालांकि, अच्छी बात यह है कि यूरोपीय आयोग ने फैसला लिया है कि वह जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाएंगे, बल्कि बातचीत के जरिए हल निकालने की कोशिश करेंगे.
जर्मनी की निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था को ट्रंप प्रशासन और दुनिया के बीच व्यापार युद्ध होने से भारी नुकसान हो सकता है. चूंकि ऑटोमोबाइल, रसायन, मशीनरी और दवा उद्योग जैसे सेक्टरों की अमेरिका में मजबूत मौजूदगी है.
ब्रजस्की का मानना है कि पहली नजर में देखें तो अमेरिका के बाजार में हिस्सेदारी खोना बहुत बड़ा नुकसान नहीं लगता, क्योंकि ईयू के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल लगभग तीन फीसदी ही अमेरिकी निर्यात से आता है. हालांकि जर्मनी के लिए यह मामला गंभीर हो सकता है क्योंकि यहां "लाखों नौकरियां” अमेरिकी निर्यात पर निर्भर हैं.
इसके अलावा, अगर ट्रंप चीन को अमेरिकी बाजार से बाहर निकालने में कामयाब हो जाते हैं, तो बीजिंग अपना भारी सब्सिडी वाला उत्पाद यूरोपीय बाजार में भर सकता है, जिससे यहां की इंडस्ट्री को नुकसान हो सकता है.
व्यापार युद्ध का कोई फायदा नहीं
ब्रजस्की का मानना है कि समय के साथ अगर व्यापार के पैटर्न में बदलाव आता है, तो घरेलू बाजार पर केंद्रित जर्मन कंपनियां कुछ हद तक फायदा उठा सकती हैं. फिर भी यह कंपनियां पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हो सकेंगी क्योंकि निर्यात उद्योगों में आने वाला झटका पूरे देश की अर्थव्यवस्था पर असर डालेगा.
तो क्या जर्मन कंपनियां अपना काम अमेरिका शिफ्ट करेंगी, जैसा कि ट्रंप की व्यापार नीति का लक्ष्य है?
ब्रजस्की कहते है, "बाइडेन प्रशासन के आखिरी दिनों में और इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट के कारण कई यूरोपीय कंपनियां पहले से ही अमेरिका में निवेश करने पर विचार कर रही थी.” वहां नियमों में ढील, सस्ती ऊर्जा और टैक्स में कटौती ने अमेरिका को "काफी आकर्षक” बना दिया था.
अब अमेरिकी राष्ट्रपति की अनिश्चित आर्थिक नीतियां और टैरिफ की अस्थिरता ने कंपनियों के बीच कानूनी नियमों को लेकर संदेह पैदा कर दिया है क्योंकि कई कारोबारी अमेरिका जाने की जल्दी में है.
यूरोप, अमेरिकी शुल्क के जवाब में उचित कदम तलाश रहा है. नीति-निर्माता अमेरिका की बड़ी टेक कंपनियों पर डिजिटल टैक्स लगाने पर विचार कर रहे हैं. जर्मनी की डिजिटल इंडस्ट्री एसोसिएशन, बिटकॉम के मैनेजिंग डायरेक्टर, फाबियन जाखारियस, इसको लेकर चेतावनी देते हैं.
उन्होंने मैडसाक मीडिया ग्रुप के संयुक्त न्यूजरूम को बताया, "यूरोपियन डिजिटल टैक्स लगाना व्यापार युद्ध में सबसे खराब जवाबी हमला होगा. व्यापार नीति की समस्या को एक नए टैक्स से हल करने की कोशिश करना बिल्कुल गलत है.” उनकी राय है कि यूरोप को तनाव कम करने की रणनीति अपनानी चाहिए.
ऑस्ट्रियन इंस्टिट्यूट ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च के प्रमुख, गाब्रिएल फेल्बरमायर ने एक वैकल्पिक सुझाव दिया. उनका कहना है कि चूंकि ईयू अपने क्षेत्र से निकलने वाले सामान पर निर्यात शुल्क लगा सकता है, तो यह अमेरिका को भेजे जाने वाले यूरोपीय उत्पादों पर भी टैक्स लगाया जा सकता है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि सेमीकंडक्टर उत्पादन के लिए हाई-टेक मशीनें, जिसे वर्तमान में केवल यूरोप की डच कंपनी एएसएमएल बनाती है, उस पर टैक्स लगाया जा सकता है.
इन मशीनों पर भारी निर्यात टैक्स लगाने से अमेरिकी कंपनियों को भारी नुकसान हो सकता है और शायद इससे अमेरिकी सरकार को भी समझौता करने पर मजबूर किया जा सके.
हालांकि, ब्रजस्की इस तरह के निर्यात टैक्स से सहमत नहीं हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "यह ज्यादा अच्छा होगा कि ईयू नीति-निर्माता अब अपने पूरे प्रयास निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर सुधार, नौकरशाही को कम करने और उद्योग व रक्षा जैसे क्षेत्रों में एकता के साथ काम पर लगाए.” उनका मानना है कि ऐसे सुधार भविष्य में जवाबी टैरिफ से कहीं ज्यादा असरदार साबित हो सकते है.