ब्रिक्स की कामयाबी में और कितनी ईंटों की जरूरत
दुनिया के सिर्फ पांच देशों के समूह 'ब्रिक्स' में ऐसा क्या है कि दर्जनों देश इसकी ओर खिंचे चले आ रहे हैं? रिपोर्टों के अनुसार करीब चालीस देशों ने ब्रिक्स में शामिल होने की अच्छी जाहिर की है.
दुनिया के सिर्फ पांच देशों के समूह 'ब्रिक्स' में ऐसा क्या है कि दर्जनों देश इसकी ओर खिंचे चले आ रहे हैं? रिपोर्टों के अनुसार करीब चालीस देशों ने ब्रिक्स में शामिल होने की अच्छी जाहिर की है.22 से 24 अगस्त तक दक्षिण अफ्रीका के जोहानेसबर्ग में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के नेता बंद दरवाजों के पीछे इस बात पर चर्चा करेंगे कि क्या इस समूह का स्वरूप बदलने का समय आ गया है? अगर हां, तो कौन से देशों को इससे जोड़ा जा सकता है? और वो कौन से पैमाने होंगे जिन पर यह निर्णय आधारित होगा. पिछले सालों में कई नए अंतरराष्ट्रीय संगठन बने हैं और पुराने कमजोर पड़े हैं. लेकिन दुनिया की बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के समूह ब्रिक्स में दुनिया की दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही है.
ब्रिक्स का गठन एक ऐसे समय में हुआ था, जब दुनिया को नए भूराजनैतिक नजरिए से देखा जा रहा था. आर्थिक प्रगति के वजह से दुनिया के बहुत सारे देश तेजी से उभर रहे थे. वे न सिर्फ आर्थिक विकास में अपना हिस्सा चाहते थे बल्कि विश्व राजनीति में भी अहम भूमिका निभाना चाहते थे.
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संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की बात हो रही थी और भारत और ब्राजील के अलावा जर्मनी और जापान जैसे देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनना चाहते थे. संयुक्त राष्ट्र का सुधार तो नहीं हुआ, बाद के सालों में वह और भी वैश्विक प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गया, उस समय बने जी 4 जैसे संगठन उतने अहम नहीं रहे, लेकिन ब्रिक्स अपने बड़े बाजार, सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों और इन देशों के वैश्विक मंच पर अपने हितों के दावों की वजह से महत्वपूर्ण होता चला गया.
ब्रिक्स की नींव
2001 में अमेरिकी निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्स ने अपनी एक रिपोर्ट में ब्राजील, रूस, भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं के बारे में एक रिपोर्ट दी. यहां पहली बार 'ब्रिक' शब्द का इस्तेमाल किया गया. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि कैसे विकासशील देशों में इन चार देशों की अर्थव्यवस्थाएं सबसे तेजी से बढ़ रही हैं. इस रिपोर्ट पर इतनी चर्चा हुई कि कुछ साल बाद इन चारों देशों ने अनौपचारिक रूप से साथ आने का फैसला किया. साल 2009 में पहली बार चारों देशों के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रूस में एक दूसरे से मिले और अपनी अर्थव्यवस्थाओं को और मजबूत बनाने पर चर्चा की. अगले साल दक्षिण अफ्रीका भी इसमें शामिल हो गया और यह समूह ब्रिक से ब्रिक्स बन गया.
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एक दशक तक पश्चिमी देश इसे गैरजरूरी समूह समझ कर नजरअंदाज करते रहे. लेकिन पहले कोरोना महामारी और फिर यूक्रेन युद्ध ने ब्रिक्स की अहमियत बदल दी. वैक्सीन संकट के दौरान पश्चिमी देशों का टीकों को विकासशील देशों के साथ साझा ना करना और उसके बाद यूक्रेन युद्ध की शुरुआत से ही उन्हीं देशों से रूस के खिलाफ आवाज उठाने की उम्मीद करना और ऐसा करने के लिए मजबूर करना ब्रिक्स देशों को खटकता रहा है. चीन खुल कर रूस के पक्ष में खड़ा दिखा, भारत ने गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत पर चलने का फैसला किया. वहीं ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका इस कोशिश में रहे कि ना रूस उनसे रूठे और ना अमेरिका मुंह फेरे.
जी-7 बनाम ब्रिक्स
दुनिया भर के विकासशील देशों को इससे यह संदेश मिला कि ब्रिक्स अब इतना मजबूत हो चुका है कि पश्चिमी देशों के वर्चस्व को भी चुनौती दे सकता है. एक के बाद एक दर्जनों देशों ने इससे जुड़ने की इच्छा व्यक्त करनी शुरू की. 2001 में जहां ये पांच देश दुनिया के कुल जीडीपी का मात्र आठ फीसदी हिस्सा थे, आज यह हिस्सा बढ़कर 26 फीसदी हो चुका है. इसमें भारत और चीन की सबसे बड़ी भूमिका है. वहीं विश्व अर्थवस्था में जी-7 देशों का वर्चस्व घटा है और जीडीपी में उनका योगदान 65 फीसदी से गिरकर 43 फीसदी रह गया है. ऐसे में ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात समेत चालीस देश ब्रिक्स में शामिल हो कर पश्चिमी देशों को टक्कर देना चाहते हैं.
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ब्रिक्स से जुड़ने का कोई औपचारिक तरीका नहीं है. ना तो देशों को कोई लिखित आवेदन देना होता है, ना ही कोई खास शर्तें पूरी करनी होती हैं. बहुत मुमकिन है कि समूह के विस्तार में यही सबसे बड़ा रोड़ा भी बन जाए. एक तरफ दक्षिण अफ्रीका, इथियोपिया और नाइजीरिया जैसे अफ्रीकी देशों को जोड़ने की पैरवी कर रहा है, तो दूसरी ओर ब्राजील लातिन अमेरिकी देशों अर्जेंटीना और मेक्सिको की. वहीं चीन की कोशिश है सऊदी अरब और इंडोनेशिया जैसे अपने मित्र देशों को साथ लाने की. ऐसा कर के वह अमेरिका के खिलाफ अपनी ताकत बढ़ाना चाहता है.
भारत का उहापोह
एक देश जो इस पूरे विस्तार के पक्ष में नहीं है, वह है भारत. क्योंकि भारत ग्लोबल साउथ की आवाज के रूप में अपनी जगह बनाना चाहता है. ऐसे में ब्रिक्स में चीन का दबदबा बढ़ना भारत की महत्वाकांक्षाओं को जोखिम में डाल सकता है. तो फिर भारत के पास क्या विकल्प रह जाता है? क्या जिस तरह चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के खिलाफ वीटो अधिकार का इस्तेमाल करता है, उसी तरह अब भारत ब्रिक्स में अपने वीटो अधिकार का इस्तेमाल कर के हिसाब बराबर करेगा?
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भारत जानता है कि ऐसा करने से ग्लोबल साउथ में उसकी स्थिति कमजोर हो जाएगी और वह किसी भी हाल में इस तरह का जोखिम नहीं उठा सकता. इसलिए भारत अब सदस्यता देने के लिए औपचारिक मानदंड बनाने पर जोर दे रहा है. मौजूदा पांचों देशों को मिल कर ये मानदंड तैयार करने होंगे. सबके एकमत होने पर ही सदस्यता स्वीकारी जाएगी. अगले तीन दिन नरेंद्र मोदी, शी जिनपिंग, लूला दा सिल्वा, सिरिल रामफोसा और व्लादिमीर पुतिन को इन शर्तों को तय करना होगा. पुतिन के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय गिरफ्तारी वारंट के चलते, वे बैठक में ऑनलाइन ही शिरकत कर रहे हैं लेकिन उनके विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव बैठक में मौजूद रहेंगे.
पश्चिमी देशों में भी ब्रिक्स को एक ऐसे संगठन के रूप में देखा जा रहा है जो उसके गठबंधन को चुनौती दे रहे हैं. लेकिन ब्रिक्स की सबसे बड़ी कमजोरी है उनके बीच साझा मूल्यों का न होना है. सब अपने अपने फायदे में उसका इस्तेमाल करना चाहते हैं. पिछले सालों भारत और चीन के बिगड़े संबंधों ने इसे और कमजोर किया है. अगर ब्रिक्स के देशों को अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के साथ भविष्य में पश्चिमी देशों को टक्कर देनी है, तो इन्हें आपसी मतभेद घटाने पर भी काम करना होगा.