9 नवंबर 1989: बर्लिन दीवार गिरी, उम्मीदें बंधी, सपने अधूरे रहे
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

9 नवंबर 1989. इस तारीख को जब लोग जगे, तो उन्हें पता नहीं था कि दुनिया बदलने वाली है. 35 साल पहले इसी दिन बर्लिन दीवार गिरी. दीवार गिरी, तो उसने दुनिया को चपेट में लिया. लेकिन क्या लोगों की उम्मीदें पूरी हुईं?बर्लिन दीवार का गिरना पूर्वी जर्मनी के कम्युनिस्ट शासन के लिए मौत का दिन साबित हुआ. इसने फिर से एक होने की जर्मन लोगों की चाहत को तो दिखाया ही, उसे नया आयाम भी दिया. एक बार जब जर्मन एकीकरण के प्रयास शुरू हुए, तो उसका असर उस समय के अंतरराष्ट्रीय ढांचे पर भी पड़ा.

एक राष्ट्रीयता, लेकिन दो देश

9 नवंबर की रात जब बर्लिन में सीमा चौकियां खोल दी गईं, तो वहां गजब का आलम था. लोग दिल खोलकर मिल रहे थे, एक-दूसरे को गले लगा रहे थे. ये ऐसे लोग थे, जो 40 साल से एक-दूसरे से अलग थे. नई पीढ़ियां थीं, जो एक-दूसरे को जानती भी नहीं थीं. एक राष्ट्रीयता, लेकिन दो देश. दूसरे विश्व युद्ध ने जर्मनी को बांट दिया था, दो देशों के बीच लकीर खींच दी थी.

ये लकीर बाद में चलकर पहले दो जर्मनी की सीमा बनी. फिर दो विचारधाराओं की सीमा बन गई, अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व में बने दो सैनिक गठबंधनों की. 1961 में जब दीवार बनी, तो दोनों देशों के लोगों का मिलना-जुलना एकदम से रुक गया. बर्लिन दीवार ने रातोंरात शहर को बांट दिया, परिवार बंट गए, दोस्त एक-दूसरे से बिछड़ गए. वे मिल नहीं सकते थे, एक-दूसरे से बात नहीं कर सकते थे.

हर किसी के मन में फिर से जर्मन एकीकरण की बात थी, लेकिन राजनीतिक हकीकत अलग थी. विभाजित देश के लोग भले ही फिर से साथ होने का सपना देख रहे हों, अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक ताकतें ऐसा नहीं चाहती थीं. वे विभाजित जर्मनी में सुरक्षा देखते थे.

द्वितीय विश्व युद्ध की बर्बरता झेल चुके पश्चिमी देशों को एकीकृत जर्मनी का खौफ सताता था. एकीकरण से इनकार कोई नहीं करता, लेकिन एकीकरण कैसे होगा, ये किसी को पता नहीं था. आखिरकार 9 नवंबर 1989 के एक बयान ने इतिहास बदल दिया.

कैसे बनी बर्लिन वॉल गिरने की राह

पूर्वी जर्मनी में उन दिनों उफान मचा था. लोग लोकतंत्र, यात्रा की आजादी और बोलने की आजादी के लिए प्रदर्शन कर रहे थे. पूर्वी जर्मनी में शासन करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी दबाव में थी. पार्टी की सेंट्रल कमेटी की बैठक चल रही थी, जिसमें जीडीआर (जर्मन डेमोक्रैटिक रिपब्लिक, पूर्वी जर्मनी का आधिकारिक नाम) के लोगों को यात्रा का अधिकार दिए जाने पर बहस हो रही थी.

पार्टी सचिव गुंटर शाबोव्स्की प्रेस को संबोधित कर रहे थे. उन्हें पता नहीं था कि कब से पूर्वी जर्मन नागरिक अपने मन से देश के बाहर जा पाएंगे. पूछे जाने पर उन्होंने कहा, मेरी समझ से अभी से.

फिर क्या था लोग सीमा चौकियों की ओर उमड़ पड़े. पार्टी का फैसला आधिकारिक रूप से सीमा अधिकारियों तक पहुंचा भी नहीं था. सीमा चौकियों पर लोगों की भीड़ लग गई. भीड़ देखकर सीमा पुलिस के अधिकारियों ने दरवाजे खोल दिए.

दो सैनिक गठबंधनों को बांटने वाली अभेद्य दीवार में छेद हो चुका था. अब वह लोगों को रोक नहीं सकता था. दो देशों के लोग मिले और वे ऐसे मिले कि अगले 11 महीने के अंदर तेजी से बहुत सारे बदलाव हुए और चार दशकों से बंटा देश फिर से एक हो गया.

उस ऐतिहासिक घटना का एक चश्मदीद

कभी-कभी जब इतिहास आकार ले रहा होता है, तो आप उसे समझ नहीं पाते, देख नहीं पाते. दीवार गिरने की ये घटना जब हो रही थी, तो शाम थी. देर रात लोग सीमा पर जमा होने लगे थे. जो लोग देर शाम काम से आकर सो गए थे, उन्हें सुबह उठने पर ही पता चला कि दुनिया बदल गई है.

मैं उस समय बर्लिन में था, विदेशियों में मशहूर सीमा चौकी 'चेक पॉइंट चार्ली' से डेढ़ किलोमीटर दूर. पूरब और पश्चिम के जर्मनों को इस तरह से भावुक होकर मिलते देखना अद्भुत अनुभव था. दिलों की दीवारें ढह गई थीं, बिछड़े जर्मन साथ आ गए थे. बहुत से लोग ऐसे थे, जिन्हें अपना साम्यवादी देश खोने का डर सता रहा था. तो कुछ ऐसे भी, जो दो जर्मन देशों के महासंघ की बात सोच रहे थे.

जर्मन एकीकरण दिवस पर देश में युद्ध विरोधी प्रदर्शन

उस दिन के बाद हर दिन राजनैतिक माहौल बदलता रहा. बाद के महीनों में पश्चिम जर्मनी के चांसलर हेलमुट कोल ने अद्भुत नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए एकीकरण का प्रस्ताव दिया. उन्होंने पश्चिम के साथियों और सोवियत नेता मिखाइल गोर्वाचेव का भरोसा जीता और एकीकरण को संभव बनाया.

जर्मन एकीकरण बहुत लंबी प्रक्रिया साबित हुई

जर्मन एकीकरण से दुनियाभर के लोगों को बहुत उम्मीदें थीं. कुछ उम्मीदें पूरी भी हुईं. शीत युद्ध की समाप्ति हुई. सोवियत संघ टूट गया, तो रूस ने भी समझा कि विकास के लिए लड़ने के बदले सहयोग जरूरी है. पहले के दुश्मनों के बीच सहयोग शुरू हुआ. रूस और अमेरिका मिलकर काम करने लगे.

कई जगहों पर चल रहा छद्म युद्ध खत्म हो गया. दुनिया में विकास की एक नई हवा चली. विकसित और विकासशील देश मिलकर काम करने लगे. भारत के लिए भी नई स्थिति थी. सैनिक गुट नहीं रहे, तो गुटनिरपेक्षता का फायदा भी नहीं रहा है. भारत आर्थिक सुधारों की राह पर निकला और लगातार मजबूत होता गया.

जर्मनी के सामने एकीकरण की भारी चुनौतियां थीं. विली ब्रांट ने कहा था कि अब जिसे साथ होना था, वह साथ बढ़ेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. एकीकरण के साथ पूर्वी जर्मनी में एक झटके में सब कुछ बदल गया, लेकिन पश्चिम में सब कुछ पहले जैसा ही रहा. देश के दोनों हिस्सों में आधारभूत संरचना और आर्थिक ढांचे अलग-अलग थे. उन्हें एक जैसा बनाना था.

पूर्वी जर्मनी के लोग पश्चिम जैसी आर्थिक समृद्धि चाहते थे. फैक्ट्रियां खस्ताहाल थीं, सड़क टूटे-फूटे थे, ट्रांसपोर्ट का खर्च ज्यादा था और उत्पादकता कम थी. कारखाने बंद होने लगे, तो शुरुआती दौर में पूरब के लोगों ने नौकरी के लिए पश्चिम का रुख किया. अब दोनों ओर से ये आना- जाना लगभग बराबर हो गया है.

35 साल में भी नहीं पाटा जा सका पूरब-पश्चिम का अंतर

बर्लिन की दीवार गिरने के 35 साल बाद जर्मनी में नई पीढ़ियां पैदा हो चुकी हैं. युवा लोगों का भारी बहुमत अपने को जर्मन महसूस करता है, लेकिन पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में अंतर बना हुआ है, इसलिए सोच का अंतर भी है.

अब संपत्ति को ही लीजिए. पश्चिम में हर परिवार की संपत्ति औसत 3 लाख 60 हजार यूरो है, तो पूरब में 1 लाख 51 हजार. इसकी वजह भी है. एक तो साम्यवादी पूरब में संपत्ति बनाने पर ध्यान नहीं दिया जाता था. अब जब लोग संपत्ति बनाने लगे, तो लोगों की औसत तनख्वाह पश्चिम के मुकाबले 15 प्रतिशत कम है.

33 साल बाद भी 'परफेक्ट' नहीं है जर्मन एकीकरण

शुरुआती दिनों में बहुत से लोगों के चले जाने के कारण काम करने वालों की कमी है. इसकी वजह से आर्थिक विकास की दर धीमी है. और, आर्थिक विकास धीमी हो तो घरों की कीमतें नहीं बढ़तीं. लोगों में आमतौर पर पीछे छूटने का एहसास है.

हाल में जर्मनी के तीन पूर्वी राज्यों में हुए चुनावों में उग्र-दक्षिणपंथी पार्टी 'ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी' (एएफडी) को करीब एक तिहाई लोगों का समर्थन मिला है. ये विरोध का मत है और आर्थिक विकास में पीछे छूटने का आक्रोश भी. इसकी वजह से कुछ लोग तो पूरब और पश्चिम में राजनैतिक विभाजन की भी बात कर रहे हैं.

हालांकि, दक्षिणपंथ का उभार सिर्फ जर्मनी में नहीं हुआ है. दुनियाभर में यही रुझान दिख रहा है. अभी-अभी अमेरिका में चुनाव हुए हैं. वहां भी लोगों ने डॉनल्ड ट्रंप के रूप में अति-दक्षिणपंथ को ही चुना है.

बर्लिन दीवार के गिरने के बाद जर्मनी और दुनिया के दूसरे हिस्सों में दिखा उत्साह हर कहीं फुस्स हो चुका है. एक दीवार के गिरने ने जो उम्मीदें जगाई थीं, वो गुब्बारे की हवा की तरह निकल गई है. दुनिया में कई जगहों पर नई दीवारें बन गई हैं और कई दूसरी दीवारें बनाने की तैयारी चल रही है.

9 नवंबर की उस खुशी को याद करना जरूरी है, ताकि कुछ नए सपने देखे जा सकें.