नया सेंसर आसानी से बताएगा मछली में मिलावट है या नहीं

मछली को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए गैरकानूनी तरीके से फॉर्मेलडिहाइड का उपयोग होता है.

प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

मछली को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए गैरकानूनी तरीके से फॉर्मेलडिहाइड का उपयोग होता है. इस केमिकल की वजह से इंसानों को पेटदर्द, सिरदर्द, उल्टी, बेहोशी के अलावा कैंसर भी हो सकता है.भारत और एशियाई देशों में मछलियों को लंबे वक्त तक सुरक्षित रखने के लिए फॉर्मेलडिहाइड नाम का एक केमिकल इस्तेमाल होता रहा है. कई शोध बताते हैं कि इस रसायन के इस्तेमाल से इंसानों को स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याएं हो सकती हैं. पेटदर्द, सिरदर्द, उल्टी, बेहोशी के अलावा कैंसर भी हो सकता है.

फॉर्मेलडिहाइड एक रंगहीन गैस है और इसका पता लगाना काफी मुश्किल काम है. लेकिन देश के विभिन्न संस्थानों से जुड़े पांच वैज्ञानिकों के एक हालिया शोध ने इस मिलावट का पता लगाना आसान कर दिया है.

वैज्ञानिकों ने एक सेंसर की खोज की है, जो कम समय में बिना चीर-फाड़ किए मछली में इस मिलावट का पता लगा सकता है. इस सेंसर को धातु ऑक्साइड के नैनोपार्टिकल्स और ग्राफीन ऑक्साइड के मिश्रण से बनाया गया है. यह सेंसर कमरे के तापमान पर मिलावट वाली मछली से निकलने वाले भाप से फॉर्मेलिन का पता लगा सकता है.

गुवाहाटी के मछली बाजार में टेस्टिंग

इस शोध का नेतृत्व असम के गुवाहाटी विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में सहायक प्रोफेसर हेमेन कुमार कलिता ने किया है. डीडब्ल्यू हिंदी से बातचीत में डॉ. कलिता ने बताया कि अभी इस तकनीक का डिजाइन शुरुआती स्तर पर है. इसे बाजार में लाने से पहले कुछ और तकनीकी प्रक्रियाओं से गुजारना होगा. इस काम में कुछ महीने और लग सकते हैं.

प्रयोगशाला स्तर पर मिलावटी मछली के साथ-साथ गुवाहाटी क्षेत्र के मछली बाजारों में उपलब्ध मछलियों पर भी सेंसर का परीक्षण किया गया है. असम में बाहर के राज्यों से भी मछली आयात की जाती है. सेंसर का प्रयोग उन मछलियों में भी मिलावट का पता लगाने के लिए किया गया. यह सेंसर कई तरह की मछलियों में मिलावट का पता लगाने में कारगर रहा.

मौजूदा तकनीक से अलग कैसे

वर्ष 2018 में सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ फिशरीज टेक्नोलॉजी (सीआईएफटी), कोच्चि ने रैपिड डिटेक्शन किट विकसित किया था. इस किट की मदद से बर्फ में अमोनिया और मछली में फॉर्मेलडिहाइड की मिलावट का पता चल सकता है. अमोनिया बर्फ को पिघलने से रोकने में मदद करता है और इसके इस्तेमाल से मछली जल्दी खराब नहीं होती है.

फॉर्मेलडिहाइड, कार्सिनोजेनिक है और खाने-पीने की चीजों में इसका प्रयोग प्रतिबंधित है. पारंपरिक फॉर्मेलिन का पता लगाने की तकनीक में मछली को काटने की जरूरत पड़ती है. ऐसे में बाजार की जरूरत को देखते हुए बिना चीर-फाड़ वाली किसी तकनीक की जरूरत थी. नए सेंसर की खोज इस समस्या का हल है.

किफायती और कारगर तकनीक

डॉ. कलिता ने सेंसर के काम करने का तरीका समझाते हुए कहा कि यह एक केमिरेसिस्टिव सेंसर है. जब फॉर्मलडिहाइड मिलावटी मछली से वाष्पित हुए सेंसर के संपर्क में आता है, तो इसके करंट में कुछ बदलाव आते हैं. मिलावट का पता चलते ही इस डिवाइस में एक एलईडी लाइट जलती है. प्रमोशन ऑफ यूनिवर्सिटी रिसर्च एंड साइंटिफिक एक्सीलेंस ने शोध को पूरा करने में सहयोग किया है.

इस रिसर्च को एसीएस एप्लाइड नैनो मैटीरियल नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित किया गया है. प्रोटोटाइप की डिजाइनिंग प्रयोगशाला में चल रही है, जिसे खाद्य मिलावट के क्षेत्र में एक सफलता माना जा सकता है. यह प्रोटोटाइप किफायती फॉर्मेलिन सेंसर उपकरणों के विकास के लिए नए रास्ते खोलेगा.

डॉ. कलिता बताते हैं कि रिसर्च टीम का पूरा जोर इस डिवाइस को छोटा, किफायती और कारगर बनाने पर है. वह कहते हैं, "हमने जो प्रोटोटाइप बनाया है, वह मौजूदा तकनीकों से काफी सस्ता है. बाजार में लाने से पहले इसे ज्यादा सस्ता और कारगर बनाने की कोशिश चल रही है.”

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