दिमाग से 'डिलीट' होंगी दर्दनाक यादें? चूहों पर हुआ सफल प्रयोग, जापान में याददाश्त मिटाने पर रिसर्च कर रहे जापानी वैज्ञानिक
जापानी न्यूरोसाइंटिस्ट चूहों पर दर्दनाक यादों को कमजोर या मिटाने के तरीकों पर शोध कर रहे हैं. इसमें नीली रोशनी (ऑप्टोजेनेटिक्स) और मेमोरी 'एडिटिंग' जैसी तकनीकें शामिल हैं, जिनका लक्ष्य भविष्य में PTSD और डर का इलाज करना है. हालांकि, यह तकनीक अभी इंसानों से दशकों दूर है और यादों से छेड़छाड़ पर गंभीर नैतिक सवाल भी उठाती है.
सोचिए, अगर आप अपनी ज़िंदगी की सबसे बुरी या दर्दनाक यादों को अपने दिमाग से मिटा पाते तो कैसा होता. यह किसी साइंस-फिक्शन फिल्म की कहानी जैसा लगता है, है न. लेकिन जापान के न्यूरोसाइंटिस्ट (दिमाग के वैज्ञानिक) ठीक इसी चीज़ पर गंभीरता से रिसर्च कर रहे हैं.
उनका मकसद उन लोगों की ज़िंदगी आसान बनाना है जो किसी गहरे सदमे, हादसे या डर (जैसे PTSD - पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) से गुज़रने के बाद सामान्य जीवन नहीं जी पा रहे हैं.
वैज्ञानिक यह कर कैसे रहे हैं. (अभी चूहों पर)
यह समझना ज़रूरी है कि यह सारी रिसर्च अभी जानवरों (खासकर चूहों) पर हो रही है और इंसानों तक पहुँचने में इसे दशकों लग सकते हैं. वैज्ञानिक मुख्य रूप से इन तरीकों पर काम कर रहे हैं:
- नीली रोशनी का जादू (ऑप्टोजेनेटिक्स): वैज्ञानिकों ने चूहों के दिमाग के उस हिस्से में, जो डर को कंट्रोल करता है (जिसे 'एमिग्डाला' कहते हैं), खास तरह की नीली रोशनी डाली. इस रोशनी से दिमाग की वे नसें (न्यूरल स्पाइन) सिकुड़ गईं जहाँ डर वाली यादें जमा थीं. आसान भाषा में, उन्होंने रोशनी से उस याद को धुंधला कर दिया.
- याददाश्त को 'एडिट' करना (मेमोरी रीकन्सॉलिडेशन): हमारा दिमाग़ बड़ा अजीब है. जब हम किसी पुरानी याद को दोबारा याद करते हैं, तो वह याद कुछ पलों के लिए बहुत कमज़ोर और 'एडिट' होने लायक हो जाती है. वैज्ञानिकों ने इसी मौके का फ़ायदा उठाया. जैसे ही चूहे ने अपनी किसी डरावनी याद को याद किया, वैज्ञानिकों ने लाइट पल्स (रोशनी) का इस्तेमाल करके उस याद को वापस दिमाग में ठीक से स्टोर होने से रोक दिया. इससे उस याद का असर कम हो गया.
- केमिकल का इस्तेमाल: कुछ रिसर्च में केमिकल का इस्तेमाल करके दिमाग के उन एंजाइम को बदला गया जो यादों को सहेजकर रखते हैं. इससे चूहे अपनी पुरानी डरावनी यादों को ठीक से याद नहीं कर पाए.
इस रिसर्च का असली मकसद क्या है
1. PTSD और डर से राहत: इस रिसर्च का सबसे बड़ा लक्ष्य उन लोगों की मदद करना है जो युद्ध, हादसे या किसी सदमे के बाद (PTSD) की स्थिति में हैं. साथ ही, यह उन लोगों के लिए भी मददगार हो सकता है जिन्हें किसी चीज़ से बहुत ज़्यादा डर (फोबिया) लगता है.
2. नशे की लत का इलाज: वैज्ञानिक मानते हैं कि इस तकनीक से नशे की लत का इलाज भी हो सकता है. अगर दिमाग से उन यादों या ट्रिगर्स को कमजोर किया जा सके जो किसी को नशा करने के लिए उकसाते हैं, तो यह एक बड़ी कामयाबी होगी.
पर, क्या यह सब ठीक है?
यह रिसर्च जितनी उम्मीद जगाती है, उतने ही बड़े सवाल भी खड़े करती है:
- क्या यादों से छेड़छाड़ सही है: हमारी पहचान हमारी अच्छी-बुरी यादों से मिलकर बनती है. अगर हम बुरी यादों को मिटाने लगे, तो क्या हम अपनी गलतियों से सीखना बंद नहीं कर देंगे.
- यह 'टोटल वाइप' नहीं है: वैज्ञानिक साफ कहते हैं कि उनका मकसद फिल्मों की तरह इंसान की पूरी याददाश्त मिटाना नहीं है. वे सिर्फ उस याद से जुड़े गहरे सदमे या डर (इमोशनल चार्ज) को कम करना चाहते हैं, ताकि वह याद रहे, लेकिन परेशान न करे.
- अभी बहुत दूर की कौड़ी: वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि यह सब अभी शुरुआती दौर में है. इसके लंबे समय में क्या असर होंगे, कोई नहीं जानता. इंसानों पर इसका सुरक्षित इस्तेमाल शुरू होने में अभी कई साल लगेंगे.
जापान के अलावा अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी जैसी जगहों पर भी वैज्ञानिक यह समझने में लगे हैं कि यादें कैसे बनती हैं और उन्हें कैसे मिटाया जा सकता है. फिलहाल, यह रिसर्च 'इटरनल सनशाइन ऑफ द स्पॉटलेस माइंड' जैसी फिल्म को सच करने से ज़्यादा, गंभीर मानसिक बीमारियों का इलाज खोजने पर टिकी है.