नोट- इस लेख में दी गई तमाम जानकारियों को सूचनात्मक उद्देश्य से लिखा गया है और यह लेखक की अपनी निजी राय है. इसकी वास्तविकता, सटीकता और विशिष्ट परिणाम की हम कोई गारंटी नहीं देते हैं.
क्यों नहीं बचा सके हनुमान जी प्रभु श्रीराम की जान?
श्रीरामचरित मानस के अयोध्याकांड के इस चौपाई में राजा दशरथ की मृत्यु के बाद का प्रसंग है, जब महर्षि वशिष्ठ दुःखी मन से भरत को समझाते हैं, -भरत, होनी प्रबल होती है, लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु और यश-अपयश सब विधाता के हाथ होता है. अर्थात विधि का विधान है कि जिसने जन्म लिया, उसे मृत्यु को आलिंगन करना ही होगा. वह भले ही श्रीराम अथवा श्रीकृष्ण रूपी अवतारी पुरुष ही क्यों न हो. हिंदू शास्त्रों में उल्लेखित है कि जब-जब पृथ्वी पर आसुरी शक्तियां प्रबल हुईं, भगवान विष्णु ने किसी न किसी रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए. मान्यता है कि भगवान विष्णु को दस बार पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा और आम जीवों की तरह समय पूरा होने के पश्चात मनुष्य देह को त्यागना पड़ा.
यहां हम इसी प्रसंग के तहत अयोध्या के राजा श्रीराम की मृत्यु के संदर्भ में बात करेंगे, जब अपने अंतिम समय में वह बड़े अनोखे अंदाज में विष्णुधाम लौटे थे. विष्णु जी द्वारा श्रीराम के रूप में लिया यह दसवां अवतार था. इन दसों अवतार में श्रीराम सर्वश्रेष्ठ आदर्श पुरुष माना जाता है. श्रीराम पर विश्वसनीय कथा एवं प्रसंग वाल्मिकी कृत रामायण एवं गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरित मानस तथा कुछ पुराणों में मिलता है.
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पद्म पुराण के अनुसार श्रीराम जब अवध पर शासन कर रहे थे. अयोध्या में एक संत पधारे. उनकी सेवा-सत्कार के पश्चात श्रीराम ने संत से उनके अयोध्या पधारने का प्रयोजन पूछा तो संत ने कहा, वह एकांत में उऩसे कुछ बात करना चाहते हैं. श्रीराम ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि जब तक वे संत महाराज जी के पास रहेंगे, कोई भी उनके कक्ष में प्रवेश नहीं करे. आदेश नहीं मानने वाले को मृत्युदण्ड की सजा मिलेगी. श्रीराम संत के साथ अपने विशेष कक्ष में चले गये. कक्ष में पहुंचकर संत ने कहा, - मैं संत नहीं विष्णुलोक से भेजा गया कालदेव हूं. आपके विष्णुलोक लौटने का समय आ गया है. श्रीराम मुस्कुरा दिये.
तभी श्रीराम से मिलने दुर्वासा ऋषि पधारे. लक्ष्मण ने महर्षि से सविनय कहा, -प्रभु श्रीराम जी किन्हीं संत के साथ व्यस्त हैं. उनके कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं है. तब महर्षि दुर्वाषा ने क्रोध में आकर कहा, अगर उन्हें तुरंत अंदर नहीं जाने दिया गया तो वह राम को श्राप दे देंगे. यह सुन लक्ष्मण परेशान हो गये कि श्रीराम को महर्षि दुर्वाषा के श्राप से बचाएं या खुद मृत्युदण्ड भोगें. अंततः भाई को बचाने के लिए उन्होंने खुद को मृत्युदण्ड का भागीदार बनना स्वीकार कर कक्ष में चले गये. लक्ष्मण को कक्ष में देख श्रीराम संकट में पड़ गये. अब न तो वह अपनी मर्यादा त्याग सकते थे, ना ही लक्ष्मण मृत्युदण्ड देने का साहस जुटा पा रहे थे. उन्होंने लक्ष्मण को मृत्युदण्ड के बजाय नगर छोड़ने का आदेश दिया. लक्ष्मण के लिए नगर छोड़ना मृत्युदण्ड से कम कष्टदेह नहीं था. उन्होंने बचपन से श्रीराम जी का साथ छोडा था. अंततः वह सरयु नदी में प्रवेश कर गये. सरयु में प्रवेश करने के साथ ही लक्ष्मण शेषनाग में परिवर्तित होकर विष्णुलोक चले गये.
लक्ष्मण के जाने से श्रीराम भी दुखी हो गये. वह लक्ष्मण के बिना नहीं रह सकते थे. वह सारा राजपाट बच्चों को सौंपकर सरयु नदी के रास्ते विष्णुलोक पहुंच गये. अयोध्यावासियों ने समझा कि श्रीराम और लक्ष्मण ने जल समाधि ले ली.
अब प्रश्न उठता है कि श्रीराम के साथ साया बनकर रहने वाले हनुमान इस समय कहां थे. दरअसल श्रीराम जानते थे कि पृथ्वीलोक पर उनकी अवधि पूरी हो चुकी है, किसी भी समय उनका काल आ सकता था. लेकिन हनुमान के रहते काल श्रीराम के पास फटक भी नहीं सकता था.
श्रीराम ने अपनी अंगूठी फर्श की दरार में डालकर हनुमान से अंगूठी ढूंढ कर लाने का आदेश दिया. हनुमानजी ने फर्श की दरार में अंगूठी फंसी हुई देखा, उन्होंने अंगूठी निकालने के लिए अत्यंत लघु रूप धारण कर जमीन की दरार में पहुंच गये, तब उऩ्हें पता चला कि वह तो नागलोक में पहुंच गये हैं.
नागलोक में नागों के राजा नाग वासुकी ने जब हनुमान से अंगुठी के संदर्भ में सारी बातें सुनीं तो वह उन्हें नागलोक अंगूठियों से भरे एक विशाल पहाड़ के पास ले गये और कहा कि अपने श्रीराम की अंगूठी तलाश लें. हनुमान जब पहली ही अंगूठी निकालकर वासुकी को दिखाते हुए कहा कि यही है मेरे प्रभु की अंगूठी, तो वासुकी दंग रह गये. अंततः वासुकी सारा माजरा समझ गये, उन्होंने हनुमान जी को समझाते हुए कहा,
-पृथ्वी पर जो भी जन्म लेता है, उसे एक दिन मृत्युलोक जाना ही होता है. प्रभु श्रीराम को अहसास था कि तुम्हारे होते श्रीराम का काल नहीं आ सकता था, इसलिए उन्होंने तुम्हें अंगूठी लाने के बहाने काल के रास्ते से हटा दिया.
हनुमानजी पछता रहे थे कि अगर प्रभु श्रीराम की इस सच्चाई का उन्हें जरा भी अहसास होता तो वह अयोध्या छोड़कर नहीं जाते. इसके बाद दुःखी मन से हनुमानजी अनंत यात्रा पर निकल गये.