डॉ. राजेंद्र प्रसादः देश के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपति! जानें किसके साथ था उनका 36 का आंकड़ा! साथ ही उनके जीवन की रोचक यादें..
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक थे. देश के पहले राष्ट्रपति बनने से पूर्व वे कुछ समय तक केंद्रीय मंत्री के तौर पर भी कार्य कर चुके थे. राष्ट्रपति पद पर होते हुए भी वे सादगी की प्रतिमूर्ति थे, वे कभी किसी विवादों में लिप्त नहीं रहे.
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक थे. देश के पहले राष्ट्रपति बनने से पूर्व वे कुछ समय तक केंद्रीय मंत्री के तौर पर भी कार्य कर चुके थे. राष्ट्रपति पद पर होते हुए भी वे सादगी की प्रतिमूर्ति थे, वे कभी किसी विवादों में लिप्त नहीं रहे. उनकी सादगी और ईमानदारी के कारण ही उन्हें लोग ‘राजेंद्र बाबू’ और ‘देश-रत्न’ के नाम से भी संबोधित करते थे. वे राष्ट्रपति पद के इतने सशक्त और लोकप्रिय व्यक्ति थे कि चाहते तो तीसरे दौर में भी वही राष्ट्रपति बनते, लेकिन उन्होंने दूसरों को अवसर देने के लिए स्वेच्छा से राष्ट्रपति पद से त्याग-पत्र दे दिया. उनकी 57 वीं पुण्य-तिथि पर विशेष शब्दांजलि...
बचपन एवं शिक्षा:
कांग्रेसियों के बीच ‘अजातशत्रु’ के नाम से लोकप्रिय राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बंगाल प्रेसिडेंसी के जीरादेई में एक कायस्थ परिवार में हुआ था. पिता महादेव सहाय संस्कृत और फारसी से विद्वान थे, माता कमलेश्वरी देवी थीं. माता-पिता के अलावा परिवार में तीन बहनें एवं दो भाई थे. पांच वर्ष की उम्र में एक मौलवी से फारसी से अपनी शिक्षा प्रारंभ की, इसके पश्चात छपरा में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद 1902 में प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता (कोलकाता) में एडमिशन लिया. 1915 में विधि में एलएलएम की परीक्षा में गोल्ड मेडल हासिल किया और फिर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. 1897 में 13 वर्ष की आयु में इनका विवाह राजवंशी देवी से करवा दिया गया.
गांधीजी से प्रभावित होने के बाद करियर त्याग दिया:
कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजेंद्र बाबू को कलकत्ता विश्वविद्यालय के सीनेटर पद पर नियुक्ति मिल गई थी. तब तक राजनीति में उनकी खास दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन 1921 में गांधीजी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि सीनेटर पद से इस्तीफा देकर गांधी जी के आंदोलन से जुड़ गये. इनके राजनीतिक करियर की शुरुआत चंपारण सत्याग्रह से जुड़कर हुई. 1930 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा गया तो राजेंद्र बाबू को बिहार का मुख्य नेता बनाया गया. प्रसाद ने फंड जुटाने के लिए नमक भी बेचा. साल 1939 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया. 1942 राजेंद्र बाबू ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भाग लिया. ब्रिटिश हुकूमत ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया. 9 दिसंबर 1946 ईo को संविधान सभा की पहली बैठक सच्चिदानंद सिन्हा की अस्थायी अध्यक्षता में हुई. उसके बाद 11 दिसंबर 1946 को राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया.
नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में मतभेद!
सर्वविदित है कि राजेंद्र बाबू और नेहरू के बीच कभी भी बेहतर रिश्ते नहीं रहे. उनके बीच वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद थे, जो 1950 से 1962 तक लगातार बना रहा. गणतंत्र की स्थापना के समय नेहरू सी. राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में थे, लेकिन सरदार पटेल सहित कई दिग्गज कांग्रेसी नेता राजेंद्र बाबू के हक में थे. अंततः नेहरु को राजेंद्र बाबू को समर्थन देना पड़ा. 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र की घोषणा के साथ ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति के तौर पर डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 10. 24 बजे राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की. राष्ट्रपति बनने के बाद भी राजेंद्र बाबू का जीवन सरल और सहज बना रहा. कहा जाता है कि वे साल में 150 दिन ट्रेन में सफर करते थे, और छोटे-छोटे स्टेशनों पर उतरकर लोगों से बतियाते थे. वे संविधान सभा के पहले अध्यक्ष भी थे. बतौर राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू के घर कोई विदेशी अतिथि पधारता तो उनकी आरती उतारकर उनका स्वागत किया जाता था. ताकि अतिथि को भारत की संस्कृति का पता चले.
राजनीति से संन्यास:
राजेंद्र बाबू बतौर राष्ट्रपति इतने लोकप्रिय थे कि वे चाहते तो राष्ट्रपति पद पर लगातार तीसरा सत्र भी गुजार सकते थे, लेकिन नये लोगों को अवसर देने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया. राजेन्द्र बाबू एक अच्छे लेखक भी थे. उन्होंने 1946 में अपनी आत्मकथा लिखी. यद्यपि इसके पूर्व भी उन्होंने ‘बापू के कदमों में’ (1954), ‘इण्डिया डिवाइडेड’ (1946), ‘सत्याग्रह एट चम्पारण’ (1922), ‘गांधीजी की देन’, ‘भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं. देश के सर्वोच्च पुरस्कार ‘भारत-रत्न’ अवार्ड की शुरुआत राजेंद्र बाबू ने ही 2 जनवरी 1954 को की. 1962 में राजेंद्र बाबू को यह अवार्ड दिया गया. 1962 में राष्ट्रपति पद से अवकाश प्राप्त करने के बाद जीवन के आखिरी पल उन्होंने पटना के सदाकत आश्रम में गुजारे. यहीं पर 28 फ़रवरी 1963 में उनकी मृत्यु हो गयी.