Savitribai Phule Jayanti 2020: देश की पहली शिक्षिका, जिसने महिला शिक्षा, समाज-उत्थान एवं दलितों की सेवा करते हुए शहादत दे दी

वैदिक काल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा एवं अधिकार प्राप्त था. कालांतर में यानी ईसा से 500 पूर्व विशेषकर मनुस्मृति के साथ महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरु हुई. मुगल साम्राज्य के इस्लामी आक्रमण और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया. धीरे-धीरे स्थिति इतनी बदतर होती गई कि महिलाएं घर की चक्की तक सिमट कर रह गईं.

सावित्री बाई फुले जयंती 2020 (Photo Credits: Twitter)

Savitri Bai Phule Jayanti 2020: वैदिक काल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा एवं अधिकार प्राप्त था. कालांतर में यानी ईसा से 500 पूर्व विशेषकर मनुस्मृति के साथ महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरु हुई. मुगल साम्राज्य के इस्लामी आक्रमण और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया. धीरे-धीरे स्थिति इतनी बदतर होती गई कि महिलाएं घर की चक्की तक सिमट कर रह गईं. यही वक्त था, जब पुरुषवादी वर्चस्व की मार झेल रही महिलाओं को अपनी खुद की पहचान बनाने थी. इसी दौर में एक सशक्त महिला के रूप में सावित्रीबाई फुले का उदय हुआ, जिसने महिलाओं को शिक्षा दिलाने एवं सामाजिक शोषण से मुक्ति दिलाने का पुरजोर प्रयास किया. आखिर कौन थी यह सावित्रीबाई फुले और उन्होंने क्या किया महिलाओं की शिक्षा एवं सशक्तिकरण के लिए...

देश की पहली शिक्षिका, पहली प्रधानाचार्या

सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के नैगांव में एक दलित परिवार में हुआ था. पिता खण्डोजी नेवसे और माँ लक्ष्मीबाई पेशे से कृषक थे. सावित्रीबाई जब 9 साल की थीं, उनका विवाह 13 वर्ष के ज्योतिराव फुले के साथ कर दिया गया. इस समय तक अन्य स्त्रियों की तरह ज्योतिबाई फुले भी अशिक्षित थीं. लेकिन अशिक्षित होने की पीड़ा उन्हें हमेशा रहती थी. पत्नी की इस पीड़ा से वाकिफ ज्योतिराव फुले ने सावित्रीबाई को घर पर ही पढ़ाना-लिखाना शुरु किया. वह चाहते थे कि सावित्रीबाई शिक्षित होकर अन्य महिलाओं को शिक्षित करे. एक शिक्षिका की तौर पर उन्हें स्थापित करने के बाद ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने साल 1848 में 9 महिलाओं को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की. वह पढ़ाने के साथ-साथ स्कूल की प्रधानाचार्या भी थीं. इस तरह वह देश की पहली शिक्षिका एवं पहली प्रधानाचार्य के रूप में गर्वान्वित हुईं. बाद में मित्र सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर आदि के साथ मिलकर महिला शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा को रोकने व विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किए. उन्होंने दलित समाज के उत्थान एवं स्त्री शिक्षा का आरंभ किया. सावित्रीबाई ने घर की चौखट लांघकर बच्चों को पढ़ाने जाकर महिलाओं के लिए सार्वजनिक जीवन का उदय किया.

समाज से जुड़ने के लिए की सोशल समाज की स्थापना

ज्योतिराव फुले ने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह और 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की. सावित्रीबाई इस समा की अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता थीं. यह संस्था कम खर्च में गरीब लड़कियों की शादियां कराती थी, जिसमें दहेज एवं पुजारी मुक्त विवाहों का आयोजन किया जाता था. इस विवाह की शुरुआत उन्होंने अपने दत्तक पुत्र के साथ किया. अधिकांश शादियों का खर्च सावित्रीबाई फुले स्वयं उठाती थीं.

विरोध का सामना भी संयम से

वस्तुतः इस तरह की विवाह पद्धति पंजीकृत विवाहों से मिलती-जुलती थी, जिसका चलन आज भी देखने को मिलता है. इस विवाह पद्धति का विरोध करते हुए पुजारियों ने अदालत का सहारा लिया. इस वजह से फुले दंपत्ति को तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. लेकिन वे किंचित विचलित नहीं हुए. सावित्रीबाई फुले के शिक्षा प्रसार के इस मिशन की इंतिहा कुछ ऐसी थी कि जब वे पढ़ाने के लिये घर से निकलतीं तो लोग उन पर कीचड़, गोबर एवं गंदगी फेंकते. पढाई में बाधा नहीं हो इसके लिए वह एक अतिरिक्त साड़ी लेकर चलती थीं. स्कूल में वे साड़ी बदलकर पढ़ाती थीं. 28 नवंबर, 1890 को ज्योतिराव फुले की मुत्यु के बाद सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया.

निधन

1897 में प्लेग की भयंकर महामारी फैली, और देखते ही देखते पुणे में कई लोग असमय मृत्यु के शिकार हुए. सावित्रीबाई ने अपने पुत्र यशवंत को पुणे अवकाश लेकर पुणे बुलाया संक्रामक बीमारी होने के बावजूद दोनों ने अस्पताल के मरीजों की खूब सेवा-भगत की. इसी प्रक्रिया में मुंडवा गांव में म्हारो की बस्ती में मरीजों की सेवा-भगत में सावित्रीबाई भी प्लेग की बीमारी लग गयी. अंततः 10 मार्च, 1897 को रात को इस महान महिला की सांसें थम गयीं.

सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन गरीब, वंचित, दलित तबके एवं महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए बीता. समाज में नई जागृति लाने के लिए कवयित्री के रूप में सावित्रीबाई फुले ने 2 काव्य पुस्तकें 'काव्य फुले', एवं 'बावनकशी सुबोधरत्नाकर' लिखीं. उनके योगदान को देखते हुए 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया. इसके अलावा केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले की स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की. उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया.

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