Kabirdas Jayanti 2023: कब है संत कबीरदास जयंती? जानें उनके उपदेशों की आज के दौर में प्रासंगिकता!

ताउम्र संघर्ष के पश्चात कबीर दास जी ने मगहर में देह त्यागा था. हैरानी इस बात को लेकर थी कि कबीर दास की मृत्यु के पश्चात उनके निर्जीव शरीर का अपने तरीके से अंतिम क्रिया कर्म के लिए हिंदू मुसलमान आपस में भिड़ पड़े. लेकिन कहा जाता है कि विवादों के मध्य जब उनके निर्जीव शरीर पर पड़े चादर को हटाया गया तो वहां उनके मृत शरीर के बजाय थोड़े से फूल पड़े थे, जिसे हिंदू मुसलमानों ने बांट लिया.

कबीरदास जयंती (Photo Credits: Facebook)

अपने युग के भक्तिकालीन महाकवि संत कबीरदास के रचनाएं वर्तमान में भी प्रासंगिक बने हुए हैं, क्योंकि अपने उपदेशों में संत कबीर ने उन मूल्यों को प्रश्नों के घेरे में खड़ा किया है, जो आज की सभ्यता एवं सामाजिक कुंठाओं की पहचान करने में मदद करते हैं. इस वर्ष कबीर दास की 568 वीं जयंती (4 जून 2023) पर बात करेंगे उनके सर्वकालिक ज्वलंत रचनाओं की जो आज भी जीवंत बने हुए हैं, लेकिन उससे पहले बात करेंगे, इस महान कवि के जन्म की अजीबोगरीब कहानी पर... यह भी पढ़ें: कब है तेलंगाना स्थापना दिवस? जानें इतिहास, सेलिब्रेशन और कुछ रोचक फैक्ट!

 कबीर दास जी के जन्म तिथि को लेकर तमाम भ्रांतियां हैं, मान्यताओं के अनुसार उनका जन्म संवत 1456 विक्रमी ज्येष्ठ मास शुक्लपक्ष की पूर्णिमा के दिन लहरतारा तालाबकाशी (वाराणसी) में हुआ था. इनके मूल माता-पिता का नाम प्रमाणिक नहीं है. मान्यता अनुसार उनका जन्म किसी विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ था, जिसने लोकलाज के भय से उन्हें टोकरी में सुला कर नदी की धारा में छोड़ दिया था. नदी तट पर नीरू और नीमा नामक निसंतान मुस्लिम दंपत्ति ने शिशु को देखा. उसे घर लाए और उसकी पुत्रवत परवरिश की. नीरू पेशे से जुलाहा था, लेकिन बहुत कमाई नहीं थी. 

लिहाजा माता-पिता चाहकर भी कबीर को स्कूली शिक्षा दिलाने में असमर्थ रहे. उन्हें अपने पैतृक व्यवसाय से जुड़ना पड़ा. किंवदंतियों हैं कि कबीर दास ने स्वामी रामानंद से दीक्षा प्राप्त करने के लिए एक सुबह अंधेरे पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर लेट गये, अँधेरे में स्वामी जी कबीर को देख नहीं सके, लेकिन कबीर को ठोकर लगने पर जब स्वामी जी ने उन्हें राम राम जपने को कहा. कबीर दास जी ने स्वामी जी के राम-राम को गुरूमंत्र तो माना, लेकिन रामानंद के सगुण राम राम को उन्होंने निर्गुण एवं निराकार घट-घट व्यापी ब्रह्म के रूप में अपनाया. जिसका जिक्र उन्होंने इस दोहे में भी किया.

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम को मरम है आना।।

  कबीर कपड़ा बुनने के बाद मिले अतिरिक्त समय में सत्संग आदि में व्यस्त रहते थे. उनका मन निर्गुण भक्ति में रमने लगा. हालांकि उन्हें शिक्षा हासिल नहीं कर सकने का मलाल था, जो उनकी इस पंक्ति से स्पष्ट होता है.

‘मसि कागद छूयो नहींकलम गही नहिं हाथ

कबीर अपने समय के क्रांतिकारी सचेतक थे. उन्होंने दुनिया भर में व्याप्त आडंबरोंकुप्रथाओंजड़तामूढ़ता एवं अंधविश्वास का तर्कों के साथ खंडन किया. उन्हें अपने युग के प्रति यथार्थ बोध इतना गहरा था कि उन्होंने हर परंपराकुरीति एवं पाखंडों को यथार्थ के धरातल पर खारिज करते हुए इससे बचने की अपील भी की. कबीरदास अराजकतासामन्तवाद तथा उथल-पुथल के दौर में क्रान्तिकारी स्वप्नकार सरीखे थे. वे भले ही स्वभाव से शांत और संत थे, लेकिन प्राकृतिक रूप से गहरे उपदेशक थे. वे चिमटा, शृंगी, तिलक, माला आदि के प्रबल विरोधी थे. इन पंक्तियों में ऐसा ही कुछ दर्शाने की उन्होंने कोशिश की है..

जप माला छापा तिलकसरै न एको काम.

वर्तमान दौर में जब भौतिक साधन हासिल करने के लिए भ्रष्टाचारलूट-खसोटमिलावटखोरी जैसे अपराध  मानवता को झकझोर रहे हैं, कबीर ने अपनी गहन दूर दृष्टि से इसका पूर्व अहसास कर लिया था, उनके ये विचार अति प्रासंगिक हैं –

साईं इतना दीजिएजामे कुटुम समाय

मैं भी भूखा न रहूँसाधु न भूखा जाए 

ये पंक्तियां कबीर दास ने संग्रहवाद के विरोध में कहा था. उन्होंने किसी भी धर्म के आडंबरों एवं पाखंडों का जमकर विरोध किया..

कांकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय

ता उपर मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय

  ताउम्र संघर्ष के पश्चात कबीर दास जी ने मगहर में देह त्यागा था. हैरानी इस बात को लेकर थी कि कबीर दास की मृत्यु के पश्चात उनके निर्जीव शरीर का अपने तरीके से अंतिम क्रिया कर्म के लिए हिंदू मुसलमान आपस में भिड़ पड़े. लेकिन कहा जाता है कि विवादों के मध्य जब उनके निर्जीव शरीर पर पड़े चादर को हटाया गया तो वहां उनके मृत शरीर के बजाय थोड़े से फूल पड़े थे, जिसे हिंदू मुसलमानों ने बांट लिया.

Share Now

\