Shaheed Udham Singh Martyrdom Day: जलियांवाला कांड के शहीदों का बदला लेने वाले वीर उधम सिंह, जानें उनकी बहादुरी के किस्से
सैंकड़ों भारतीयों के नरसंहार का बदला लेने वाले वीर उधम सिंह ने वर्ष 1940 में आज ही के दिन खुशी-खुशी मौत को गले लगाया था. भारत के इस सपूत ने 21 सालों बाद, 13 मार्च, 1940 को लंदन जाकर अपनी कसम पूरी की थी.
“मरने के लिए बूढ़े होने का इंतजार क्यों करना? मैं देश के लिए अपनी जान दे रहा हूं…”, आज से 81 साल पहले भारत के वीर पुत्र ने फांसी पर चढ़ने से पहले अपने देशवासियों के नाम यह चिट्ठी लिखी थी। सैंकड़ों भारतीयों के नरसंहार का बदला लेने वाले वीर उधम सिंह ने वर्ष 1940 में आज ही के दिन खुशी-खुशी मौत को गले लगाया था। भारत के इस सपूत ने 21 सालों बाद, 13 मार्च, 1940 को लंदन जाकर अपनी कसम पूरी की थी।
जलियांवाला कांड की सैकड़ों मौतों का जिम्मेदार जनरल ओ डायर 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन के पंजाब के अमृतसर स्थित जलियांवाला बाग में एक जनसभा आयोजित की गई। माइकल ओ डायर जलियांवाला कांड के वक्त पंजाब प्रांत के गवर्नर थे। अंग्रेजों के कड़े विरोध के बाद भी इस जनसभा में सैकड़ों की संख्या में लोग एकत्रित हुए। इस दौरान नेता भाषण भी दे रहे थे। इसी दौरान जनसभा में जनरल ओ डायर अपने सैनिकों के साथ पहुंच गया। जनसभा देख जनरल डायर ने अपने सैनिकों को जनसभा पर फायरिंग करने का आदेश दे दिया। इस घटना में सैकड़ों की संख्या में निहत्थे लोगों की मौत हो गई। निर्दोष भारतीयों को जब अंग्रेज गोलियों से भून रहे थे, तो उधम सिंह ने अपनी मिट्टी से वादा किया था कि वो इस नरसंहार का बदला लेकर रहेंगें।
शेर सिंह था असली नाम
यह वीर देशभक्त जिन्हें पूरा देश सरदार उधम सिंह के नाम से जानता है, उनका असली नाम शेर सिंह था। बता दें कि उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब में शेर सिंह के रूप में हुआ था। उनके पिता, सरदार तहल सिंह जम्मू, एक किसान थे और उपल्ली गाँव में रेलवे क्रॉसिंग चौकीदार के रूप में भी काम करते थे। उनके पिता की मृत्यु के बाद, उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह को अमृतसर में केंद्रीय खालसा अनाथालय द्वारा ले जाया गया। अनाथालय में, उनको सिख दीक्षा संस्कार और उधम सिंह का नाम दिया गया। उन्होंने 1918 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और 1919 में अनाथालय छोड़ दिया।
जलियांवाला बाग हत्याकांड ने दिया जीवन को महत्वपूर्ण मोड़
यह जलियांवाला बाग हत्याकांड था जिसने उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ दिया और शहीदों का बदला लेने के लिए प्रेरित किया। 1924 में, उधम सिंह गदर पार्टी में शामिल हो गए, बाद में उधम ने अफ्रीका, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप की यात्रा की, औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने के लिए विदेशों में भारतीयों को संगठित किया। 1927 में, वह भगत सिंह के आदेश पर 25 सहयोगियों के साथ-साथ रिवाल्वर और गोला-बारूद लेकर भारत लौट आए। इसके तुरंत बाद, उसे बिना लाइसेंस के हथियार रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। रिवॉल्वर, गोला-बारूद, और “गदर-ए-गंज” (“वॉयस ऑफ रिवोल्ट”) नामक गदर पार्टी के निषिद्ध पेपर की प्रतियां जब्त कर ली गईं। उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें पांच साल जेल की सजा सुनाई गई।
ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी भी उन्हें ढूंढने में रही थी नाकाम
उधम सिंह अपने मिशन को अंजाम देने के लिए इतने समर्पित थे कि वे कई साल तक वेशभूषा बदल कर विदेश में रहे। इस दौरान एक तरफ दूसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडरा रहा था और दूसरी तरफ साउथैंपटन में उधम सिंह ‘आजाद’ के नाम से रह रहे थे। यहां वो सेना के लिए कैंप बनाने वाली कंपनी में काम करते थे। उधम सिंह ने ‘एलिफेंट बॉय’ और ‘द फोर फेदर्स’ नाम की दो ब्रिटिश फिल्मों में भी काम किया, लेकिन कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। वहां अंग्रेजों की ज्यादतियों का विरोध करने के कारण वो पुलिस की नजरों में तो आ गए, लेकिन कभी किसी के हाथ नहीं आए। उनके पीछे ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी भी लगी हुई थी, लेकिन कोई उन्हें खोज नहीं पाया।
13 मार्च 1940 को 21 साल का लंबा इंतजार हुआ था खत्म
वर्ष 1940 की 13 मार्च को उधम सुबह से ही अपनी योजना को अंजाम देने के लिए पूरी तरह तैयार थे। माइकल ओ डायर को एक सभा में हिस्सा लेने के लिए तीन बजे लंदन के कैक्सटन हॉल में जाना था। उधम वहां समय से पहुंच गए। वो अपने साथ एक किताब ले कर गए थे, जिसके पन्नों को काट कर उन्होंने बंदूक रखने की जगह बनाई थी। उन्होंने धैर्य के साथ सभी के भाषण खत्म होने का इंतजार किया और आखिर में मौका पाते ही किताब से बंदूक निकाल कर डायर के सीने में धड़ाधड़ गोलियां दाग दीं। डायर को दो गोलियां लगीं और मौके पर ही उनकी मौत हो गई। उधम सिंह का 21 साल लंबा इंतजार तो खत्म हो गया, लेकिन उन्हें इसकी सजा भी मिली। उन्हें तुरंत पकड़ कर हिरासत में ले लिया गया।
जन्मस्थान सुनाम में किया गया अंतिम संस्कार
उन्होंने एक बार कहा था, ‘मुझे परवाह नहीं है, मुझे मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। बुढ़ापा आने तक इंतजार करने से क्या फायदा? यह अच्छा नहीं है। आप युवा होने पर मरना चाहते हैं। यह अच्छा है, मैं यही कर रहा हूं’। एक विराम के बाद उन्होंने कहा था, ‘मैं अपने देश के लिए मर रहा हूं’। सरदार उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और मौत की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। 1974 में, विधायक साधु सिंह थिंड के अनुरोध पर सिंह के अवशेषों को खोदा गया और भारत वापस लाया गया। इसके बाद पंजाब में स्थित उनके जन्मस्थान सुनाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया और उनकी राख को सतलज नदी में प्रवाह कर दिया गया। उनकी कुछ बची हुई राख को जलियांवाला बाग में एक सीलबंद कलश में रखा गया है। भारत की मिट्टी को हमेशा अपने इस वीर सपूत पर नाज रहेगा।