
Thackeray Brothers Reunite After 20 Years: 5 जुलाई, 2025 को मुंबई का वर्ली डोम एक ऐतिहासिक क्षण का गवाह बना. लगभग दो दशकों की राजनीतिक दुश्मनी और व्यक्तिगत कड़वाहट को दरकिनार करते हुए, ठाकरे परिवार के दो सबसे प्रमुख उत्तराधिकारी, चचेरे भाई उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे, एक मंच पर एक साथ आए. 'आवाज मराठीचा' (मराठी की आवाज) नामक यह संयुक्त रैली, सरकार की उस नीति के खिलाफ एक "विजय" का उत्सव थी, जिसे महाराष्ट्र पर हिंदी थोपने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा था. इस एक मंच ने महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल ला दिया और कई वर्षों से सुलग रहे एक सवाल को फिर से हवा दे दी: क्या यह ठाकरे बंधुओं (Thackeray Brothers) का वास्तविक पुनर्मिलन है या फिर राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए की गई एक रणनीतिक सौदेबाजी?
यह रिपोर्ट इसी जटिल सवाल की तह तक जाने का एक प्रयास है. यह विश्लेषण उस गहरी खाई को समझने की कोशिश करेगा जिसने इन दोनों भाइयों को दो दशकों तक अलग रखा. बालासाहेब ठाकरे (Balasaheb Thackeray Legacy) की विरासत के लिए हुए संघर्ष से लेकर, शिवसेना (Shiv Sena) में भूचाल, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) के उदय, चुनावी लड़ाइयों में एक-दूसरे को पहुँचाए गए नुकसान, और विचारधारा की अलग-अलग राहों तक, यह रिपोर्ट हर पहलू की गहन पड़ताल करेगी. अंततः, यह समझने का प्रयास किया जाएगा कि क्या 'मराठी मानुष' (Marathi Manoos) का मुद्दा वाकई इतना शक्तिशाली है कि वह विरासत की जंग और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के गहरे घावों पर मरहम लगा सके, या यह केवल एक अस्थायी युद्धविराम है जो आगामी बृहन्मुंबई नगर निगम (BMC) चुनावों के मद्देनजर किया गया है . यह कहानी सिर्फ दो भाइयों की नहीं, बल्कि महाराष्ट्र की पहचान की राजनीति, पारिवारिक विरासत के दबाव और राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई की है.
एक म्यान में दो तलवारें: बालासाहेब के उत्तराधिकार का संघर्ष (1990s-2003)
महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे परिवार का दबदबा हमेशा से रहा है, और इस दबदबे के केंद्र में थे शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे. 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में, जैसे-जैसे बालासाहेब की उम्र बढ़ रही थी, एक सवाल शिवसेना के गलियारों में गूंजने लगा था: उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी कौन होगा? इस सवाल के दो स्वाभाविक दावेदार थे: उनके बेटे उद्धव ठाकरे और उनके भतीजे राज ठाकरे.
दो उत्तराधिकारी, दो अलग व्यक्तित्व
दोनों ही बालासाहेब के संरक्षण में पले-बढ़े थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली में जमीन-आसमान का अंतर था.
- राज ठाकरे: राज को व्यापक रूप से बालासाहेब का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था. उनकी भाषण शैली आक्रामक थी, वे एक करिश्माई और मुखर नेता थे, और उनकी सार्वजनिक छवि बालासाहेब के उग्र तेवरों की याद दिलाती थी, वे भीड़ को आकर्षित करने की क्षमता रखते थे और पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं के बीच बेहद लोकप्रिय थे.
- उद्धव ठाकरे: इसके विपरीत, उद्धव शांत, अंतर्मुखी और एक कुशल संगठनकर्ता थे. वे पर्दे के पीछे रहकर पार्टी के संगठनात्मक मामलों को संभालने में माहिर थे. एक वन्यजीव फोटोग्राफर के रूप में उनकी पहचान उनकी राजनीतिक छवि से बिल्कुल अलग थी, जो उन्हें एक नरम नेता के रूप में प्रस्तुत करती थी.
20 साल बाद एक मंच पर एक साथ दिखे ठाकरे ब्रदर्स, मराठी अस्मिता के लिए भरी हुंकार#MaharashtraPolitics #UddhavThackeray #RajThackeray #MarathiLanguageRow pic.twitter.com/3LztSxG073
— Article19 India (@Article19_India) July 5, 2025
निर्णायक मोड़: महाबलेश्वर सम्मेलन (2003)
उत्तराधिकार के इस अनकहे संघर्ष का पटाक्षेप जनवरी 2003 में महाबलेश्वर में हुए शिवसेना के एक सम्मेलन में हुआ. इस सम्मेलन में उद्धव ठाकरे को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष (Executive President) नियुक्त किया गया . इस नियुक्ति को बालासाहेब द्वारा अपने बेटे को राजनीतिक वारिस के रूप में स्थापित करने के एक स्पष्ट संकेत के रूप में देखा गया .
इस घटना का सबसे विरोधाभासी पहलू यह था कि उद्धव ठाकरे के नाम का प्रस्ताव किसी और ने नहीं, बल्कि स्वयं राज ठाकरे ने किया था . सार्वजनिक रूप से, इस कदम को परिवार के भीतर किसी भी तरह के विभाजन की अटकलों को समाप्त करने और एकता का प्रदर्शन करने के प्रयास के रूप में प्रस्तुत किया गया. राज ठाकरे ने अपने भाषण में उन आलोचकों पर तंज भी कसा जो परिवार में फूट की उम्मीद कर रहे थे . हालांकि, यह सार्वजनिक प्रदर्शन एक गहरी आंतरिक खींचतान और असंतोष को छिपाने का एक प्रयास मात्र था. बालासाहेब ने यह कहकर मामले को शांत करने की कोशिश की कि वे पार्टी पर किसी को थोपना नहीं चाहते थे और यह फैसला सर्वसम्मति से लिया गया था . लेकिन यह सर्वसम्मति एक सुनियोजित राजनीतिक रणनीति का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य पार्टी के भीतर बढ़ते तनाव को अस्थायी रूप से नियंत्रित करना था.
यह स्पष्ट था कि यह एकता केवल दिखावे की थी. राज ठाकरे द्वारा उद्धव के नाम का प्रस्ताव उनकी स्वीकृति का प्रतीक नहीं, बल्कि दबाव में उठाया गया एक रणनीतिक कदम था. इस घटना ने उत्तराधिकार की लड़ाई को समाप्त नहीं किया, बल्कि इसने स्पष्ट कर दिया कि यह लड़ाई राज हार चुके थे. उन्हें एक ऐसे कोने में धकेल दिया गया था जहाँ से बाहर निकलने के लिए विद्रोह ही एकमात्र रास्ता बचा था. महाबलेश्वर का यह सम्मेलन, जो एकता का प्रतीक बनना था, वास्तव में उस विभाजन की नींव का पहला पत्थर साबित हुआ जिसने महाराष्ट्र की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.
"अपमान और तिरस्कार": शिवसेना में भूचाल और MNS का उदय (2005-2006)
महाबलेश्वर सम्मेलन के बाद के दो साल राज ठाकरे के लिए शिवसेना के भीतर लगातार हाशिए पर जाने की कहानी थे. उद्धव ठाकरे का प्रभाव पार्टी में बढ़ता गया और राज के समर्थकों ने संगठनात्मक मामलों और चुनावों में टिकट वितरण में उन्हें नजरअंदाज किए जाने का आरोप लगाना शुरू कर दिया . पार्टी के भीतर का यह संघर्ष जुलाई 2005 में नारायण राणे के निष्कासन के साथ और भी गहरा गया, जिसने शिवसेना के आंतरिक मतभेदों को सतह पर ला दिया .
टूटने का क्षण: एक भावनात्मक इस्तीफा
आखिरकार, नवंबर 2005 में राज ठाकरे के सब्र का बांध टूट गया. उन्होंने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने की घोषणा की. 18 दिसंबर 2005 को शिवाजी पार्क में एक भावनात्मक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, उन्होंने अपने दिल का दर्द बयां किया. उनकी आवाज में पीड़ा थी जब उन्होंने कहा, "मैंने केवल सम्मान मांगा था. मुझे केवल अपमान और तिरस्कार मिला". यह बयान उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली व्यवस्था पर एक सीधा प्रहार था.
अपने इस्तीफे में, राज ने बड़ी चतुराई से बालासाहेब ठाकरे पर सीधा हमला करने से परहेज किया, यह कहते हुए कि उनके चाचा हमेशा उनके लिए "भगवान की तरह" रहेंगे . इसके बजाय, उन्होंने आरोप लगाया कि "कुछ छोटे-मोटे क्लर्क" पार्टी चला रहे हैं और बालासाहेब के कानों में जहर घोल रहे हैं - यह एक स्पष्ट संकेत था कि उनका निशाना उद्धव और उनके करीबी सहयोगी थे . उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वे शिवसेना को तोड़ना नहीं चाहते, बल्कि महाराष्ट्र के प्रगतिशील आदर्शों को बनाए रखना चाहते हैं, जो किसी भी विद्रोही नेता द्वारा नैतिक बढ़त हासिल करने के लिए अपनाई जाने वाली एक क्लासिक रणनीति है.
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) का गठन
शिवसेना से अलग होने के लगभग तीन महीने बाद, 9 मार्च 2006 को, राज ठाकरे ने अपनी नई राजनीतिक पार्टी, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) का गठन किया. MNS को "असली" शिवसेना के एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसने बालासाहेब की मूल आक्रामक 'मराठी मानुष' की राजनीति को और भी उग्रता के साथ अपनाया. राज ने यह कहकर उद्धव के नेतृत्व को सीधी चुनौती दी कि "मैं बालासाहेब ठाकरे के अलावा किसी और के अधीन काम नहीं कर सकता".
MNS के गठन ने शिवसेना के भीतर एक बड़े वर्ग को आकर्षित किया जो उद्धव के नेतृत्व से मोहभंग महसूस कर रहे थे और राज में बालासाहेब की छवि देखते थे. इस विभाजन ने न केवल ठाकरे परिवार को तोड़ा, बल्कि शिवसेना के मूल वोट बैंक में भी स्थायी सेंध लगा दी, जिसके परिणाम आने वाले वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति में स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाले थे.
वोटों का विभाजन और विचारधारा का टकराव: चुनावी राजनीति पर 'ठाकरे vs ठाकरे' का असर
राज ठाकरे के शिवसेना छोड़ने और MNS के गठन का सबसे बड़ा और दूरगामी परिणाम महाराष्ट्र के चुनावी परिदृश्य पर पड़ा. इस विभाजन ने सीधे तौर पर शिवसेना के मूल 'मराठी' वोट बैंक को विभाजित कर दिया, जिसका फायदा सीधे तौर पर उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों, विशेष रूप से कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन और बाद में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को मिला.
मराठी वोटों का बंटवारा: चुनावी मैदान में भाई बनाम भाई
ठाकरे बंधुओं की इस लड़ाई का मुख्य अखाड़ा मुंबई, ठाणे, नासिक और पुणे जैसे शहरी क्षेत्र बने, जहाँ मराठी भाषी मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. MNS ने खुद को 'मराठी मानुष' के अधिक उग्र और सच्चे रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे शिवसेना के पारंपरिक मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा उनकी ओर आकर्षित हुआ.
- 2009 का "स्पॉइलर" प्रभाव: इसका सबसे विनाशकारी प्रभाव 2009 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला. MNS ने अपने पहले ही चुनाव में 13 विधानसभा सीटें जीतकर सभी को चौंका दिया, लेकिन उनकी जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण उनकी भूमिका "स्पॉइलर" के रूप में थी. MNS उम्मीदवारों ने लगभग 66 निर्वाचन क्षेत्रों में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के वोट काटे, जिससे कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को सत्ता में लगातार तीसरी बार वापसी करने में मदद मिली. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी, MNS के कारण मुंबई की सभी छह सीटों पर शिवसेना-बीजेपी गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा.
- पतन और राजनीतिक हाशिये पर: हालांकि 2009 के बाद MNS का चुनावी ग्राफ लगातार गिरता गया. 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में वे केवल एक-एक सीट जीत सके, और 2024 के चुनावों में उनका खाता भी नहीं खुला. दूसरी ओर, शिवसेना भी 2022 के विभाजन के बाद कमजोर हो गई. 2024 के विधानसभा चुनावों में, उद्धव के नेतृत्व वाली शिवसेना (UBT) केवल 20 सीटें जीत सकी. यह स्पष्ट था कि दो दशकों की लड़ाई ने दोनों भाइयों को राजनीतिक रूप से कमजोर कर दिया था.
शिवसेना (UBT) बनाम मनसे - प्रमुख चुनावों में प्रदर्शन का तुलनात्मक विश्लेषण
चुनाव वर्ष | पार्टी | जीती गई सीटें | वोट शेयर (%) |
2009 विधानसभा | शिवसेना (अविभाजित) | 44 | 16.26% |
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) | 13 | 5.71% | |
2012 BMC | शिवसेना (अविभाजित) | 75 | उपलब्ध नहीं |
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) | 27 | उपलब्ध नहीं | |
2014 विधानसभा | शिवसेना (अविभाजित) | 63 | 19.35% |
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) | 1 | 3.2% | |
2017 BMC | शिवसेना (अविभाजित) | 84 | उपलब्ध नहीं |
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) | 7 | उपलब्ध नहीं | |
2024 विधानसभा | शिवसेना (UBT) | 20 | उपलब्ध नहीं |
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) | 0 | उपलब्ध नहीं |
नोट: वोट शेयर और सीटों का डेटा उपलब्ध स्रोतों पर आधारित है. 2024 के चुनावों के लिए विस्तृत वोट शेयर डेटा उपलब्ध नहीं था.
विचारधारा की अलग राहें: हिंदुत्व और गठबंधन की राजनीति
चुनावी टकराव के साथ-साथ, दोनों भाइयों ने विचारधारा के मोर्चे पर भी अलग-अलग रास्ते अपनाए. यह स्पष्ट हो गया कि उनके लिए विचारधारा एक निश्चित सिद्धांत नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखने और एक-दूसरे पर हमला करने का एक लचीला उपकरण थी.
- उद्धव का व्यावहारिक हिंदुत्व: सत्ता में आने के लिए उद्धव ठाकरे ने एक बड़ा वैचारिक समझौता किया. 2019 में, उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए बीजेपी से गठबंधन तोड़कर अपनी धुर-विरोधी पार्टियों, कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर महा विकास अघाड़ी (MVA) सरकार बनाई. इस कदम ने उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों, विशेष रूप से एकनाथ शिंदे और बीजेपी को यह आरोप लगाने का मौका दिया कि उन्होंने सत्ता के लिए बालासाहेब के हिंदुत्व को त्याग दिया है. इसके जवाब में, उद्धव ने अपने हिंदुत्व को "सुधारवादी" और बीजेपी के हिंदुत्व को "गौमूत्रधारी" बताकर खुद को अलग करने की कोशिश की. उन्होंने तर्क दिया कि वे सभी को समान रूप से देखते हैं, और यही उनका हिंदुत्व है.
- राज का वैचारिक पेंडुलम: दूसरी ओर, राज ठाकरे की राजनीति एक वैचारिक पेंडुलम की तरह रही है. उन्होंने MNS की शुरुआत आक्रामक 'मराठी मानुष' के मुद्दे पर की, जिसमें उत्तर भारतीय प्रवासियों को अक्सर निशाना बनाया गया. जब यह रणनीति चुनावी सफलता दिलाने में विफल रही, और विशेष रूप से जब उद्धव ठाकरे ने MVA का गठन किया, तो राज ने हिंदुत्व के एजेंडे को जोर-शोर से अपना लिया. उन्होंने मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने की मांग की और खुद को हिंदुत्व के एक मजबूत पैरोकार के रूप में पेश किया, यह महसूस करते हुए कि उद्धव ने इस क्षेत्र में एक राजनीतिक शून्य छोड़ दिया है. 2024 में, उन्होंने नरेंद्र मोदी को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा करके एक और बड़ा मोड़ लिया. उनकी राजनीति क्षेत्रीय कट्टरवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद के बीच लगातार बदलती रही है, जो एक सफल राजनीतिक फार्मूले की तलाश को दर्शाती है.
इस प्रकार, दोनों भाइयों की राजनीतिक यात्रा ने यह साबित कर दिया कि उनकी लड़ाई केवल विरासत की नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्तित्व और प्रासंगिकता की भी थी, जिसके लिए उन्होंने अपने वैचारिक रुख को बार-बार बदला.
राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई: जब दोनों भाइयों को एक-दूसरे की ज़रूरत पड़ी
वर्ष 2022 से 2025 के बीच महाराष्ट्र की राजनीति में हुए घटनाक्रमों ने ठाकरे बंधुओं को उनके राजनीतिक जीवन के सबसे कमजोर मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया. एक तरफ उद्धव ठाकरे अपनी ही पार्टी में हुए अब तक के सबसे बड़े विद्रोह से जूझ रहे थे, तो दूसरी तरफ राज ठाकरे लगातार चुनावी असफलताओं के कारण राजनीतिक अप्रासंगिकता के कगार पर थे. इसी साझा संकट ने दो दशकों की दुश्मनी के बाद सुलह की जमीन तैयार की.
उद्धव का संकट: 2022 का ऐतिहासिक विभाजन
जून 2022 में, उद्धव ठाकरे के सबसे भरोसेमंद सहयोगियों में से एक, एकनाथ शिंदे ने शिवसेना के अधिकांश विधायकों के साथ बगावत कर दी. यह विद्रोह उद्धव ठाकरे के लिए एक विनाशकारी झटका था. इसके परिणामस्वरूप न केवल उनकी महा विकास अघाड़ी सरकार गिर गई, बल्कि भारत के चुनाव आयोग ने पार्टी का नाम "शिवसेना" और उसका प्रतिष्ठित चुनाव चिन्ह "धनुष-बाण" भी शिंदे गुट को सौंप दिया. उद्धव ठाकरे के पास पार्टी का एक छोटा गुट (शिवसेना-UBT) और एक नया चुनाव चिन्ह 'मशाल' ही रह गया. यह उनके और उनके गुट के लिए एक अस्तित्व का संकट था, जिसने उन्हें राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर बना दिया.
राज का लंबा पतन
दूसरी ओर, राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) 2009 की अपनी शानदार शुरुआत के बाद से लगातार पतन की ओर अग्रसर थी. 2009 में 13 विधायक जिताने वाली पार्टी 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में सिर्फ एक-एक सीट पर सिमट गई. 2024 के विधानसभा चुनावों में तो MNS का खाता भी नहीं खुल सका. राज ठाकरे का व्यक्तिगत करिश्मा और उनके भाषणों की आग भीड़ तो खींचती थी, लेकिन उसे वोटों में बदलने में वे लगातार असफल रहे. पार्टी संगठनात्मक रूप से कमजोर हो चुकी थी और चुनावी राजनीति में लगभग अप्रासंगिक हो गई थी.
साझा दुर्दशा और सुलह की दस्तक
2024 के चुनावों के बाद, दोनों भाई एक ही नाव में सवार थे. उद्धव के पास प्रतिबद्ध कार्यकर्ता थे, लेकिन वे आधिकारिक पार्टी संरचना और चुनाव चिन्ह खो चुके थे. राज के पास 'ठाकरे' का करिश्माई उपनाम था, लेकिन कोई संगठनात्मक ताकत या चुनावी सफलता नहीं थी. दोनों के सामने एक शक्तिशाली बीजेपी-शिंदे-पवार महायुति गठबंधन की चुनौती थी. विशेष रूप से, भारत के सबसे अमीर नगर निगम, बृहन्मुंबई नगर निगम (BMC) के आगामी चुनाव, दोनों के लिए "करो या मरो" की लड़ाई बन गए थे. BMC पर नियंत्रण शिवसेना की प्रतिष्ठा का प्रतीक रहा है, और इसे खोना ठाकरे ब्रांड के लिए एक और बड़ा झटका होता.
इसी साझा राजनीतिक मजबूरी ने सुलह की संभावनाओं को जन्म दिया। यह पहली बार नहीं था कि दोनों को एक साथ लाने के प्रयास हुए थे. 2010 में, 'माझी चळवळ' (मेरा आंदोलन) नामक एक नागरिक पहल ने दोनों भाइयों को एकजुट करने के लिए सार्वजनिक दबाव बनाने की कोशिश की थी, जिसे कथित तौर पर स्वयं बालासाहेब ठाकरे का भी मौन आशीर्वाद प्राप्त था. परिवार के सदस्यों, जैसे उनके मामा चंद्रकांत वैद्य ने भी समय-समय पर सुलह के प्रयास किए थे. लेकिन ये प्रयास कभी सफल नहीं हुए क्योंकि तब दोनों के बीच सत्ता का संतुलन बराबर नहीं था. 2025 तक, दोनों राजनीतिक रूप से इतने कमजोर हो चुके थे कि एक-दूसरे के साथ आना उनकी व्यक्तिगत इच्छा से अधिक एक राजनीतिक आवश्यकता बन गया था.
भविष्य की राह: क्या ठाकरे बंधु स्थायी रूप से एक होंगे?
5 जुलाई, 2025 की संयुक्त रैली ने महाराष्ट्र की राजनीति में एक नए अध्याय की संभावना को जन्म दिया है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह अध्याय एक स्थायी गठबंधन का होगा या केवल एक अल्पकालिक सामंजस्य का. दोनों भाइयों के एक साथ आने की राह में अवसरों के साथ-साथ गंभीर चुनौतियां भी हैं.
गठबंधन के पक्ष में तर्क
एकजुटता का सबसे बड़ा और स्पष्ट कारण मराठी वोट बैंक का एकीकरण है. मुंबई और आसपास के इलाकों में मराठी मतदाता लगभग 30-35% हैं. यदि शिवसेना (UBT) और MNS का वोट बैंक एक साथ आता है, तो यह न केवल एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को कमजोर करेगा, बल्कि बीजेपी के लिए भी एक बड़ी चुनौती पेश करेगा, खासकर आगामी BMC चुनावों में दोनों नेताओं ने सार्वजनिक रूप से सुलह की इच्छा व्यक्त की है, यह कहते हुए कि महाराष्ट्र के हित उनके "छोटे-मोटे" व्यक्तिगत विवादों से कहीं बड़े हैं.
बाधाएं और चुनौतियां
हालांकि, इस पुनर्मिलन की राह कांटों भरी है. सबसे बड़ी बाधाएं निम्नलिखित हैं:
- अहंकार और नेतृत्व का सवाल: सबसे बड़ा सवाल यह है कि गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा? राज ठाकरे ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वे बालासाहेब के अलावा किसी और के अधीन काम नहीं कर सकते, जो सीधे तौर पर उद्धव के नेतृत्व को एक चुनौती है. क्या दो मजबूत और मुखर व्यक्तित्व वाले नेता सत्ता साझा करने के लिए तैयार होंगे, यह एक बड़ा प्रश्न है.
- वैचारिक विरोधाभास: दोनों की विचारधाराओं में गहरा अंतर है. उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के साथ गठबंधन करके अपने हिंदुत्व को नरम किया है, जबकि राज ठाकरे ने हाल के वर्षों में आक्रामक हिंदुत्व और प्रवासी विरोधी राजनीति को अपनाया है. उद्धव ने यह शर्त रखी है कि वे किसी ऐसे व्यक्ति के साथ नहीं जाएंगे जो महाराष्ट्र के हितों के खिलाफ काम करता हो या बार-बार अपना पक्ष बदलता हो - यह राज ठाकरे के अस्थिर राजनीतिक रुख पर एक कटाक्ष हो सकता है.
- संगठनात्मक विलय की जटिलता: दो अलग-अलग पार्टियों के कार्यकर्ताओं, स्थानीय नेताओं और पदाधिकारियों को एक साथ लाना एक बड़ी संगठनात्मक चुनौती होगी. BMC और विधानसभा चुनावों के लिए सीटों का बंटवारा बेहद विवादास्पद हो सकता है, क्योंकि दोनों पार्टियों के स्थानीय नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं.
अन्य राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं
ठाकरे बंधुओं के संभावित पुनर्मिलन पर महाराष्ट्र के अन्य राजनीतिक दलों ने सधी हुई प्रतिक्रिया दी है:
- भारतीय जनता पार्टी (BJP): बीजेपी ने "देखो और इंतजार करो" की नीति अपनाई है. सार्वजनिक रूप से, देवेंद्र फडणवीस जैसे नेताओं ने इसे एक "अच्छी बात" कहा है. हालांकि, रणनीतिक रूप से, बीजेपी को इसमें एक अवसर भी दिख सकता है. मराठी बनाम गैर-मराठी मतदाताओं का ध्रुवीकरण उनके पारंपरिक गुजराती और उत्तर भारतीय वोट बैंक को मजबूत कर सकता है. फिर भी, एक एकजुट ठाकरे मोर्चा उनकी राजनीतिक सर्वोच्चता के लिए एक गंभीर खतरा पैदा कर सकता है.
- कांग्रेस और एनसीपी (शरदचंद्र पवार): शिवसेना (UBT) के सहयोगी दलों ने इस कदम का सतर्क स्वागत किया है। उनका कहना है कि यदि यह गठबंधन "सांप्रदायिक बीजेपी" से लड़ने और महाराष्ट्र के हितों की रक्षा के लिए है, तो वे इसका समर्थन करेंगे.
- शिंदे सेना: एकनाथ शिंदे के गुट ने इस संभावित गठबंधन को उद्धव ठाकरे की "हताशा" करार दिया है, यह कहते हुए कि सत्ता खोने के बाद वे किसी भी तरह से प्रासंगिक बने रहने की कोशिश कर रहे हैं.
स्पष्ट है कि ठाकरे बंधुओं का भविष्य का मार्ग केवल उनकी आपसी समझ पर ही नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के जटिल राजनीतिक समीकरणों और अन्य दलों की रणनीतियों पर भी निर्भर करेगा.
विरासत, मजबूरी और 'ठाकरे ब्रांड' का भविष्य
उद्धव और राज ठाकरे की कहानी महाराष्ट्र की राजनीति में विरासत, महत्वाकांक्षा और अस्तित्व के संघर्ष की एक महागाथा है. यह एक ऐसे पारिवारिक विवाद से शुरू हुई जो बालासाहेब ठाकरे की विशाल विरासत पर दावेदारी को लेकर था, और जल्द ही दो दशकों की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में बदल गया. इस लड़ाई ने न केवल ठाकरे परिवार को विभाजित किया, बल्कि शिवसेना के वोट बैंक में भी स्थायी सेंध लगा दी, जिससे दोनों भाइयों को भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी और महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य को एक नया आकार मिला.
इस पूरे विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि 2025 में दोनों भाइयों का एक मंच पर आना किसी वैचारिक हृदय परिवर्तन का परिणाम नहीं, बल्कि राजनीतिक मजबूरी का एक स्पष्ट उदाहरण है. 2022 के विद्रोह के बाद उद्धव ठाकरे का कमजोर होना और लगातार चुनावी असफलताओं से राज ठाकरे का राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो जाना - इन दोनों घटनाओं ने एक ऐसी साझा जमीन तैयार की जहां अस्तित्व बचाने के लिए हाथ मिलाना एक रणनीतिक आवश्यकता बन गया. 'मराठी भाषा' का मुद्दा इस सामंजस्य के लिए एक आदर्श और भावनात्मक रूप से शक्तिशाली उत्प्रेरक साबित हुआ, जिसने उन्हें अपने मूल एजेंडे पर लौटने और अपने कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का अवसर दिया.
विभाजन के बावजूद, 'ठाकरे ब्रांड' आज भी महाराष्ट्र की राजनीति में एक शक्तिशाली शक्ति है, जो 'मराठी गौरव' और क्षेत्रीय पहचान का पर्याय है. उनकी आपसी लड़ाई ने इस ब्रांड को कमजोर और विभाजित किया. उनका पुनर्मिलन इसी ब्रांड की खोई हुई ताकत को फिर से हासिल करने का एक प्रयास है.
अंततः, यह कहना उचित होगा कि यह पुनर्मिलन दृढ़ विश्वास से अधिक मजबूरी से प्रेरित है. यह एक दीर्घकालिक अस्तित्व की लड़ाई में एक सामरिक कदम है. क्या यह अस्थायी युद्धविराम एक स्थायी गठबंधन में बदल पाएगा, यह भविष्य के गर्भ में है. इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या दोनों भाई अपने व्यक्तिगत हित, नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं और जटिल राजनीतिक गणनाओं से ऊपर उठ पाते हैं. इस पुनर्मिलन का परिणाम न केवल ठाकरे परिवार की राजनीतिक विरासत का भविष्य तय करेगा, बल्कि आने वाले वर्षों में महाराष्ट्र में क्षेत्रीय पहचान की राजनीति की दिशा भी निर्धारित करेगा.