नई दिल्ली, 1 नवंबर: कांग्रेस (Congress) की तत्कालीन सरकार की ओर से वर्ष 1991 में बनाए गए पूजास्थल कानून को भेदभावपूर्ण और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने इसे सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में चुनौती दी है. उन्होंने कानून की धारा 2, 3 और 4 को संविधान का उल्लंघन बताते हुए इसे रद्द करने की मांग की है. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार कानून बनाकर हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख समुदाय के लिए कोर्ट का दरवाजा बंद नहीं कर सकती है. उपाध्याय ने दलील दी है कि पब्लिक ऑर्डर तीर्थस्थल केंद्र का नहीं, बल्कि राज्य का विषय है और यह संविधान की सातवीं अनुसूची की दूसरी सूची में शामिल है. इसलिए केंद्र को यह कानून बनाने का अधिकार ही नहीं है.
दलील में कहा गया है कि हिंदू सैकड़ों वर्षों से भगवान कृष्ण (Krishna) के जन्मस्थान की बहाली के लिए लड़ रहे हैं और शांतिपूर्ण सार्वजनिक आंदोलन जारी है, लेकिन अधिनियम लागू करते समय, केंद्र ने अयोध्या में भगवान राम के जन्मस्थान को बाहर रखा है, लेकिन मथुरा (Mathura) में भगवान कृष्ण के जन्मस्थान को नहीं, हालांकि दोनों भगवान विष्णु के अवतार हैं. जून में, लखनऊ स्थित विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें 1991 अधिनियम के प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी गई.
इस कदम को महत्व मिला है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में भगवान शिव और भगवान कृष्ण के मंदिरों से जुड़े काशी-मथुरा पर मुकदमा शुरू करने की मांग की गई है. मथुरा की अदालत में एक मुकदमा पहले ही दाखिल किया जा चुका है. उपाध्याय ने दलील दी है कि केंद्र न तो प्रथम ²ष्टया अदालतों के दरवाजे बंद कर सकता है, न ही अपीलीय अदालतें, पीड़ित हिंदुओं, जैनियों, बुद्धवादियों और सिखों के लिए संवैधानिक अदालतें बंद की जा सकती हैं.
भारतीय जनता पार्टी (BJP) नेता अश्विनी उपाध्याय ने आईएएनएस से कहा, पूजास्थल कानून, 1991 में अयोध्या में श्री रामजन्म स्थान को छोड़ दिया गया, जबकि मथुरा में कृष्ण जन्म स्थान को नहीं छोड़ा गया. जबकि दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं. इस प्रकार कांग्रेस की तत्कालीन सरकार की ओर से बनाया गया यह कानून भगवाम राम और कृष्ण में भेद पैदा करने वाला है." बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने कहा, "केंद्र सरकार को यह कानून बनाने का अधिकार ही नहीं है. क्योंकि संविधान में तीर्थ स्थल राज्य का विषय है और इतना ही नहीं, पब्लिक ऑर्डर भी राज्य का विषय है, इसलिए केंद्र सरकार ने इस विषय पर कानून बनाकर अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण किया है."
जनहित याचिका में उपाध्याय ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ऐतिहासिक तथ्यों, अंतराष्ट्रीय संधियों, संवैधानिक प्रावधानों तथा हिंदू, जैन बौद्ध और सिखों के मौलिक अधिकारों को संरक्षित करते हुए उनके धार्मिक स्थलों को पुनस्र्थापित करें. उपाध्याय ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट पूजा स्थल कानून की धारा 2, 3 व 4 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26 व 29 का उल्लंघन घोषित करते हुए रद्द करें, क्योंकि इन प्रावधानों में क्रूर आक्रमणकारियों की ओर से गैरकानूनी रूप से स्थापित किए गए पूजा स्थलों को कानूनी मान्यता दी गई है.
याचिका में कहा गया है कि केंद्र ने 11 जुलाई 1991 को इस कानून को लागू किया तथा मनमाने और अतार्किक ढंग से पूर्ववर्ती तारीख से कट ऑफ डेट तय करते हुए घोषित कर दिया कि पूजा स्थलों व तीर्थ स्थलों की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 को थी, वही रहेगी. याचिकाकर्ता उपाध्याय का कहना है कि केंद्र न तो कानून को पूर्व तारीख से लागू कर सकता है और न ही लोगों को जुडिशल रेमेडी से वंचित कर सकता है. याचिका में सुप्रीम कोर्ट से केंद्र को यह निर्देश देने की मांग की गई कि उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की धारा-2 संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के उल्लंघन के लिए असंवैधानिक है.